Friday, September 21, 2007

पाकिस्तानी हिंदू:अस्तित्व की चिंता





बुद्धाराम अपनी अगली पीढ़ी के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित नज़र आते हैं
भारत और पाकिस्तान आज़ादी के साठ साल पूरे होने पर तरह-तरह के समारोह मना रहे हैं लेकिन कराची के एक बुज़ुर्ग हिंदू बुद्धाराम के लिए इन समारोहों का कोई मतलब नहीं है बल्कि उनके सामने ज़िंदगी और मौत का सवाल खड़ा है.
62 वर्षीय बुद्धाराम कराची की एक ऐसी बस्ती में रहते हैं जो चारों तरफ़ से मुसलमानों से घिरी हुई है और उनके लिए हर दिन यह ख़तरा लेकर आता है कि आज जाने क्या होगा. उनका दिन जब सही सलामत गुज़र जाता है तो बड़ी राहत की साँस लेते हैं.
चार बेटियों के पिता बुद्धाराम कहते हैं, “हमने तो जैसे-तैसे वक़्त गुज़ार लिया लेकिन हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए पाकिस्तान में हालात अच्छे नहीं हैं. हम बहुत डर में ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं. हमारे बुज़ुर्गों ने पाकिस्तान में रहने का फ़ैसला करके बहुत बड़ा ख़तरा मोल लिया था.”
बुद्धाराम पाकिस्तान में रहने वाले उन 25 लाख हिंदुओं में से एक हैं जिन्हें संविधान में तो बराबरी का दर्जा हासिल है लेकिन हक़ीक़त कुछ और ही है.
बहुत सारे हिंदुओं का यह भी कहना है कि आम ज़िंदगी में उन्हें कोई ख़ास परेशानी नहीं है लेकिन बहुत सारे ऐसे मुद्दे भी हैं जिनमें उन्हें अहसास होता है कि वे एक मुसलिम देश में रहते हैं जहाँ कभी-कभी कट्टरपंथियों का दबदबा उन्हें यह सोचने को मजबूर कर देता है कि पाकिस्तान में हिंदुओं का भविष्य क्या है?
अगस्त 1947 में पाकिस्तान बनते समय उम्मीद की गई थी कि वो मुसलमानों के लिए एक आदर्श देश साबित होगा लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि पाकिस्तान एक मुस्लिम देश ज़रूर होगा मगर सभी आस्थाओं वाले लोगों को पूरी धार्मिक आज़ादी होगी.
पाकिस्तान के संविधान में ग़ैर मुसलमानों की धार्मिक आज़ादी के बारे में कहा भी गया है, “देश के हर नागरिक को यह आज़ादी होगी कि वह अपने धर्म की अस्थाओं में विश्वास करते हुए उसका पालन और प्रचार कर सके और इसके साथ ही हर धार्मिक आस्था वाले समुदाय को अपनी धार्मिक संस्थाएँ बनाने और उनका रखरखाव और प्रबंधन करने की इजाज़त होगी.”
कराची के स्वामीनारायण मंदिर में बहुत से लोग पूजा-अर्चना करने आते हैं
मगर आज के हालात पर ग़ौर करें तो पाकिस्तान में ग़ैर मुसलमानों की परिस्थितियाँ ख़ासी चिंताजनक हैं. उनकी पहचान पाकिस्तानी पहचान में खो सी गई है, बोलचाल और पहनावा भी मुसलमानों की ही तरह होता है, वे अभिवादन के लिए मुसलमानों की ही तरह अस्सलामुअलैकुम और माशाअल्लाह, इंशाअल्लाह जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं.
पाकिस्तान में हिंदुओं की ज़्यादातर अबादी सिंध में है. सिंध और पंजाब में रहने वाले हिंदुओं के हालात में भी ख़ासा फ़र्क नज़र आता है. सिंध में हिंदू अपने अधिकारों के लिए संघर्ष भी करते नज़र आते हैं लेकिन लाहौर में रहने वाले हिंदू जैसे पूरे तौर पर सरकार पर निर्भर हैं और उन पर सरकार की निगरानी भी है.
ख़ुशी और चिंताएँ
कराची के स्वामीनारायण मंदिर परिसर में लंबे समय से रहने वाले वरसीमल कहते हैं कि उन्हें वहाँ कोई परेशानी नहीं है और हिंदू अपने त्यौहार – होली, दीवाली, रामलीला वग़ैरा भारत में हिंदुओं की ही तरह पूरी आजादी और उत्साह से मनाते हैं.
स्वानारायण मंदिर कराची महानगर पालिका के दफ़्तर के बिल्कुल सामने है और मंदिर परिसर में ही अनेक हिंदुओं के घर भी हैं और वहीं आसपास कुछ दुकानें भी. वरसीमल तो यहाँ तक भी कहते हैं कि उस परिसर में ऐसा ही माहौल रहता है जैसाकि भारत के किसी हिंदू बहुल इलाक़े में.
वैसे तो कराची में अनेक इलाक़ों में हिंदू मंदिर और घर नज़र आते हैं लेकिन एक ऐसी भी बस्ती है जिसमें हिंदू, सिख और ईसाई रहते हैं और वहाँ अनेक मंदिरों के अलावा चर्च और एक छोटा सा गुरुद्वारा भी है. नारायणपुरा नामक यह बस्ती भी बदहाली की वही कहानी कहती है जो भारत के किसी बेहद पिछड़े इलाक़े में होती है यानी भारी गंदगी, कुपोषित बच्चे और बेकार घूमते युवक.
जीने को मजबूर
हमारे पूर्वजों ने वापिस पाकिस्तान आने का फ़ैसला करके बहुत बड़ी ग़लती की थी लेकिन हमारी मजबूरी ये है कि भारत सरकार भी हमें स्वीकार करने को तैयार नहीं है और पाकिस्तान में हम डर की ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर हैं.

बुद्धाराम
इन बस्तियों में बातचीत से ऐसा आभास होता है कि वहाँ ग़ैरमुसलमानों को कोई परेशानी ही नहीं है लेकिन सच जानने की कोशिश में हम एक और ऐसी बस्ती में पहुँचे जहाँ एक मौलवी ने एक मंदिर पर क़ब्ज़ा करके वहाँ पीर की दरगाह बना ली है.
उस बस्ती में रहने वाले बुद्धाराम बताते हैं कि उनके पूर्वज 1950 के दौर में भारत के कच्छ इलाक़े में पहुँचे थे लेकिन वहाँ उन्हें समाज और सरकार का कोई सहयोग नहीं मिला और फिर वे मजबूर होकर पाकिस्तान ही लौट आए. बुद्धाराम बताते हैं कि भारत में तथाकथित उच्च जाति के हिंदुओं ने उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर दिया और छुआछूत की समस्या की वजह से उनके पूर्वज भारत से एक बार फिर पाकिस्तान लौट आए.
बुद्धाराम का कहना था, “हमारे पूर्वजों ने वापिस पाकिस्तान आने का फ़ैसला करके बहुत बड़ी ग़लती की थी लेकिन हमारी मजबूरी ये है कि भारत सरकार भी हमें स्वीकार करने को तैयार नहीं है और पाकिस्तान में हम डर की ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर हैं.”
बेटियों की चिंता
बुद्धाराम के चेहरे पर अपनी जवान बेटी के भविष्य की चिंता साफ़ नज़र आती है. यह चिंता पायल के पिता बुद्धाराम की ही नहीं है पाकिस्तान में रहने वाले बहुत से हिंदुओं की है. उनकी लड़कियों को या तो ज़बरदस्ती मुसलमान बना लिया जाता है या फिर वे हालात की वजह से ख़ुद ही इस्लाम की तरफ़ आकर्षित हो जाती हैं कि शायद मुसलमान बनकर वे ज़्यादा सुरक्षित और ख़ुशहाल रहेंगी.
मंगलेश शर्मा ने इस्लाम का अच्छा ज्ञान हासिल किया है
एक सामाजिक कार्यकर्ता मंगलेश शर्मा को यह दलील ही समझ में नहीं आती कि अचानक हिंदू लड़कियों को इस्लाम से मोहब्बत क्योंकर हो जाती है, “इस्लाम एक बहुत बड़ा मज़हब है तो उसकी किस बात से अचानक इतनी मोहब्बत हो जाती है कि वह लड़की अपने इस्लाम को क़बूल करने के लिए अपने परिवार को छोड़ने के लिए तैयार हो जाती है.”
इस्लाम की एक अच्छी जानकार मंगलेश शर्मा कहती हैं कि हिंदू लड़कियों के इस्लाम क़बूल करने के मुद्दों को राजनीतिक हवा भी दी जाती है और अधिकतर मामलों में समाज और व्यवस्था बहुसंख्यक समुदाय यानी मुसलमानों के साथ खड़ी नज़र आती है.
पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग के महासचिव इक़बाल हैदर कहते हैं कि चिंता की बात ये है कि अकसर मामलों में न्यायालय भी कम उम्र हिंदू लड़की के इस बयान को मान्यता दे देते हैं कि वह अपनी मर्ज़ी से इस्लाम क़बूल कर रही है और उस लड़की की उम्र पूछने की ज़हमत भी गवारा नहीं की जाती, ऐसे में पूरा मामला ही ढीला पड़ जाता है.
इक़बाल हैदर के अनुसार बहुत से कट्टरपंथी मुसलमान इस मुहिम पर बड़ी मुस्तैदी से काम कर रहे हैं कि हिंदुओं को और ख़ासतौर पर उनकी बेटियों को मुसलमान बनाया जाए. पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005-6 में लगभग पचास हिंदू लड़कियों ने इस्लाम क़बूल किया था.
मंदिर-मस्जिद

हिंदुओं की एक बड़ी चिंता ये भी है कि उनके अनेक मंदिर ऐसे भी हैं जिन पर क़ब्ज़ा हो चुका है लेकिन सरकार कोई सुध नहीं लेती. बुद्धाराम का कहना है कि उनकी ही बस्ती में एक मंदिर पर क़ब्ज़ा करके वहाँ पीर की दरगाह बना दी गई, सरकारी विभागों में बार-बार गुहार लगाने के बावजूद कोई सुनवाई नहीं हुई है.
पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के धार्मिक स्थलों की निगरानी करने वाले एवेक्यूई ट्रस्ट बोर्ड के चेयरमैन ज़ुल्फ़िक़ार अली ख़ान के सामने जब हमने यह सवाल रखा तो उनका कहना था कि मंदिरों की देखरेख हिंदू समुदाय के ही लोग करते हैं और उनमें सरकार का कोई दखल नहीं होता.
पाकिस्तान में हिंदुओं के अनेक आराध्य देवों को समर्पित मंदिर हैं
भारत में 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस का असर पाकिस्तान में भी महसूस किया गया. लाहौर के कृष्णा मंदिर की देखरेख करने वाले मुनव्वर चंद कहते हैं, “उस समय एक धार्मिक उन्माद देखा गया था और अनेक हिंदू मंदिरों को या तो गिराया गया या नुक़सान पहुँचाया गया लेकिन सरकार ने ज़्यादातर मंदिरों को फिर से बनवा दिया है.”
मुनव्वर चंद अपनी इस बात के समर्थन में दलील देते हैं कि लाहौर के कृष्णा मंदिर का आधुनिकीकरण करने के लिए सरकार ने पच्चीस लाख रुपए की सहायता दी है और भारी संख्या में हिंदू उसमें पूजा-अर्चना करने के लिए आते हैं.
स्कूलों में इस्लामी तालीम अनिवार्य है और हिंदुओं को अपने धर्म और भाषा का अध्ययन सिर्फ़ घरों और मंदिरों में ही करना होता है, सरकार इसमें कोई मदद नहीं करती.
तमाम मुश्किलों के बावजूद कुछ हिंदू यह कहने में भी नहीं हिचकिचाते कि सरकार उनका ख़याल रखती है. मंगलेश शर्मा की नज़र में परवेज़ मुशर्रफ़ की सरकार ने हिंदुओं के लिए हालात बेहतर बनाए हैं और उनके शासन काल में अल्पसंख्यकों को ऐसा महसूस हुआ है कि वे भी इनसान हैं.
मंगलेश शर्मा के अनुसार 1992 में हिंदुओं को बहुत तकलीफ़ें हुई थीं लेकिन भारत में जब 2002 में गुजरात दंगे हुए तो पाकिस्तान में हिंदुओं को कोई परेशानी या तकलीफ़ नहीं हुई जिसकी वजह ये थी कि सरकार ने ठोस उपाय किए थे.
राणा भगवान दास जैसे नाम अक्सर समाचारों में सुनने को मिलते हैं जो हिंदू होते हुए भी पाकिस्तान के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश के पद तक पहुँच गए मगर ऐसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं.
पाकिस्तान में भी हिंदुओं को उसी अदृश्य पक्षपात और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है जिसका आरोप भारत में रहने वाले मुसलमान लगाते हैं यानी संविधान और नियम-क़ानूनों में तो बराबरी का दर्जा हासिल है लेकिन वास्तविकता में वो बराबरी दूर की बात है.
तमाम भेदभाव और पक्षपात के माहौल के बावजूद ज़्यादातर हिंदुओं का कहना था कि उनकी पहचान एक पाकिस्तानी के रूप में ही है और इसमें उन्हें कोई अफ़सोस भी नहीं है. वे पाकिस्तान में रहकर ही अपने लिए हालात बेहतर करने की जद्दोजहद के लिए हिम्मत जुटाते नज़र आते हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान में हिंदुओं को हालात काफ़ी दयनीय हैं लेकिन लाहौर उच्च न्यायालय के हाल के एक फ़ैसले से एक उम्मीद भी नज़र आती है.
न्यायालय ने अपने फ़ैसले में एक मंदिर गिराकर वहाँ एक शापिंग माल बनाने पर रोक लगाते हुए कहा था कि किसी धार्मिक स्थल को नुक़सान पहुँचाना दंडनीय अपराध है.