Saturday, June 28, 2008

बिल की ५ हिदायतें

अगर आप गड़बड़ियां करते हों तो उसके लिए अपने माता-पिता को दोष न दें। अपनी गलतियों का रोना रोने के बजाय उनसे सीखने का प्रयास करंे।
>>आपके पैदा होने से पहले आपके माता-पिता इतने नीरस नहीं थे, जितने अब हैं। वे आपके जरूरी-गैर जरूरी खर्च उठाने, आपके कपड़े साफ करने और आपकी हर बात सुनने की वजह से ऐसे हो गए हैं।
>>आपकी स्कूल में हर चीज का निर्धारण भले ही पास-फेल से होता हो, लेकिन जिंदगी में हर बार ऐसा नहीं होना जरूरी नहीं है।
>> जिंदगी की स्कूल में सेमेस्टर्स नहीं होते। इसमें आपको गर्मियों की छुट्टियां नहीं मिलेंगी।
>>अनाकर्षक व्यक्तियों के प्रति भी अच्छी राय रखें। हो सकता है आपको ऐसे ही किसी व्यक्ति के लिए काम करना पड़े।
यह भी खूब !
>> बिल गेट्स 250 डॉलर प्रति सेकेंड कमाते हैं यानी रोजाना दो करोड़ डॉलर।
>> अगर उनके हाथ से एक हजार डालर का नोट गिर जाए तो उन्हें उसे उठाने की जरूरत नहीं रहेगी। उसे उठाने में उन्हें चार सेकेंड का समय लगेगा और इतने समय में वे हजार डॉलर कमा लेंगे।
>> अमेरिका पर कुल कर्ज 5.62 ट्रिलियन डॉलर है। अगर बिल गेट्स को इस कर्ज का भुगतान करने को कहा जाए तो वे 10 साल से भी कम समय में उसे चुकता कर देंगे।
>> वे संसार के प्रत्येक व्यक्ति को 15 डॉलर दान दे सकते हैं और उसके बाद भी उनके पास 50 लाख डालर बच जाएंगे।
>> अगर गेट्स के पास कुल राशि को एक डालर के नोटों में तब्दील कर दिया जाए तो उन्हें जोड़कर धरती से चंद्रमा तक 14 बार सड़क बनाई जा सकती है। लेकिन एक व्यक्ति को यह सड़क बनाने में 1400 साल लगेंगे, वह भी लगातार 24 घंटे काम करने पर।
>> अगर माइक्रोसाफ्ट विंडो के यूजर्स हर बार कम्प्यूटर हेंग होने पर हर्जाने के तौर पर एक-एक डॉलर की मांग करने लगें तो गेट्स तीन साल में दिवालिया हो जाएंगे।

Friday, June 27, 2008

पहले फ़ील्ड मार्शल सैम बहादुर नहीं रहे

भारत के पूर्व सेना प्रमुख और 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के हीरो माने जाने वाले फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का गुरुवार रात निधन हो गया. वो 94 वर्ष के थे.
कई दिनों से उनकी हालत नाज़ुक बनी हुई थी. मानेकशॉ तमिलनाडु के वेलिंग्टन सेना अस्पताल में भर्ती थे.
समाचार एजेंसियों के अनुसार गुरुवार की सुबह डॉक्टरों ने कह दिया था उनकी हालत लगातार बिगड़ रही है.
भारत के सबसे ज़्यादा चर्चित और कुशल सैनिक कमांडर माने जाने वाले 94 वर्षीय मानेकशॉ का जीवन उपलब्धियों से भरा रहा. उन्होंने भारत के लिए कई महत्वपूर्ण जंगों में निर्णायक भूमिका निभाई.
उनकी सबसे बड़ी कामयाबी मानी जाती है- 1971 में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ जंग में जीत.
उस समय पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में करीब 93 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों फ़ौज ने भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया था.
तब से सैम बहादुर के नाम से लोकप्रिय फ़ील्ड मार्शल मानेकशॉ को एक राष्ट्रीय नायक के रूप में देखा जाता रहा है.
मानेकशॉ का बचपन
फ़ील्ड मार्शल मानेकशॉ का पूरा नाम सैम होर्मुशजी फ़्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ है. उनका जन्म तीन अप्रैल 1914 को अमृतसर में हुआ था.
उनका परिवार पारसी है. उनके पिता डॉक्टर एचएफ मानेकशॉ एक चिकित्सक थे और पंजाब में जाकर बस गए थे. सैम मानेकशॉ ने प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में ही पाई. बाद में वो नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में दाखिल हो गए.
स्कूली शिक्षा के बाद वो उच्च अध्ययन के लिए इंग्लैंड जाना चाहते थे. लेकिन उनके पिता ने उन्हें बहुत छोटा जानकर विदेश नहीं भेजा.
बाद में उन्होंने अमृतसर के हिंदू सभा कॉलेज में दाख़िला लिया. उन दिनों 'ब्रिटिश इंडियन आर्मी' में भारतीयों को सीधा कमीशन मिलने लगा था और देहरादून में 'इंडियन मिलिट्री एकेडमी' की स्थापना की गई थी.
सैम ने भी एकेडमी के पहले बैच में प्रवेश के लिए आवेदन किया और सफल हो गए.
मानेकशॉ पर डॉक्यूमेंट्री
फ़ील्ड मार्शल मानेकशॉ पर एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म 'इन वार एंड पीस: द लाइफ़ ऑफ़ फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ' भी बन चुकी है.
दिल्ली की ग़ैरसरकारी संस्था 'परज़ोर' ने इस डॉक्यूमेंट्री को तैयार किया था.
भारत-पाकिस्तान की 1971 की जंग के दौरान मानेकशॉ भारतीय सेनाध्यक्ष थे
ये फ़िल्म एक दादा द्वारा अपने पोते को बताए गए किस्सों पर आधारित थी. जिसमें दादा सैम मानेकशॉ ने अपने पोते को भारत के कुछ यादगार ऐतिहासिक पलों के बारे में बताया था.
फ़िल्म की निर्देशक जेसिका गुप्ता ने वर्ष 2003 में डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म के उदघाटन समारोह के दौरान बीबीसी को बताया था, "सैम बहादुर का जो मज़ाक करने का अंदाज़ है, जो अपनापन है, उससे आपको इस बात का एहसास हो जाता है कि आप किसी हीरो के पास बैठे हुए हैं."
इस डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में एक जगह सैम याद करते हैं कि कैसे 1971 की लड़ाई के बाद तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें तलब किया और कहा कि ऐसी चर्चा है कि सैम तख़्ता पलटने वाले हैं.
सैम ने मज़ाक करते हुए अपने जाने-माने अंदाज़ में कहा, "क्या आप ये नहीं समझतीं कि मैं आपका सही उत्तराधिकारी साबित हो सकूँगा? क्योंकि आपकी नाक लंबी है और मेरी भी नाक लंबी ही है."
और फिर सैम ने कहा, "लेकिन मैं अपनी नाक किसी के मामले में नहीं डालता और सियासत से मेरा दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है."
फिल्म में सैम को ये भी कहते हुए दिखाया गया है कि शिमला समझौते के दौरान भारत ने कश्मीर समस्या सुलझाने का सुनहरा मौक़ा ख़ो दिया.

Wednesday, June 18, 2008

कब जागेंगे हम?

जब पिछली बार हमने सत्ता के गलियारों को हिलाने की हिमाकत की थी तो हमें तीन साल तक दहकते अंगारों पर चलने का अभिशाप दिया गया. रक्षा सौदों में भष्टाचार की पोल खोलने वाला ऑपरेशन वेस्ट एंड मार्च 2001 में प्रसारित हुआ था. इसके फौरन बाद दो चीजें हुईं. पहला हमें लंबे समय तक लोगों की अपार सराहना और उनका प्यार मिला. दूसरा, हमारे काम और जिंदगी पर एक अनैतिक और असंवैधानिक हमला बोला गया. ये भी लंबे समय तक नहीं रूका—तब तक जब तक सरकार का सारा गोला-बारूद खत्म नहीं हो गया.
छह साल पहले उस वक्त हम पर एक के बाद एक कई आरोप लगाए गए. कुछ ने कहा कि हम कांग्रेस के लिए काम करते हैं. कइयों के लिए हम दाऊद के आदमी थे. कुछ का कहना था कि हमारे पीछे हिंदुजा का पैसा लगा है. कोई हमें आईएसआई से जोड़ रहा था जिसका मकसद हमारे जरिये शेयर बाजार को औंधे मुंह गिराना था. कहा जा रहा था कि इस काम के लिए हमें करोड़ों रुपये मिले हैं. यही नरेंद्र मोदी उस समय बीजेपी के महासचिव हुआ करते थे. मुझे वह टीवी इंटरव्यू नहीं भूलता जिसमें मोदी और मैं दोनों फोन पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे और मोदी चिल्लाचिल्लाकर हमारे खिलाफ झूठ उगल रहे थे. एक दिन बाद ही वह मेरे बारे में दस तथ्यों से भरा एक पर्चा भी छापने वाले थे.
मुझे वह टीवी इंटरव्यू नहीं भूलता जिसमें मोदी और मैं दोनों फोन पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे और मोदी चिल्लाचिल्लाकर हमारे खिलाफ झूठ उगल रहे थे. एक दिन बाद ही वह मेरे बारे में दस तथ्यों से भरा एक पर्चा छापने वाले थे.
इनमें पहला और सबसे अहम तथ्य ये था कि मैं एक कांट्रेक्टर का बेटा हूं जो कि वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह के करीबी सहयोगी थे.
हमारे ख़िलाफ़ उछाला गया हर आरोप दिल्ली के संभ्रांत हलकों में न केवल चटखारे लगाकर सुना-सुनाया गया बल्कि एक कान से दूसरे कान तक जाने की प्रक्रिया में इसमें कई और स्वाद भी जोड़े गए. यहां तक कि दोस्तों और जानने वालों ने भी दबी जबान में बातें कीं. ये वे लोग थे जिन्होंने किसी को बिना फायदे के कभी कुछ करते हुए नहीं देखा था. उनके लिए ये मानना सही भी था कि हम भला उनसे क्योंकर अलग होंगे. और अब जब सरकार हमारे शिकार पर निकल ही चुकी थी तो सच का सामने आना बस कुछ वक्त का ही खेल था. इतना सब कहने के बाद मिलने पर हमारी तरफ एक जुमला उछाल दिया जाता कि आपने असाधारण काम किया...ऐसा काम जो न सिर्फ जरूरी था बल्कि बहुत साहसिक भी.
हकीकत ये है कि-
-मैं कभी भी किसी हिंदुजा से नहीं मिला था
-मैंने स्टॉक मार्केट में एक शेयर की भी खरीद-फरोख्त नहीं की थी.
-मेरा कांग्रेस से कभी भी कोई लेनादेना नहीं रहा. मैं तो राजनीति कवर करने वाला पत्रकार तक नहीं था. रिकार्ड के लिए बता दूं कि तहलका शायद भारत में अकेली ऐसी कंपनी होगी जिसके खिलाफ तीन सीबीआई केस चल रहे हैं. ये तीनों केस एनडीए सरकार के वक्त दर्ज किए गए थे और यूपीए के सत्ता में आने के बाद भी जारी हैं. हमें जमानत लेने के लिए नियमित रूप से कोर्ट के चक्कर काटने पड़ते हैं.
-हमारे पास कभी भी काले धन की एक पाई तक नहीं रही. अगर ऐसा होता तो हर घड़ी हमारे पीछे लगी रही एजेंसियां हमें कब का जेल में ठूंस देतीं. आखिर में ऐसा वक्त आया जब इस कंपनी में काम करने वाले लोग 120 से घटकर सिर्फ चार रह गए. साउथ एक्सटेंशन के पीछे एक किराए के कमरे में हमारा ऑफिस चल रहा था. कानूनी और जिंदगी के तमाम पचड़ों से लड़ने के लिए हम पर दसियों लाख रुपये उधार चढ़ चुके थे जो हम अब तक चुका रहे हैं.
गंभीर आरोप लगने पर चिल्लाचोट की रणनीति भले ही चतुर लेकिन निंदनीय राजनीतिक दांव हो लेकिन भारतीय संभ्रांत वर्ग की साजिश ढूंढने का शगल समझ से परे है. इससे केवल खुद के बारे में सोचने वाली संस्कृति की बू आती है जहां कोई जनहित कोई मकसद ही नहीं होता.
-और हां, अंडरवर्ल्ड को झटका देने वाले क्रिकेट मैच फिक्सिंग के खुलासे के बावजूद हमसे से कोई दाऊद इब्राहिम या किसी और भाई से कभी नहीं मिला था.
मेरे पिता को तो छोड़िये मैं भी उस समय तक अर्जुन सिंह से कभी नहीं मिला था. कांट्रेक्टर होने की बजाय मेरे पिता की जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा भारतीय सेना में गुजरा था. इस दौरान उन्होंने 1965 और 1971 में पाकिस्तान से हुए दोनों युद्ध भी लड़े. फिर भी मोदी ने सार्वजनिक मंच पर ये और ऐसे दूसरे कई सफेद झूठ बोलने से पहले कुछ नहीं सोचा और सेंसेक्स से भी ज्यादा चकरायमान मीडिया ने इसके पीछे के सच को बाहर लाने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं समझी.
झूठ के पीछे के सच को अगर बाहर न लाया जाए तो झूठ खतरनाक आकार ले लेता है. सच्चाई का चेहरा विकृत हो जाता है और अराजकता घर करने लगती है. पुरानी कहावत है कि झूठ को अगर लगातार और कई तरीकों से फैलाया जाता है तो वह सच बन जाता है या फ़िर कम से कम सच को डुबो तो देता ही है. इसका उदाहरण तब देखने को मिला जब 1984 में सिक्खों की गर्दनें तलवारों पर रखी गईं. और हमने ऐसा होते 2002 में भी देखा जब गुजरात को दूषित भावनाओं के साथ गलत जानकारी की आड़ में आग के हवाले कर दिया गया. कुछ मौकों पर मीडिया ने सच की पड़ताल कर उसे दिखाया भी. लेकिन तब तक सच का महत्व ही खत्म हो चुका था. सच से बेनकाब होते लोगों की रणनीति इतना शोर मचाने की थी कि उसमें सब कुछ डूब जाए—अच्छा, बुरा, सच, झूठ सब कुछ. हमारी इस तहकीकात पर उनका शोर है कि आपने गोधरा के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं. जबकि सच ये है कि इस अंक के 30 पन्ने गोधरा की तहकीकात को ही समर्पित हैं.
गंभीर आरोप लगने पर चिल्लाचोट की रणनीति भले ही चतुर लेकिन निंदनीय राजनीतिक दांव हो लेकिन भारतीय संभ्रांत वर्ग की साजिश ढूंढने का शगल समझ से परे है. इससे केवल खुद के बारे में सोचने वाली संस्कृति की बू आती है जहां कोई जनहित कोई मकसद ही नहीं होता. पिछले कुछ सालों में मुझे कई बार ये अजीब और कड़वा अनुभव हुआ है जब लोगों को मैंने मेधा पाटकर और अरुंधती रॉय जैसे जनता के लिए लड़ने वाले लोगों पर पैसे के लिए काम करने का आरोप लगाते देखा है. किसी की राय से सहमत न होना अलग बात है. लेकिन खुद ही ये मान लेना कि आम लोगों के मुद्दों को उठाने वाले लोग भष्ट्र हैं, हमारे बारे में कई गंभीर पहलुओं की पोल खोलता है. इस विकृति का कुछ लेना-देना हमारी गुलामी के समय से भी है--वह दौर जब हम ईर्ष्या, चालाकी, साजिश, चुगली या धोखा, किसी भी तरह से गोरे मालिकों को खुश करने के लिए बैचैन रहते थे.
इस बार जब हमने 2002 के गुजरात नरसंहार के पीछे छिपे सच का खुलासा किया तो साजिश ढूंढने वालों ने नई ऊंचाइयां नाप लीं. बीजेपी ने हम पर कांग्रेस के लिए काम करने का आरोप लगाते हुए हमला किया. उधर, कांग्रेस का कहना था कि हम बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं. इससे साफ था कि हम किसी सही काम को ही अंजाम दे रहे थे. इस सबके बीच भारत के विचार के लिए लड़ने का काम लालू यादव, मायावती और वामदलों पर छोड़ दिया गया. हालांकि आदर्श भारत का ये विचार कभी कांग्रेस के पुरोधाओं द्वारा रचा गया था लेकिन आज की कांग्रेस से जुड़े दिग्गज शायद इसका मतलब भी भूल चुके हैं.
अगर सीआईआई को थोड़ी भी बदहजमी हो जाए तो प्रधानमंत्री कार्यालय इस पर तुरंत स्पष्टीकरण जारी कर देता है. और अगर इस बदहजमी पर वह एक सेमिनार भी करना चाहे तो प्रधानमंत्री उसमें मुख्य वक्ता के रूप में फौरन पहुंच जाते हैं.
ये भी अपने आप में असाधारण बात है कि गुजरात नरसंहार के खुलासे को कई दिन होने को आए लेकिन अब तक इस पर न तो प्रधानमंत्री ने ही कोई बयान दिया और न ही गृहमंत्री ने. पत्रकारिता के इतिहास में पहली बार सामूहिक हत्याकांड करने वाले कैमरे पर खुद बता रहे थे कि उन्होंने कैसे मारा, क्यों मारा और किसकी इजाजत से मारा. ये कोई छोटे-मोटे अपराधी नहीं थे. ये विचारधारा में अंधे वे उन्मादी लोग थे जो उस खतरनाक दरार की सच्चाई का खुलासा कर रहे थे जिसमें इस देश के टुकड़े करने की क्षमता है. लेकिन रेसकोर्स रोड में बैठे भद्रजनों के लिए ये काफी नहीं था. अगर सीआईआई को थोड़ी भी बदहजमी हो जाए तो प्रधानमंत्री कार्यालय इस पर तुरंत स्पष्टीकरण जारी कर देता है. और अगर इस बदहजमी पर वह एक सेमिनार भी करना चाहे तो प्रधानमंत्री उसमें मुख्य वक्ता के रूप में फौरन पहुंच जाते हैं.
प्रधानमंत्री को भी कोसने का क्या फायदा. उनके पास जिम्मेदारी तो है पर शक्तियां नहीं. बेईमानी के पहाड़ की चोटी पर बैठा ईमानदार व्यक्ति. कांग्रेस के उन बड़े रणनीतिकारों पर नजर डालते हैं जो खुद तो कोई चुनाव नहीं जीत सकते मगर कईयों को चुनाव जितवाने के रहस्य जानते हैं. उनके हिसाब से देखा जाए तो हत्याओं और बलात्कारों में मोदी की भूमिका का पर्दाफाश इस तरह से डिजाइन किया गया था कि गुजराती हिंदू को ये यकीन हो जाए कि मोदी ही उनके लिए आदर्श नेतृत्व हैं. उन्हें यह नहीं सूझा कि हिंसा के इन सबूतों को वे मोदी के खिलाफ एक हिला देने वाली सार्थक बहस शुरू करने के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं.
वास्तविकता ये है कि कांग्रेस को आज कुछ ऐसे छुटभैये रणनीतिकार चला रहे हैं जो ये भूल चुके हैं कि सही कदम उठाना क्या होता है. उनके पास न तो इतिहास के अनुभवों का प्रकाश है और न ही भविष्य के लिए दृष्टि. वे यह देख पाने में असमर्थ हैं कि एक जमाने में महान विभूतियों ने धर्म, जाति, भाषा, नस्ल आदि जैसी खाइयों को पाटते हुए इस देश के विचार को शक्ल दी थी. मूर्खतापूर्ण तरीके से वे अब इन्हीं दरारों को फिर से उभार रहे हैं. वे उन संकटों को देख पाने में असमर्थ हैं जो इसके परिणामस्वरूप सामने आएंगे. उन्हें ये नहीं पता कि राजनीति में नैतिकता को हथियार कैसे बनाया जा सकता है और उनमें नैतिकता के रास्ते पर चलने की हिम्मत भी नहीं है. ये लोग और कुछ नहीं ज्यादा से ज्यादा बस चुनावों में वोटों की तिकड़म भिड़ाने वाले एकाउंटेंट हैं जो चुनावी लाभ और हानि के बीच झूला झूलते रहते हैं.
आज की कांग्रेस उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतंत्र में निष्ठा रखने वाले उस भारतीय को निराश करती है जिसे भारत की आत्मा की रक्षा करने को एक राजनीतिक छाते की आवश्यकता है. सही बातें न कहकर, सही कदम न उठाकर ये उस उदार भारतीय को कमजोर करती है जिसकी विवादों में कोई रुचि नहीं और जो अपनी अच्छाई की स्वीकृति चाहता है. इससे पैदा हुए खाली स्थान पर जहरीली और विकृत विचारधाराएं काबिज हो जाती हैं.
और ये सब तब हो रहा है जब भारतीय कुलीन वर्ग ऐसा व्यवहार कर रहा है जैसा कि 1920 में चमक-दमक और शैंपेन की खुमारी में डूबा अमेरिकी कुलीन वर्ग किया करता था जबकि पैरों के नीचे की जमीन बड़ी तेज़ी से दरकती जा रही है. ताजा आंकड़े बताते हैं कि पांच मुख्य राज्यों में गरीबी से बदहाल लोगों की संख्या बढ़ रही है. भारत के 30 फीसदी जिलों में घनघोर दरिद्रता से उठता नक्सलवाद बढ़ता रहा है. आखिर कब तक आकंठ पैसे में डूबे हुए और भूख से मर रहे लोग बगैर टकराव के साथ-साथ रह सकते हैं. सच्चाई ये है कि भारत को सिर्फ आर्थिक सुधारों की नहीं बल्कि राजनीतिक दूरदृष्टि की भी जरूरत है जिसका कहीं अता-पता नहीं. गुजरात के प्रति हमारी बेपरवाही बताती है कि दुनिया के इस सबसे जटिल लोकतंत्र के सामने अब तक की सबसे पेचीदा चुनौती मुंह बाए खड़ी है.
तरुण तेजपाल
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'स्पेलिंग चैम्पियनशिप' में भारतीय दबदबा

Marwar News!
भारतीय मूल के कृष्ण मिश्र और अल्का मिश्र पिछले सात वर्षो से अपने बच्चों को अमरीका में होने वाली वर्तनी प्रतियोगिता- 'नेशनल स्पेलिंग बी' में भाग लेने के लिए इंडियाना से वाशिंगटन डीसी ले जाते रहे हैं.
वे दिल्ली से 15 वर्ष पहले अमरीका आए थे. इस बार उनके पुत्र 13 वर्षीय समीर ने इस प्रतियोगिता में पहला स्थान जीतकर उनका सपना पूरा कर दिया है. .
समीर को 40 हज़ार डॉलर यानी क़रीब 16 लाख रुपए से भी ज़्यादा की राशि पुरस्कार में मिली है.
सबसे पहले उनकी बड़ी पुत्री श्रुति ने इस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था.
अमरीका में यह प्रतियोगिता काफ़ी लोकप्रिय है. इसके लिए बच्चे महीनों तैयारी करते हैं. प्रतियोगिता के राष्ट्रीय स्तर के फ़ाइनल में पहुँचने से पहले उन्हें स्थानीय और प्रांतीय स्तर पर जीत हासिल करनी पड़ती है.
समीर ने 'guerdon' शब्द की सही स्पेलिंग बता कर यह प्रतियोगिता जीती है. इस बहुत कम प्रचलित शब्द का मतलब पुरस्कार होता है.
लाल कालीन पर चलना आपको एक सेलिब्रिटी होने का एहसास देता है. मेरी पत्नी चाहती थी कि समीर भी सेलिब्रिटी की तरह लाल कालीन पर ले चले

कृष्ण मिश्र, समीर के पिता
इस वर्ष दक्षिण एशिया के बच्चे इस प्रतियोगिता में छाए रहे. दूसरे स्थान पर इस प्रतियोगिता में मिशीगन के 12 वर्ष के सिद्धार्थ चांद रहे जबकि कैनसस की काव्या शिवशंकर को चौथा और पेन्सिलवेनिया की जाह्नवी अय्यर को आठवाँ स्थान मिला.
लगन और इच्छाशक्ति
समीर को परिवार का पूरा सहयोग मिला
न्यूयॉर्क में रहने वाले आठ वर्षीय श्रीराम हथवार ने इस प्रतियोगिता में भाग लेने वाले सबसे कम उम्र का प्रत्याशी बनकर सबको चौंका दिया.
स्पेलिंग प्रतियोगिता में भारतीय परिवार के बच्चों के वर्चस्व की असली वजह उनका पारिवारिक माहौल है.
वर्ष 1985 में 'स्पेलिंग बी' प्रतियोगिता में जीतने वाले और इस वर्ष के निर्णायकों में से एक, डॉक्टर बालू नटराजन का कहना है कि जो बात सभी जीतने वाले प्रतियोगियों में दिखती है वह है उनका इस प्रतियोगिता के प्रति लगन और परिवार का सहयोग.
वे कहते हैं, "यह ऐसी प्रतियोगिता नहीं है जिसे बच्चे सिर्फ़ अपनी प्रतिभा के बूते जीत लें. मुझे लगता है कि दक्षिण एशियाई परिवारों की इच्छा और सहयोग काफ़ी मायने रखता है."
कृष्ण मिश्र कहते हैं कि 'स्पेलिंग बी' प्रतियोगिता उनके बच्चों के लिए एक अच्छा शैक्षणिक अनुभव रहा है और इससे बेहतरीन अंग्रेजी सीखने में भी मदद मिलती है.
वे हँसते हुए कहते हैं, "लाल कालीन पर चलना आपको एक सेलिब्रिटी होने का एहसास देता है. मेरी पत्नी चाहती थी कि समीर भी सेलिब्रिटी की तरह लाल कालीन पर ले चले."
समीर कहते हैं कि उन्होंने इस प्रतियोगिता के लिए काफ़ी मेहनत किया था. वे कहते हैं, "मैंने सीखा कि कैसे लगातार मेहनत किया जाए और उसे बरकरार रखा जाए."
वर्तनी प्रतियोगिता में दक्षिण एशिया मूल के लोगों की सफलता को देख कर न्यू जर्सी के राहुल वालिया 'दक्षिण एशिया स्पेलिंग बी' प्रतियोगिता का आयोजन कर रहे हैं.
वे कहते हैं इन प्रतियोगिताओं से बच्चों के अंदर विश्वास बढ़ेगा और उनकी प्रतिभा निखरेगी.

Tuesday, June 17, 2008

मारे गए पत्रकारों की स्मृति में स्मारक

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने लंदन में एक स्मारक का अनावरण किया. यह उन पत्रकारों की याद में तैयार किया गया है जो रिपोर्टिंग करते मारे गए.
'ब्रीदिंग' नाम का यह स्मारक बीबीसी के मुख्यालय ब्रॉडकास्टिंग हाउस की छत पर स्थापित किया गया है.
यह एक रोशनी का एक स्तंभ है जिसकी ऊँचाई 32 फ़ुट है. इसका प्रकाश रात को आकाश में एक किलोमीटर तक चमकेगा.
हर रात आधा घंटे यह उस समय रौशन होगी जब बीबीसी का प्रमुख समाचार बुलैटिन प्रसारित होता है. यानी रात दस बजे.
यह स्मारक उन सभी पत्रकारों और उनके साथ काम करने वाले लोगों को समर्पित है, जो अपना काम करते हुए मारे गए, इनमें ड्राइवर हैं और अनुवादक भी.
पिछले दस सालों में औसतन हर हफ़्ते दो ऐसे पत्रकार मारे गए हैं जो युद्ध की रिपोर्टिंग करते हैं, कई अन्य पत्रकार भ्रष्टाचार की रिपोर्टिंग करते हुए मारे गए हैं.
श्रद्धांजलि
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने उन पत्रकारों को श्रद्धांजलि अर्पित की है जो रिपोर्टिंग करते हुए मारे गए.
बीबीसी के पत्रकार अब्दुल रोहानी और नासेह दाहिर फ़राह की मौत हाल ही में हुई है
बान की मून ने कहा, "यह स्मारक उन लोगों की याद में खड़ा किया गया है जिन्होने अपनी जान गवाँ दी जिससे हम तक ख़बर पहुंच सके. लेकिन यह उन पत्रकारों के लिए भी है जो इस समय ख़तरों का सामना कर रहे हैं और रिपोर्टें भेजने के लिए अपनी जान को जोख़िम में डाल रहे हैं."
इस स्मारक के अनावरण के अवसर पर बीबीसी के महानिदेशक मार्क टॉमसन ने कहा कि समाचार जुटाने का काम दिन पर दिन ख़तरनाक होता जा रहा है. पिछले दस सालों में औसतन हर सप्ताह दो पत्रकार मारे जाते रहे हैं और 90 प्रतिशत मामलों में किसी पर मुक़दमा नहीं चला है.
अनावरण समारोह में उन पत्रकारों के परिजन भी आए थे जो या तो मारे गए या जिनकी हत्या हुई.
इनमें बीबीसी की प्रोड्यूसर केट पेटन के परिवार वाले थे जो 2005 में सोमालिया में मारी गई थीं और कैमरामैन साइमन कम्बर्स के सगे संबंधी भी जो सउदी अरब में मारे गए थे.
इस अवसर पर बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार जॉन सिम्पसन जो वर्ष 2003 में स्वयं एक अमरीकी मिसाइल हमले में मरते-मरते बचे थे उन्होंने जेम्स फ़ैंटन की एक कविता पढ़कर सुनाई.
पूर्व युद्ध रिपोर्टर और कवि जेम्स फ़ैंटन ने यह कविता विशेष तौर पर बीबीसी के लिए लिखी है.

Monday, June 9, 2008

ये ब्लॉग सिर्फ बेटियों के लिए है

Tuesday, April 01, 2008 05:38 [IST]
नई दिल्ली तकनीकी क्रांति के युग में नेट यूजर्स की संख्या में लगातार वृद्धि होती जा रही है। ब्लॉगिंग कल्चर इन दिनों सर्वाधिक लोकप्रिय है। अब एक ऐसा ब्लॉग आया है जो सिर्फ लड़कियों के लिए ही है। ‘बेटियों का ब्लॉग’ एक ऐसा ही ब्लॉग है, जिसमें माता-पिता अपनी बेटियों के बारे में बातें लिखते हैं।
यह एक सामुदायिक ब्लॉग है। जिसमें एक ही छत के नीचे कई ब्लॉगर माता-पिता इकट्ठा होकर अपनी बेटियों के बारे में बातें लिखते हैं। फिलहाल इस ब्लॉग के ग्यारह सदस्य हैं। इस ब्लॉग को शुरू करने वाले अविनाश दास ने अपने पहले पोस्ट में लिखा, ‘‘ये ब्लॉग बेटियों के लिए है। हम सब, जो सिर्फ बेटियों के बाप होना चाहते थे, ये ब्लॉग उनकी तरफ से बेटियों की शरारतें, बातें साझा करने के लिए है।’’
उन्होंने अपने इस पोस्ट का टाइटल रखा- ‘आइए बेटियों के बारे में बात करें।’ इस ब्लॉग पर लिखने वाले सभी ब्लॉगर अपनी बेटियों के बारे में सामान्य, लेकिन रोचक रिपोर्ट प्रकाशित कर रहे हैं। इसमें शामिल एक ब्लॉगर जितेन्द्र चौधरी का कहना है कि इसमें बेटियों के रोचक क्रियाकलापों को भी शामिल किया जाएगा। वहीं रविश कुमार ने ‘बाबा तुम बांग्ला बोलो तो’ में काफी रोचक अंदाज में बताते हैं कि चार साल की बेटी ‘तिन्नी’ उन्हें किस प्रकार बंगाली भाषा का ज्ञान दे रही हैं।
एक ब्लॉगर पुनीता ने ‘क्या बेटियां पराई होती हंै’ के शीर्षक से अपनी बात कहने की कोशिश की है। शादी के बाद पिता के साथ एक भेंट को उन्होंने काफी अलग अंदाज में बयां किया है।

ओबामा के लकी हनुमान

Monday, June 09, 2008 15:30 [IST]
न्यूयॉर्क. बात है तो अजीब लेकिन सच है! अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए संभावित डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बैरेक ओबामा व्हाइट हाउस की जंग जीतने के लिए हिंदू भगवान हनुमान का आशीर्वाद ले रहे हैं।
डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से उम्मीदवारी हासिल करने के लिए 17 महीने की जद्दोजहद के बाद हिलेरी क्लिंटन को मात देने वाले ओबामा खुशकिस्मती के लिए अपने साथ छोटे से हनुमान को साथ लेकर चलते हैं।
टाइम्स के व्हाइट हाउस फोटो ऑफ द डे में प्रकाशित एक फोटो में पहली बार अश्वेत अमेरिकी प्रत्याशी का हुनमान प्रेम सामने आया है। ओबामा के पास एक ब्रेसलेट है जिसमें इराक में तैनात एक अमेरिकी सैनिक की यादें हैं, एक जुआरी की लकी चिट, एक छोटा सा वानर भगवान और छोटी सी मैडोना व एक बच्चे की आकृति है।
इस ब्रेसलेट में जो छोटे से वानर भगवान की आकृति है, वह बेशक हिंदू भगवान हनुमान की तरह ही है। प्रकाशित फोटो के साथ भी यह बात लिखी गई है लेकिन फोटोग्राफर ने इसकी पहचान का जिक्र नहीं किया है। केन्याई पिता और कैंसासी माता की संतान ओबामा ने अपना शुरुआती जीवन इंडोनेशिया में बिताया था जहां हिंदू धर्म काफी प्रचारित है।
लकी फैक्टर :इस फोटो के कैप्शन में यह भी लिखा गया है कि रिपब्लिक पार्टी के उम्मीदवार जॉन मैक्केन भी भाग्य में विश्वास करते हुए अपने लकी फैक्टर के रूप में अपनी कलाई पर एक रबर बैंड और एक निकेल बांधते हैं। एक स्वेटर और हैंपशायर में एक होटल रूम को भी वे लकी करार देते हैं।
दूसरी तरफ, हिलेरी क्लिंटन अपने लकी फैक्टर के रूप में अवाम द्वारा दिए गए तोहफों को तरजीह देती हैं। उनके प्रवक्ता के मुताबिक उन्हें टैक्सास में एक महिला ने एक लकी सिक्का व एक रूमाल दिया जिसे वे अक्सर अपनी जेब में रखे रहती हैं। इसी तरह ओहियो में एक महिला द्वारा दिए गए ब्रेसलेट को भी वे हमेशा पहने रहती हैं।

Sunday, June 8, 2008

अपहृत बीबीसी संवाददाता की हत्या

अफ़ग़ानिस्तान में बीबीसी के एक युवा संवाददाता की दक्षिणी हेलमंद प्रांत में गोली मारकर हत्या कर दी गई है.
अब्दुल समद रोहानी का शनिवार को अपहरण कर लिया गया था और रविवार को लश्कर गाह नाम के स्थान पर उनकी लाश पाई गई है.
बीबीसी ने रोहानी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा, "रोहानी की हिम्मत और लगन अफ़ग़ानिस्तान में बीबीसी की रिपोर्टिंग का अहम हिस्सा रही है."
रोहानी बीबीसी के काबुल स्थित ब्यूरो ऑफ़िस के लिए काम करते थे और बीबीसी की पश्तो सेवा के हेलमंद संवाददाता थे.
हेलमंद प्रांत में पिछले कुछ समय से तालेबान के छापामार लगातार हमले कर रहे हैं.
बीबीसी की ओर से जारी बयान में कहा गया है, "रोहानी और उनके साथियों की साहसिक रिपोर्टिंग की ही बदौलत बीबीसी अफ़ग़ानिस्तान का सच दुनिया के सामने ला पाती है."
इस बयान में कहा गया है, "उनकी मौत से हमें एक भारी सदमा लगा है और इस दुखद घड़ी में हमारी संवेदना उनके परिवार के साथ है."
इस वर्ष अफ़ग़ानिस्तान में पत्रकारों पर कई हमले हुए हैं, पिछले वर्ष भी अफ़ग़ानिस्तान में पाँच पत्रकार मारे गए थे.
यह सप्ताहांत बीबीसी के लिए ख़ासा बुरा रहा, इससे पहले सोमालिया में किसमायो में पत्रकार नश्ते दहीर की हत्या कर दी गई, दहीर बीबीसी और समाचार एजेंसी एपी के लिए रिपोर्टिंग किया करते थे.

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‘हनुमान’ है इंजीनियरिंग कालेज के अध्यक्ष

06 जून 2008 आईबीएन-7 लखनऊ (उत्तर प्रदेश)। लखनऊ के एक तकनीकि संस्थान में एक मजेदार वाक्या सामने आया है। लखनऊ के ‘सरदार भगत सिंह टेक्नोलॉजी एण्ड मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट’ के चेयरमैन के पद पर बजरंगबली को बिठाया गया है और यह फैसला इसके ट्रस्टियों ने लिया है।दरअसल, ट्रस्टियों के बीच चेयरमैन के पद को लेकर आपस में किसी तरह का समझौता नहीं हो पा रहा था। इसीलिए यहां के ट्रस्टियों ने अपने आराध्य देव हनुमान को ही इस महत्वपूर्ण पद की जिम्मेदारी सौंप दी। अब इस कालेज की पूरी जिम्मेदारी हनुमान जी की देख-रेख में हो रही है।मजे की बात तो यह है कि इस कालेज में चेयरमैन का एक बड़ा कमरा है। कमरे के बाहर हनुमान जी के नाम का बोर्ड लगा हुआ है और चेयरमैन की कुर्सी पर हनुमान जी की प्रतिमा को बिठा दिया गया है। ट्रस्टियों ने चेयरमैन की सहायता के लिए एक वाइस-चेयरमैन (उपाध्यक्ष) भी नियुक्त किया है।उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी है कि वो सुबह कालेज के चेयरमैन हनुमान जी के कमरे में जाकर उनका दर्शन करें और उसके बाद अपने काम की शुरुआत करें। ‘सरदार भगत सिंह टेक्नोलॉजी एण्ड मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट’ के ट्रस्टी पंकज सिंह भदौरिया का कहना है कि, “हनुमान जी में हमारी अटूट श्रद्धा रही है, हम जो भी काम करते हैं उसकी शुरुआत हनुमान जी से ही करते हैं। इसलिए हम लोगों ने हनुमान जी को ही ये जिम्मेदारी सौंप दी।”ट्रस्टियों का यह तर्क भी है कि “हनुमान जी हर तरह का ज्ञान रखते हैं। इसलिए उनके लिए ये जिम्मेदारी तो बहुत ही छोटी है। लंकापति रावण के साथ हुए युद्ध में भगवान राम ने युद्ध के प्रबंधन की पूरी जिम्मेदारी हनुमान जी को ही दी थी। इसलिए हम लोगों ने उन्हें ये जिम्मेदारी सौंपी है।”वहीं, कालेज से जुड़े लोगों का मानना है कि जब से हनुमान जी ने इस कालेज के चेयरमैन पद की जिम्मेदारी संभाली है, कालेज में काफी सुधार देखने को मिल रहा है।

http://www.josh18.com/showvideo.php?id=220531

कम्प्यूटर से चलती पान की दुकान

7 जून 2008इंडो-एशियन न्यूज सर्विस
इंदौर। अभी तक आपने हजारों पान की दुकानें देखी होंगी मगर आज हम एक ऐसी पान की दुकान के बारे में आपको बताने जा रहे है जो औरों से अलग है। इसकी खासियत यह है कि यहां आपको सिर्फ एक बार अपना मीनू बताना पड़ता है क्योंकि यह पान की दुकान अत्याधुनिक है। दोबारा आने पर आपको मीनू नहीं अपना नाम बताना होता है और आपकी पसंद का पान हाजिर हो जाता है।इंदौर के बड़ा गणपति चौराहे पर स्थित ‘अप्सरा पान शॉप’ औरों से अलग है। इस दुकान में अन्य पान की दुकानों की तरह चमक-दमक तो है ही साथ ही ग्राहकों का ब्यौरा दर्ज करने के लिए कम्प्यूटर भी लगा है।यहां जो भी पान के शौकीन आते हैं उन्हें सिर्फ एक बार ही आपना मसाला बताना पड़ता है। दुकान के संचालक राम कृष्ण वर्मा बताते हैं उनके यहां जो ग्राहक आता है उसका मसाला कम्प्यूटर में दर्ज कर दिया जाता है साथ ही उसे एक ‘ग्राहक नम्बर’ भी दिया जाता है।पढ़ें
: ताज को वोट दें और मुफ्त में पान खाएं अगली दफा जब वही ग्राहक पुन: दुकान पर पहुंचता है तो उसे सिर्फ अपना नाम और ‘ग्राहक नम्बर’ बताना होता है और कुछ ही देर में उसकी पसंद का पान हाजिर हो जाता है। इससे राम कृष्ण को तो लाभ हो ही रहा है साथ में ग्राहकों का भी समय बच जाता है।राम कृष्ण बताते कि उनके नियमित ग्राहक अपने घर अथवा दफ्तर से निकलने से पहले ही फोन करके अपना ग्राहक नम्बर बता देते हैं और उन्हें आते ही पान तैयार मिल जाता है। इतना ही नहीं घर और दफ्तर तक उन्होंने पान भेजने की भी व्यवस्था कर रखी है। इसके लिए उनकी दुकान पर 40 कर्मचारियों को रखा गया है।राम कृष्ण की दुकान का पान खाने वाले देश और विदेश में भी है। उन तक भी पान पहुंचाने का इंतजाम उनके पास है। राम कृष्ण के कम्प्यूटर में 4,000 से अधिक ग्राहकों के रिकॉर्ड दर्ज हैं, जिसकी पसंद कम्प्यूटर बता देता है।वे जल्दी ही ऑनलाइन सुविधा शुरू करने वाले हैं।

Saturday, June 7, 2008

जालौरः पंकज मुनि की अनोखी तपस्या

07 जून 2008 आईबीएन-7जालौर(राजस्थान)। तपती दुपहरी और आग के बीच भी इस समय एक साधु परमात्मा का सच जानने के लिए साधना कर रहे हैं। ये साधना जालौर के मालवाड़ गांव में हो रही है। साधना में लीन होनेवाले इस साधु का नाम पंकज मुनि है। पंकज मुनि की ये साधना कुल 41 दिनों तक चलेगी।अपनी इस साधना के बारे में खुद पंकज मुनि बताते हैं कि, “मेरी ये साधना अंधविश्वास से छुटकारा और भगवान की तलाश के लिए है।”पंकज मुनि इस समय खुले आसमान में रेगिस्तान की तपती गर्मी के बीच चारों तरफ जलते हुए उपलों के बीच में बैठकर अपनी साधना में मग्न हैं। इस अग्निसाधक के दर्शन के लिए यहां आस-पास के काफी लोग आने लगे हैं। पंकज मुनि दिन के 11 बजे से शाम 5 बजे तक ये साधना कर हैं। वैसे तो पंकज मुनि की चमड़ी अब झुलसने लगी है, लेकिन उनकी साधना पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा है।उनकी ये साधना को देखकर यहां के लोग अब पंकज मुनि को भगवान शिव का अवतार मानने लगे हैं। उनका आर्शीवाद लेने के लिए हजारों की संख्या में लोग साधना स्थल पर जुटने लगे हैं। साधना स्थल से उठने के बाद रोज शाम पांच बजे पंकज मुनि भक्तों को प्रवचन देते हैं।

Friday, June 6, 2008

उमर अब्दुल्लाह नज़र आएंगे फ़िल्म में

जुलाई में भारत के सिनेमाघरों में एक फ़िल्म दिखाई जाएगी जिसका नाम है - मिशन इस्तांबूल. आप समझ सकते हैं कि इसमें ख़ास क्या बात है, हर महीने बहुत सी फ़िल्में सिनेमाघरों में दिखाई जाती हैं.
ख़ास बात ये है कि इस फ़िल्म में भारत प्रशासित कश्मीर के नेता उमर अब्दुल्लाह भी नज़र आएंगे. उमर अब्दुल्लाह नेशनल कान्फ्रेंस के मौजूदा अध्यक्ष हैं.
वह पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्लाह के बेटे और कश्मीर में एक बड़ा नाम माने जाने वाले शेख़ अब्दुल्लाह के पोते हैं. उमर अब्दुल्लाह केंद्र में मंत्री भी रह चुके हैं.
मिशन कश्मीर की ही तरह मिशन इस्तांबूल भी आतंकवाद के बारे में एक फ़िल्म है. मिशन इस्तांबूल में ख़ुद उमर अब्दुल्लाह एक विशेष भूमिका में नज़र आते हैं.
यह भूमिका कोई अभिनय की तो नहीं है मगर फ़िल्म में अभिनेत्री ने कश्मीर की स्थिति और मीडिया की भूमिका के बारे में उमर अब्दुल्लाह का इंटरव्यू किया है.
उमर अब्दुल्लाह इस इंटरव्यू में कश्मीर की स्थिति के बारे में मीडिया की भूमिका की आलोचना करते नज़र आते हैं, "कश्मीर में अच्छी बातों को मीडिया ख़बरें नहीं बनाता है. जब तक कोई बम धमाका ना हो, कोई मारा ना जाए, तब तक यहाँ कोई ख़बर नहीं बनती है."
उमर अब्दुल्लाह कहते हैं, "कश्मीर में इतनी सारी अच्छी बातें हो रही हैं मसलन, बहुत से सैलानी आ रहे हैं, लेकिन यह सबकुछ मीडिया में उस तरह से जगह नहीं पाता है जैसा कि हिंसक घटनाओं को ख़ूब ज़ोरशोर से रिपोर्ट किया जाता है."
'राजनीति से फ़िल्में'
अलबत्ता उमर अब्दुल्लाह ये डायलॉग स्क्रिप्ट से बोलते हैं लेकिन उनका कहना है कि जो कुछ भी उन्होंने इस फ़िल्म में कहा है वह उनका ख़ुद का अनुभव भी है.
एक ही बात कई बार...
वह जो ख़ुद समझते और सोचते हैं वही बोलते हैं लेकिन फ़िल्म में उन्होंने यह बात स्क्रिप्ट देखकर कही है और वो भी अलग-अलग अंदाज़ से. एक ही बात को कई बार कहना पड़ा.

उमर अब्दुल्लाह
हालाँकि पटकथा को देखकर डॉयलॉग बोलते हुए उन्हें कुछ अटपटा लगा और उनका कहना है, "वह जो ख़ुद समझते और सोचते हैं वही बोलते हैं लेकिन फ़िल्म में उन्होंने यह बात स्क्रिप्ट देखकर कही है और वो भी अलग-अलग अंदाज़ से. एक ही बात को कई बार कहना पड़ा."
उमर अब्दुल्लाह ने बताया कि उन्हें क़रीब एक सप्ताह पहले स्क्रिप्ट दे दी गई थी और उसे ज़ुबानी याद करने के लिए कहा गया था.
उमर अब्दुल्लाह के लिए मीडिया को इंटरव्यू देना एक आम बात है लेकिन फ़िल्म में यह इंटरव्यू देने के लिए उन्हें कुछ रीटेक करने पड़े यानी एक ही दृश्य को कई बार दोहराना पड़ा.
उमर अब्दुल्लाह को उस अभिनेत्री का नाम तो याद नहीं है जिन्होंने फ़िल्म में उनका इंटरव्यू किया है लेकिन फ़िल्म में विवेक ओबेरॉय और ज़ायद ख़ान जैसे अभिनेताओं ने काम किया है.
उमर अब्दुल्लाह का इंटरव्यू इस फ़िल्म में राजस्थान की राजधानी जयपुर के एक बाग में दर्शाया गया है. हालाँकि उमर अब्दुल्लाह ने यह फ़रमाइश रखी थी कि यह इंटरव्यू कश्मीर में उनके घर में होना चाहिए था लेकिन इतनी बड़ी फ़िल्म यूनिट को वहाँ नहीं ले जाया जा सकता था.
उमर कहते हैं कि उन्होंने अपने स्कूल के एक साथी की गुज़ारिश पर इस फ़िल्म में यह इंटरव्यू दिया है, वैसे उनका राजनीति छोड़कर फ़िल्मी दुनिया में जाने का कोई इरादा नहीं है.

Tuesday, June 3, 2008

गंजेपन का इलाज़ हो सकता है आसान

जो लोग गंजेपन से परेशान हैं उनके लिए एक अच्छी ख़बर है. आरंभिक जाँच में यह बात सामने आई है कि प्रयोगशालाओं में विकसित बालों की कोशिकाओँ के ज़रिए गंजेपन का इलाज़ संभव है.
इस तकनीक में आदमी के सिर के बचे बालों की कुछ कोशिकाओं को लेकर उसे प्रयोगशाला में कई गुणा बढ़ाया जाता है और फिर उसे सिर के उन हिस्सों मे प्रतिरोपित किया जाता है जहाँ बाल झड़ चुके होते हैं.
ब्रिटेन के शोधार्थियों का कहना है कि छह महीने के इस इलाज के बाद 19 में से 11 लोगों के सिर में नए बाल उग आए.
हालाँकि ब्रिटेन के एक विशेषज्ञ का कहना है कि इस प्रयोग में अभी और काम बाकी है जिससे नए बाल अच्छे नज़र आएँ.
आदमी में गंजापन अर्थात बालों का झड़ना (एंड्रोजेनेटिक एलोपेसिया) एक आनुवांशिक बीमारी है. पचास वर्ष की आयु के बाद क़रीब चालीस प्रतिशत लोग दुनिया में गंजेपन से पीड़ित हैं.
नई विधि
बालों के प्रतिरोपण की अभी जो विधि अपनाई जाती है उसमें सिर के बचे हुए बालों के बड़े गुच्छों को एनेस्थीज़िया यानी चेतनाशून्य करने वाली दवा की सहायता से मनचाहे हिस्सों में प्रतिरोपित कर दिया जाता है.
मुझे लगता है कि इससे बालों की देख भाल में क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाएगा. जैसे ही लोगों को पता लगेगा कि वे गंजे हो रहे हैं वे इस विधि को अपना सकते हैं

कंपनी के वैज्ञानिक, डॉक्टर पॉल केंप
इस विधि की पूरी सफलता सिर के बचे हुए बालों पर निर्भर करती है. इसमें कोई नए बाल नहीं उगाए जा सकते हैं.
इस नई विधि को तैयार करने वाली ब्रिटेन की कंपनी इंटरसाइटेक्स का कहना है कि इसके सहारे प्रतिरोपण के लिए बालों की असंख्य कोशिकाएँ उपलब्ध कराई जा सकती हैं.
कंपनी का कहना है कि यदि अन्य जाँच भी सफ़ल रहे तो पाँच वर्षों में इस तकनीक को बाज़ार में लाया जा सकता है.
कंपनी के वैज्ञानिक डॉक्टर पॉल केंप ने कहा, "मुझे लगता है कि इससे बालों की देख भाल में क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाएगा. जैसे ही लोगों को पता लगेगा कि वे गंजे हो रहे हैं, वे इस विधि को अपना सकते हैं."