Thursday, January 17, 2008

विश्व का सबसे बड़ा मंदिर


कम्बोडिया के प्राचीन मंदिर अंगकोर वाट को दुनिया का सबसे विशाल मंदिर माना जाता है. ये कम्बोडिया की राजधानी फ्नोम पैन से 192 मील उत्तर पश्चिम में स्थित है. कहते हैं कि एक भारतीय ब्राह्मण कम्बू ने 100 ईसवी में फ़ूनान राज्य की स्थापना की. भारतीय व्यापारी वहां बसने लगे और इस क्षेत्र में भारतीय संस्कृति का प्रभाव बढ़ने लगा. अंगकोर वाट की स्थापना सूर्यवर्मन द्वितीय ने 1131 में की. उनके पचास वर्ष के शासन में ही इस मंदिर का निर्माण हुआ. अंगकोर वाट का मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है. ये कोई 81 हैक्टेयर क्षेत्र में बना है और ये भारतीय वास्तुकला का अभूतपूर्व नमूना है. इसकी हर दीवार, दीर्घा और स्तम्भ पर हिन्दू मिथक कथाएं उकेरी गई हैं. सदियों तक ये मंदिर कम्बोडिया के घने जंगलों में सुरक्षित छिपा रहा लेकिन फिर 1860 में इसकी खोज एक फ़्रांसीसी मिशनरी हैनरी महूत ने की और 1992 में संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनैस्को ने इसे विश्व विरासत घोषित कर दिया.

तितली के पंखों की सुंदरता कैसे?


तितलियों के पंखों पर पाउडर जैसा पदार्थ क्या होता है और उसका क्या उपयोग है. ये सवाल पूछा है जगरनाथपुर मधुबनी बिहार से लाल बाबू सिंह.
तितली के पंख बड़ी महीन झिल्ली से बने हैं जिनमें बारीक नसों का जाल सा होता है. ये महीन झिल्ली हज़ारों नन्ही नन्ही पपड़ियों से भरी होती है. हर पपड़ी एक कोशिका का विस्तार है. जब आप तितली को पंख से पकड़ते हैं तो आपके हाथ में जो पाउडर जैसा पदार्थ आता है वो ये पपड़ियां ही हैं. इसके दो उपयोग हैं. पहला ये कि वो पंखों को रंग प्रदान करती हैं और दूसरा उनकी रक्षा करती हैं.

फौजियों का गाँव गहमर


उत्तरप्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले का गहमर गाँव न सिर्फ एशिया के सबसे बड़े गाँवों में गिना जाता है, बल्कि इसकी ख्याति फौजियों के गाँव के रूप में भी है.
इस गाँव के करीब दस हज़ार फौजी इस समय भारतीय सेना में जवान से लेकर कर्नल तक विभिन्न पदों पर कार्यरत हैं, जबकि पाँच हज़ार से अधिक भूतपूर्व सैनिक हैं.

यहाँ के हर परिवार का कोई न कोई सदस्य भारतीय सेना में कार्यरत है.

बिहार-उत्तरप्रदेश की सीमा पर बसा गहमर गाँव क़रीब आठ वर्गमील में फैला है.

लगभग 80 हज़ार आबादी वाला यह गाँव 22 पट्टी या टोले में बँटा हुआ है और प्रत्येक पट्टी किसी न किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के नाम पर है.

यहाँ के लोग फौजियों की जिंदगी से इस कदर जुड़े हैं कि चाहे युद्ध हो या कोई प्राकृतिक विपदा यहाँ की महिलायें अपने घर के पुरूषों को उसमें जाने से नहीं रोकती, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित कर भेजती हैं.


ग्राम प्रधान किरण सिंह

गाँव में भूमिहार को छोड़ वैसे सभी जाति के लोग रहते हैं, लेकिन सर्वाधिक संख्या राजपूतों की है और लोगों की आय का मुख्य स्रोत नौकरी ही है.

प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध हों या 1965 और 1971 के युद्ध या फिर कारगिल की लड़ाई, सब में यहाँ के फौजियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.

विश्वयुद्ध के समय में अँग्रेजों की फौज में गहमर के 228 सैनिक शामिल थे, जिनमें 21 मारे गए थे. इनकी याद में गहमर मध्य विधालय के मुख्य द्वार पर एक शिलालेख लगा हुआ है.

भूतपूर्व सैनिक

गहमर के भूतपूर्व सैनिकों ने पूर्व सैनिक सेवा समिति नामक संस्था बनाई है.

संयोजक शिवानंद सिंह कहते हैं, "दस साल पहले स्थापित इस संस्था के करीब तीन हज़ार सदस्य हैं और प्रत्येक रविवार को समिति की बैठक कार्यालय में होती है जिसमें गाँव और सैनिकों की विभिन्न समस्याओं सहित अन्य मामलों पर विचार किया जाता है. गाँव के लड़कों को सेना में बहाली के लिए आवश्यक तैयारी में भी मदद दी जाती है."


किरण सिंह के अनुसार पूरा गाँव फौजी मानसिकता को समझता है

गाँव के युवक गाँव से कुछ दूरी पर गंगा तट पर स्थित मठिया चौक पर सुबह–शाम सेना में बहाली की तैयारी करते नजर आ जाएँगे.

शिवानंद सिंह कहते हैं,"यहाँ के युवकों की फौज में जाने की परंपरा के कारण ही सेना गहमर में ही भर्ती शिविर लगाया करती थी. लेकिन 1986 में इस परंपरा को बंद कर दिया गया, और अब यहाँ के लड़कों को अब बहाली के लिए लखनऊ, रूड़की, सिकंदराबाद आदि जगह जाना पड़ता है."

गहमर भले ही गाँव हो, लेकिन यहाँ शहर की तमाम सुविधायें विद्यमान हैं. गाँव में ही टेलीफ़ोन एक्सचेंज, दो डिग्री कॉलेज, दो इंटर कॉलेज, दो उच्च विधालय, दो मध्य विधालय, पाँच प्राथमिक विधालय, स्वास्थ्य केन्द्र आदि हैं.

गहमर की ग्राम प्रधान किरण सिंह कहती हैं, "यहाँ के लोग फौजियों की जिंदगी से इस कदर जुड़े हैं कि चाहे युद्ध हो या कोई प्राकृतिक विपदा यहाँ की महिलायें अपने घर के पुरूषों को उसमें जाने से नहीं रोकती, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित कर भेजती हैं."

गहमर रेलवे स्टेशन पर कुल 11 गाड़ियाँ रूकती हैं और सबसे कुछ न कुछ फौजी उतरते ही रहते हैं लेकिन पर्व-त्योहारों के मौक़े पर यहाँ उतरने वाले फौजियों की भारी संख्या को देख ऐसा लगता है कि स्टेशन सैन्य छावनी में तब्दील हो गया हो.

जमाइयों की जन्नत पीपल्दा कलाँ


राजस्थान का एक गाँव जमाइयों या दामादों को ऐसा पसंद आया है कि वे शादी के बाद वहीं के होकर रह गए.
इन दामादों की संख्या चार सौ से ज़्यादा है.

लोग मध्यप्रदेश की सीमा से सटे कोटा ज़िले के इस पीपल्दा कलाँ गाँव की बस्ती के नाम से जानते हैं.

अब तो दामादों ने वहाँ अपना सगंठन भी बना लिया है.

इस गाँव में बाबुल की दुआओं के साथ बेटियों को बिदाई तो दी जाती है लेकिन उन्हें अपने पालनहारों की आँखों से दूर नहीं जाना पड़ता.

ऐसे सैकड़ों किस्से हैं जब जमाइयों राजा अपनी ससुराल में ही बस गए.

गाँव के गोपाल सैनी से दामादों की संख्या पूछी तो वे अंगुलियों पर गिनने लगे. श्री सैनी हिसाब लगाकर बताते हैं कि वार्ड में 25 से 30 दामाद हैं. वार्ड संख्या 11 में सबसे ज़्यादा यानी 65 हैं.

वैसे दामादों की कुल गिनती 400 से ज़्यादा है.

जाति धर्म नहीं

जमाइयों के ससुराल में बसने का यह चलन किसी ख़ास जाति या धर्म तक सीमित नहीं है. सभी जातियों में इसका चलन है.


पीपल्दा कलां को दामादों या जँवाइयों के गाँव के रुप में जाना जाता है

पीर मोहम्मद को शादी के बाद पीपल्दा ऐसा रास आया कि यहीं बस गए. और अब पीर मोहम्मद के दो दामाद भी यही रहने लगे हैं.

पीर मोहम्मद की बेटी फरीदा अपने शौहर के साथ पीपल्दा में ही रहती है. फरीदा कहती है- "माँ-बाप की आँखों के सामने रहने से दिल खुश रहता है."

दामाद संगठन

पीपल्दा के चंद्रशेखर देशबंधु ने इन दामादों का संगठन खड़ा कर लिया है. दामाद परिवार के अध्यक्ष देशबंधु कहते है, "यहाँ दामादों का बड़ा सम्मान है. इस बार दामाद परिषद सरपंच पद के लिए अपना प्रत्याशी खड़ा करेगी."

यहाँ दामादों का बड़ा सम्मान है. इस बार दामाद परिषद सरपंच पद के लिए अपना प्रत्याशी खड़ा करेगी

60 वर्षीय पुरूषोत्तम शर्मा के दामाद इसी गाँव में आबाद है.

वे कहते हैं, "बेटी और दामाद का आँखों के सामने रहना अच्छा लगता है, लेकिन जब कभी बेटी को तकलीफ में देखते हैं तो दुख भी होता है."

पीपल्दा के राजेन्द्र सिंह आसावत से पूछा कि ऐसा क्या है कि इस गाँव में दामाद यही के होकर रह जाते है? तो उन्होंने कहा, "दरअसल दामादों को इज़्ज़त देकर गाँव के लोग अपनी बेटियों के प्रति भी समान व्यक्त करते हैं, यह पुत्रियों के प्रति माँ-बाप के स्नेह का परिचायक है."

पंचायत के चुनाव आने वाले हैं और दामादों की निगाहें सरपंच की कुर्सी पर टिकी हैं. पर उन्हें नहीं मालूम की सियासत तो भाई-भतीजावाद को ज़्यादा तरजीह देती है, दामादों को कम.