Wednesday, October 31, 2007

सतारूढ़ भाजपा में असंतोष

राजस्थान में सतारूढ़ भाजपा में असंतोष अब सतह पर आ गया है। पार्टी के असंतुष्ट नेता पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा में विपक्ष के नेता जसवंत सिंह के पैतृक गाँव बाढ़मेर ज़िले के जसौल मे इकट्ठा हो रहे हैं।

इसमें भाग लेने के लिए पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेता और मंत्री जसौल पहुँच गए हैं और इसे परिवारिक कार्यक्रम और स्नेहभोज का नाम दिया गया है। ये मतभेद ऐसे समय सामने आए हैं जब भाजपा सत्ता में अपने चार साल पूरे होने पर जश्न मनाने की तैयारी कर रही है।

पार्टी के इन नेताओं ने हाल ही में भाजपा की राज्य कार्यसमिति की चित्तौड़गढ़ में हुई बैठक का बहिष्कार किया था। बुधवार को जसौल मे नेताओं के जमावड़े को इसी से जोड़कर देखा जा रहा है।

इस कार्यक्रम मे भाग लेने के लिए भाजपा सांसद ललित चतुर्वेदी, सांसद और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कैलाश मेघवाल, शिक्षामंत्री घनश्याम तिवारी, उद्योग मंत्री नरपतसिंह, सामजिक न्यायमंत्री मदन दिलावर, संसदीय सचिव महावीर प्रसाद जैन सहित अनके नेता जसौल पहुँच रहे हैं। जसवंतसिंह पहले ही वहाँ पहुँच चुके हैं।

निशाने पर वसुंधरा : इससे पहले भाजपा ने पिछले हफ्ते राज्य कार्यसमिति की बैठक की थी। इसमें आठ मंत्रियों, 19 सांसदों और 41 विधायकों ने भाग नहीं लिया।



BBC BBC

पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी इस बैठक में आए, लेकिन इन नेताओं ने बैठक के बहिष्कार का फैसला वापस लेने से इनकार कर दिया। इन नाराज नेताओं ने कुछ मंत्रियों को निशाना बनाकर सीधे मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को घेरने का प्रयास किया। वे पार्टी अध्यक्ष महेश शर्मा को हटाने की माँग कर रहे हैं।

नरपतसिंह पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोसिंह के दामाद हैं और वे चित्तौड़गढ़ से विधायक भी हैं, जहाँ भाजपा ने अपनी कार्यसमिति की बैठक की थी। इसके बावजूद नरपतसिंह ने इसमें भाग नहीं लिया था।

चेतावनी की अनदेखी : हालाँकि पार्टी संगठन ने किसी भी बगावत और असंतोष से इंकार किया है। इन नाराज नेताओं को मुख्यमंत्री की कार्यशैली पर एतराज है।

लोकसभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने असंतुष्टों को चेतावनी भी दी की अनुशासन किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, पर मतभेद इतने गहरे हैं कि चेतावनी का कोई खास असर नहीं हुआ।

जसवंतसिंह और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बीच मतभेद उस समय सामने आए जब उनकी पत्नी शीतल कँवर ने जोधपुर मे वसुंधरा राजे को एक पोस्टर में देवी अन्नपूर्ण बताने पर आपति की और पुलिस को शिकायत की, लेकिन पुलिस ने मामला दर्ज करने से इनकार कर दिया।

इस पर शीतल कँवर ने अदालत की शरण ली और अदालत के आदेश पर पुलिस ने मामला दर्ज किया, लेकिन पुलिस को इस पूरी करवाई में कई महीने लगे।

पिछले हफ्ते ही जसवंतसिंह ने कहा कि एक एफआईआर दर्ज कराने में मेरी पत्नी को ही इतना समय लगा तो एक आम आदमी के साथ पुलिस क्या न्याय करेगी?

जसौल सीमावर्ती बाड़मेर जिले में आता है, जहाँ से जसवंतसिंह के पुत्र मानवेन्द्रसिंह भाजपा के सांसद हैं। वे भी अपने इलाके में बाढ़ के बाद राहत की कथित धीमी रफ्तार के चलते सरकार से नाराज हैं।

Tuesday, October 30, 2007

तहलका रिपोर्ट: मोदी सरकार घेरे में

गुजरात दंगों पर तहलका की ताज़ा रिपोर्ट के बाद एक बार फिर राजनीति गरमा गई है. कांग्रेस सहित कई पार्टियों ने तहलका टेप में दिखाए गए लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग की है.
लेकिन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने गुजरात सरकार पर लगाए गए आरोपों को ख़ारिज करते हुए इसे कांग्रेस की साज़िश बताया है.

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर गुजरात दंगों की सीबीआई जाँच का अनुरोध किया है.

भाजपा ने उन दावों को ख़ारिज कर दिया है कि गुजरात सरकार ने वर्ष 2002 में दंगों के दौरान मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा का समर्थन किया.

तहलका पत्रिका ने ख़ुफ़िया तरीक़े से फ़िल्माए गए वीडियो के आधार पर ये आरोप लगाए हैं. उस समय भी गुजरात में भाजपा की सरकार थी और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ही थे.

तहलका के आरोपों वाले वीडियो को टेलीविज़न चैनल पर भी दिखाया गया. भाजपा ने इन आरोपों को सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की साज़िश बताया है. गुजरात में दिसंबर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं.

भाजपा के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने तहलका की रिपोर्ट को ऐसा चुनावी स्टंट कहा है जिसे कांग्रेस ने तैयार कराया.

उन्होंने कहा कि यह अफ़वाहों और सुनी-सुनाई बातों पर आधारित एक स्टिंग ऑपरेशन था. तहलका की रिपोर्ट में कई ख़ुफ़िया वीडियो दिखाए गए हैं.

दावा

तहलका का दावा है कि पिछले छह महीने के दौरान फ़िल्माए गए इन वीडियो में कई कट्टरपंथी हिंदू नेताओं ने बताया है कि कैसे उन्होंने मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा की. इन हिंदू नेताओं में कई भाजपा के भी नेता थे.


गुजरात दंगों पर कई मामले अभी भी सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है. तहलका टेपों को इस मामले में सबूत के तौर पर पेश किया जाना चाहिए. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार मानवाधिकार के उल्लंघन की दोषी है


सीपीएम का बयान

तहलका साप्ताहिक के संपादक संकर्षण ठाकुर कहते हैं, "गोधरा के बारे में कई लोग कहते आ रहे हैं कि साबरमती एक्सप्रेस में लगी आग एक सुनियोजित साज़िश का परिणाम थी और उसके बाद भड़की सांप्रदायिक हिंसा एक प्रतिक्रिया. पर हमारी तफ़्तीश यह कहती है कि दरअसल साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे में लगी आग एक सोची समझी साज़िश नही थी और उसके बाद के दंगे एक सुनियोजित साज़िश का परिणाम थे."

भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद इस रिपोर्ट के इस समय आने पर संदेह ज़ाहिर किया क्योंकि गुजरात में विधानसभा चुनाव केवल डेढ़ महीने दूर हैं.

उन्होंने कहा, "आज ऐसे समय पर जब गुजरात में चुनाव विकास के मुद्दे पर केंद्रित हों तो सांप्रदायिक तनाव फैलाने की इस कोशिश की हम भर्त्सना करते हैं.

दूसरी ओर कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की है वो दंगो से जुड़े मामलों को जल्द से जल्द निपटाए. पार्टी प्रवक्ता जयंती नटराजन ने एक बार फिर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का इस्तीफ़ा मांगा है.

उन्होंने कहा, "हम फिर यह कहते हैं की नरेंद्र मोदी गुजरात मे मुख्यमंत्री रहने का नैतिक अधिकार खो चुके हैं. अगर भारत में संविधान का कोई अर्थ है और मानव जीवन का कोई मूल्य है तो नरेंद्र मोदी को कुर्सी छोड़ देनी चाहिए."


गोधरा के बारे में कई लोग कहते आ रहे हैं कि साबरमती एक्सप्रेस में लगी आग एक सुनियोजित साज़िश का परिणाम थी और उसके बाद भड़की सांप्रदायिक हिंसा एक प्रतिक्रिया. पर हमारी तफ़्तीश यह कहती है कि दरअसल साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे में लगी आग एक सोची समझी साज़िश नही थी और उसके बाद के दंगे एक सुनियोजित साज़िश का परिणाम थे


संकर्षण ठाकुर, संपादक, तहलका

टाइम्स ऑफ़ इंडिया में अहमदाबाद के स्थानीय संपादक भरत देसाई कहते हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जान-बूझ कर चुप हैं और उनकी पार्टी विरोधियो पर तीखे प्रहार कर रही है.

देसाई का मानना है कि गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी ने भारी सफलता हासिल की थी और इस ताज़ा रिपोर्ट के कारण एक बार फिर उन्हें फ़ायदा हो सकता है.

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ वर्ष 2002 में गुजरात में हुए दंगों के दौरान एक हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए थे जिनमें अधिकतर मुसलमान थे. हालाँकि कई स्वतंत्र एजेंसियाँ मरने वालों की संख्या दो हज़ार तक बताती हैं.

गुजरात के गोधरा में एक ट्रेन में लगी आग में 59 हिंदुओं के मारे जाने के बाद दंगे भड़क उठे थे. आरोप है कि मुसलमानों की उग्र भीड़ ने इस ट्रेन में आग लगाई थी.

सुप्रीम कोर्ट और कई मानवाधिकार संगठनों ने गुजरात सरकार पर आरोप लगाया कि वह दंगों को रोकने में नाकाम रही. इस दंगों के लिए कई लोगों को दोषी ठहराया गया लेकिन अभी भी कई लोगों की भूमिका कठघरे में हैं.

आलोचना

वर्ष 2002 के दंगों के लिए गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार को ज़िम्मेदार ठहराते हुए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) ने कहा है कि तहलका के टेपों को सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया जाना चाहिए.


गुजरात दंगों के दौरान बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे

पार्टी की पोलित ब्यूरो की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है, "गुजरात दंगों पर कई मामले अभी भी सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है. तहलका टेपों को इस मामले में सबूत के तौर पर पेश किया जाना चाहिए. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार मानवाधिकार के उल्लंघन की दोषी है."

दूसरी ओर केंद्रीय रेल मंत्री और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने तहलका टेपों के मद्देनज़र गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी की मांग की है.

उन्होंने कहा, "तहलका टेपों ने गुजरात दंगों में मोदी सरकार की भूमिका को उजागर किया है. नरेंद्र मोदी को लोकसभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी का वरदहस्त मिला हुआ है. इसलिए आडवाणी भी इससे बच नहीं सकते."

लालू प्रसाद यादव ने इन दोनों नेताओं के ख़िलाफ़ आपराधिक मामला दर्ज करने और उन्हें गिरफ़्तार करने की मांग की. उन्होंने कहा कि गुजरात दंगे भारतीय लोकतंत्र और मानवता पर एक 'कलंक' हैं.

संगीत-प्रेमियों का एक और 'खिलौना'

संगीत प्रेमी अब वॉकमैन और एमपी3 की दुनिया से निकल कर आइपॉड की दुनिया में क़दम रख रहे हैं.

ऐप्पल का यह छोटा सा उपकरण दुकानों में हाथोंहाथ बिक रहा है और क्रिसमस के बाद की सेल का तो यह एक अहम हिस्सा बन गया है.

लंदन के स्टोर जॉन लुइस के माइक ख़ाल्फ़ी का कहना है, इसकी मांग आपूर्ति से कहीं बढ़ कर है.



इसकी मांग आपूर्ति से कहीं बढ़ कर है.


स्टोर के प्रभारी


ऐप्पल का कहना है कि वह ज़्यादा से ज़्यादा उपकरण मुहैया कराने का प्रयास कर रहा है लेकिन कई दुकानों को ग्राहकों से बाद के लिए ऑर्डर लेने पर मजबूर होना पड़ रहा है.

कंपनी के मुताबिक उसने इस वर्ष अक्तूबर तक दुनिया भर की दुकानों में तेरह लाख आइपॉड भेज दिए थे.

ख़ाल्फ़ी का कहना है, हमें हफ़्ते में एक या दो बार माल मिल रहा है लेकिन वह उतनी ही तेज़ी से बिक जाता है.


संगीत के दीवाने आइपॉड के दीवाने हैं

ऐप्पल के एक प्रवक्ता ने कहा कि उत्पादन बढ़ाने के हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन मांग इतनी है कि कुछ ग्राहकों को निराश होना ही पड़ रहा है.

अमरीका के एक अख़बार ने ऐप्पल के सीनियर वाइस प्रेज़ीडेंट को यह कहते बताया कि दुनिया भर के स्टोरों में प्रति दस मिनट में एक आइपॉड बेचा जा रहा है.

इसकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तकनालाजी की दो प्रमुख पत्रिकाओं ने इसे वर्ष 2003 में उपभोक्ता तकनालाजी के बेहतरीन नमूने के तौर पर चुना.

आइपॉड में दस हज़ार तक धुनें स्टोर की जा सकती हैं जो उपभोक्ता संगीत की वेबसाइटों या सीडी से डाउनलोड कर सकते हैं.

इसमें चित्र और अन्य फ़ाइलें भी स्टोर की जा सकती हैं.

'एमपी3 प्लेयर से बहरेपन का ख़तरा'

आइपॉड और अन्य पोर्टेबल म्यूज़िक प्लेयर की दिन-प्रतिदिन बढ़ती लोकप्रियता के मद्देनज़र विशेषज्ञों ने बहरेपन से प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ने की आशंका व्यक्त की है.
विशेषज्ञों का कहना है कि हेडफ़ोन में तेज़ आवाज़ के साथ संगीत सुनना स्थायी बहरेपन का कारण बन सकता है.

ऑस्ट्रेलिया में सिडनी स्थित नेशनल एकॉस्टिक लैब के एक अध्ययन में पाया गया कि पर्सनल म्यूज़िक सिस्टम का उपयोग करने वाले एक चौथाई लोग ख़तरनाक स्तर पर ऊँची आवाज़ में संगीत सुनते हैं.

इधर ब्रिटेन में बहरेपन से प्रभावित लोगों के लिए राष्ट्रीय संस्थान आरएनआईडी ने लोगों को एमपी3 प्लेयर के इस ख़तरे से आगाह किया है.

हाल के वर्षों में पोर्टेबल म्यूज़िक प्लेयर की लोकप्रियता काफ़ी बढ़ गई है. इस उत्पाद के बाज़ार की अग्रणी कंपनी एप्पल अपने पोर्टेबल म्यूज़िक प्लेयर आइपॉड की दो करोड़ इकाई बेच चुकी है.

विशेषज्ञों की चेतावनी पर एप्पल कंपनी ने अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है.

लगातार सुनना ज़्यादा ख़तरनाक

आरएनआईडी ने एक अध्ययन में पाया है कि 18 से 24 वर्ष के 39 फ़ीसदी युवा रोज़ाना एक घंटे से ज़्यादा समय तक पोर्टेबल म्यूज़िक प्लेयर सुनते हैं.


एमपी3 प्लेयर आज के युवाओं के फ़ैशन में हैं

ऐसे युवाओं में से 42 फ़ीसदी ने तो स्वीकार भी किया कि वो ऊँची आवाज़ में संगीत सुना करते हैं.

आरएनआईडी के अनुसार 80 डेसीबल से ऊँची आवाज़ बहरेपन का कारण बन सकती है. जबकि कुछ एमपी3 प्लेयर 105 डेसीबल तक ऊँची आवाज़ में संगीत बजा सकते हैं.

यूरोपीय बाज़ारों में उपलब्ध आइपॉड में यों तो सुरक्षित स्तर तक आवाज़ को सीमित करने की व्यवस्था होती है लेकिन कई बार लोग आवाज़ को और तेज़ करने के लिए इस प्रणाली में छेड़छाड़ करते हैं.

ब्रिटिश सोसायटी ऑफ़ ऑडियोलॉजी के प्रमुख ग्राहम फ़्रॉस्ट के अनुसार बहरेपन का ख़तरा इस बात पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति कितनी ऊँची आवाज़ में और कितने समय तक पोर्टेबल म्यूज़िक प्लेयर का उपयोग करता है.

उन्होंने कहा, "यदि आप इन्हें कम समय तक सुनें और बीच-बीच में सुनना बंद किया करें तो यह लगातार संगीत सुनने के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा सुरक्षित आदत होगी."

आई पॉड अब छूने भर से चलेगा

कंप्यूटर और आईपॉड की निर्माता कंपनी एप्पल ने अब संगीत सुनाने वाले उपकरणों की क़तार में अब एक ऐसा भी आईपॉड शामिल किया है जिसमें टच स्क्रीन होगी यानी उसके बटन दबाने के बजाय वह छूने भर से इशारा समझ लेगा.
इतना ही नहीं इस आईपॉड में बेतार इंटरनेट सुविधा भी होगी जिसे वाई फाई कहा जाता है और वेब ब्राऊज़र भी होगा यानी अगर संगीत प्रेमियों को घर से बाहर ही कोई नया गाना या एलबम डाउनलोड करने की ज़रूरत महसूस हो तो वह आसानी से कर सकते हैं.

टच स्क्रीन वाले इस आईपॉड को एप्पल के बॉस स्टीव जॉब्स ने एक संवाददाता सम्मेलन में जारी किया. स्टीव ने कंपनी के कुछ और म्यूज़िक प्लेयरों के संस्करण भी दिखाए.

स्टीप जॉब्स इस नए आईपॉड संस्करम को दिखाते हुए फूले नहीं समा रहे थे, "यह दुनिया के सात अजूबों में से एक है. यह एकदम ज़बरदस्त आईटम है."

एप्पल ने यह नया उपकरण ऐसे समय में जारी किया है जब अमरीका में छुट्टियों का मौसम आ रहा है और ऐसे मौक़ों पर अपने उपकरणों की बिक्री में ख़ासी तेज़ी देखता है, इस बार भी उसे यही उम्मीद है.

टच स्क्रीन वाले आईपॉड के इस्तेमाल करने वालों को उसमें बने हुए सफ़ारी ब्राउज़र के ज़रिए इंटरनेट का इस्तेमाल करने की सुविधा हासिल होगी. वे इसके ज़रिए आई ट्यून्स स्टोर में उपलब्ध गानों या एलबमों को भी डाउनलोड कर सकेंगे.

कॉफ़ी की दुकानों की चेन स्टारबक्स के साथ एप्पल का समझौता हुआ है कि स्टारबक्स के कैफ़े में बैठकर आईपॉड इस्तेमाल करने वाले संगीत प्रेमी वाई फाई आई ट्यून्स को मुफ़्त में इस्तेमाल करने की सुविधा देगा.

टच स्क्रीन वाले इस आईपॉड में संगीत प्रेमी स्थाई रूप से मौजूद चिन्हों के ज़रिये याहू, यू ट्यूब या गूगल सर्च इंजनों की सुविधा भी उठा सकते हैं.

टच स्क्रीन वाला आईपॉड दो संस्करणों में उपलब्ध होगा जिनमें से एक की मेमोरी 8 जीबी और दूसरे की 16 जीबी होगी. अमरीका में 8 जीबी वाले आईपॉड की क़ीमत 299 डॉलर होगी जबकि ब्रिटेन में यह 199 पाउंड होगी. 16 जीबी मेमोरी वाले संस्करण की क़ीमत 399 डॉलर और ब्रिटेन में इसकी क़ीमत 269 पाउंड होगी.

लेकिन बीबीसी संवाददाता का कहना है कि यूरोप में एप्पल के उपकरणों की क़ीमत आमतौर पर कुछ ज़्यादा ही होती है.

टच स्क्रीन वाले आईपॉड के ये संस्करण सितंबर 2007 के अंत तक बाज़ार में आने की संभावना है. साथ है एप्पल कंपनी यह भी घोषणा की है कि बड़े आकार वाला आई पॉड अब सिर्फ़ 80 जीबी और 160 जीबी संस्करणों में ही उपलब्ध होगा.

आई पॉड का संगीत क्रांति में हाथ!

मयूर विहार दिल्ली से दिगंबर झा ने पूछा है कि आई पॉड क्या होता है और इसका आविष्कार कहाँ हुआ था.
आई पॉड एक छोटा सा उपकरण है जिसमें संगीत संग्रह किया जा सकता है और उसे सुना जा सकता है. यह एम पी-3 और एईसी कम्प्रेशन ऐल्गोरिद्म पर आधारित तकनीक है. पहले लोग वॉकमैन जैसे ध्वनि उपकरण लेकर चला करते थे लेकिन उनमें संगीत सुनने के लिए कैसेट भी रखने पड़ते थे और बाद में कैसेट का स्थान सीडी ने लिया. एमपी-3 प्लेयर की की विशेषता यह है कि सारा संगीत डिजिटल तकनीक के सहारे इसमें भरा जा सकता है. आई पॉड भी एमपी-3 तकनीक का ही इस्तेमाल करता है. इसका विकास अक्तूबर 2001 में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाने वाली कंपनी ऐप्पल ने शुरू किया था. अब यह तकनोलॉजी काफ़ी आगे बढ़ चुकी है. अब इसमें वीडियो भी संग्रह करके देखे जा सकते हैं. अब एप्पल का ही आई फ़ोन बी आया है जिसमें मोबाइल फ़ोन और आई पॉड दोनों होते हैं इसके अलावा बहुत से मोबाइल फ़ोन चल पड़े हैं जिनमें संगीत सुनने और वीडियो बनाने की सुविधा होती है.

मलंगवा नेपाल से राजीव रंजन पूछते हैं कि महाभारत में जिस हस्तिनापुर का ज़िक्र आता है वह कहाँ है.

हस्तिनापुर उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा नगर है जो मेरठ से 37 किलोमीटर और दिल्ली से 120 किलोमीटर दूर है. महाभारत काल में यह कौरवों की राजधानी हुआ करती थी. तब हस्तिनापुर गंगा के किनारे बसा था लेकिन कालांतरर में गंगा ने अपनी राह बदल ली. हस्तिनापुर में जैन मंदिर हैं, प्राचीन शिवलिंग हैं और एक घना जंगल है जिसे राष्ट्रीय उद्यान कहा जाता है. यहाँ तरह-तरह के जीव जंतु रहते हैं और सर्दी के मौसम में दूर अफ़ग़ानिस्तान, तुर्केमेनिस्तान, चीन और साइबेरिया से बहुत तरह के पक्षी यहाँ चले आते हैं.

क्रिकेट में फ़्री हिट का क्या मतलब होता है. यह सवाल किया है मिरदौल, अररिया बिहार से धीरेंद्र मंडल ने.

फ़्री हिट एक दिवसीय क्रिकेट में शुरू हुई थी और विशेष रूप से जब से 20-20 क्रिकेट शुरु हुई है. फ़्री हिट का मतलब यह है कि अगर किसी गेंदबाज़ ने नो बॉल कर दिया है तो अगली गेंद जो गेंदबाज़ फेंकेगा वह फ़्री हिट होगी. यानी उस गेंद पर बल्लेबाज़ किसी भी तरीक़े से बल्ला मारे वह न तो बोल्ड हो सकता है न कैच हो सकता है. बस एक तरीक़े से आउट हो सकता है और वो है या तो वह रन आउट हो जाए या स्टम्पिंग से आउट हो जाए.

कन्हरिया बाज़ार, पूर्णियां बिहार से दिलीप कुमार सेंचुरी और बिमला रानी सेंचुरी पूछते हैं कि फ्रांस का राष्ट्रीय दिवस कब मनाया जाता है.

फ्रांस का राष्ट्रीय दिवस 14 जुलाई को मनाया जाता है. इसे बैस्टील डे के नाम से जाना जाता है. इसी दिन 1789 में पेरिस की जनता ने बैस्टील जेल पर धावा बोला था. बैस्टील जेल राजशाही सत्ता का प्रतीक था. राजा जिसे चाहते जब तक चाहते इस जेल में क़ैद कर देते. राजपरिवार और राज दरबार बेहद पैसा ख़र्च करते थे, राज कोष ख़ाली हो चुका था, ख़राब मौसम से फ़सल नष्ट हो गई थी, आम लोगों को अपनी आय का 75 प्रतिशत टैक्स देना पड़ता था. ऊपर से दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में लड़ी जा रही लड़ाइयों के लिए पैसे की ज़रूरत थी लेकिन जब राजा लुई सोलहवें ने टैक्स बढ़ाने के लिए संसद बुलाई तो कई सदस्य तैयार नहीं हुए. उन्होंने अपनी अलग ऐसेम्बली बना ली और आम लोगों को अधिक अधिकार दिलाने की क़सम खाई. बस आम जनता उनके साथ हो ली और उन्होंने बैस्टील जेल पर हल्ला बोल दिया. फ़्रांस की क्रांति की शुरुआत यहीं से हुई.

अंतरिक्ष में जाने वाला प्रथम व्यक्ति कौन था. ढ़रहा, समस्तीपुर बिहार से राजेश कुमार सुमन.

सोवियत संघ के अंतरिक्ष यात्री यूरी गगारिन पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अंतरिक्ष यात्रा की. 12 अप्रैल 1961 को उन्होंने वॉस्तॉक-1 अंतरिक्ष यान में बायकानूर अड्डे से उड़ान भरी और एक घंटे 48 मिनट बाद पृथ्वी का एक चक्कर लगाकर कज़ाख़स्तान में उतर गए.

अंतरिक्ष में यात्रा करने वाली पहली महिला कौन थी. ग्राम नौतनवा, दक्षिण टोला पश्चिमी चम्पारण बिहार से हंसराज कुमार.

अंतरिक्ष में यात्रा करने वाली पहली महिला थीं सोवियत संघ की वेलेंटीना व्लादीमीरोवना तेरेश्कोवा. इन्होंने वॉस्तॉक-6 मिशन पर 16 जून 1963 को उड़ान भरी और 71 घंटे में 48 बार पृथ्वी का चक्कर लगाकर कज़ाख़स्तान में उतरीं.

सार्क देशों की संख्या कितनी है. पूर्णियां बिहार से दिलीप कुमार और बिमला रानी.

साउथ एशियन ऐसोसिएशन फ़ॉर रीजनल कोऑपरेशन को संक्षेप में सार्क कहते हैं. यह दक्षिण एशियाई देशों के क्षेत्रीय सहयोग का एक संगठन है. इसकी स्थापना आठ दिसंहर 1985 को भारत, पाकिस्तान, बांगलादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका ने की थी. सन् 2005 में ढाका में हुए सम्मेलन में अफ़ग़ानिस्तान को भी सदस्य के रुप में स्वीकार कर लिया गया और अप्रैल 2007 को दिल्ली में हुए चौदहवें सम्मेलन में अफ़ग़ानिस्तान ने हिस्सा लिया. यह संगठन इन देशों को मैत्री, विश्वास और आपसी समझ के लिए मिलकर काम करने और आर्थिक और सामाजिक विकास की प्रक्रिया को तेज़ करने का एक मंच प्रदान करता है.

Wednesday, October 24, 2007

ब्लॉग बना चिट्ठा, जम गई चिट्ठाकारिता

इंटरनेट पर इन दिनों ब्लॉगिंग की खूब चर्चा है, हालाँकि इसकी शुरुआत तकरीबन दस साल पहले अँग्रेजी में हुई थी मगर अब हिंदी लिखने-पढ़ने वालों में भी यह विधा लोकप्रिय हो चली है.
ब्लॉग यानी इंटरनेट पर डायरीनुमा व्यक्तिगत वेबसाइटें, जिसके लिए हिंदी में 'चिट्ठा' नाम प्रचलित और स्थापित हो चुका है.

महज साढ़े चार साल पहले हिंदी ब्लॉग लेखन की शुरुआत हुई थी और आज हिंदी चिट्ठों की तादाद हज़ार से ऊपर है.

मगर इस विधा को हिंदी में अपनाना कोई आसान काम नहीं था. शुरुआती दौर को तकनीकी गुरू और चिट्ठाकार रवि रतलामी कुछ यों याद करते है, "उन दिनों दो सवाल खूब पूछे जाते थे. पहला तो ये कि कंप्यूटर पर हिंदी नहीं दिखती, क्या करें? और दूसरा ये कि हिंदी दिखती तो है मगर हिंदी में लिखें कैसे?"

ये सवाल हालाँकि लोग अब भी पूछते हैं लेकिन भोमियो और गूगल इंडिक ट्रांसलिटरेशन टूल जैसी सुविधाओं के आ जाने से देवनागरी लिखना पहले के मुक़ाबले बहुत आसान हो गया है.

इंटरनेट पर हिंदी और ब्लॉगिंग से जुड़ी ऐसी तमाम परेशानियों को दूर करने के उद्देश्य से तकनीक के जानकार चिट्ठाकार अपने चिट्ठों पर समय-समय पर लिखते रहे हैं जिन्हें खूब पढ़ा जाता है.

हिंदी के ज़्यादातर चिट्ठे 'ब्लॉगर डॉटकॉम' या 'वर्डप्रेस डॉटकॉम' पर उपलब्ध मुफ़्त ब्लॉगिंग टूल के माध्यम से चल रहे हैं.

विविधता

बात इन चिट्ठों पर प्रकाशित सामग्री की जाए तो इसकी विविधता का दायरा हल्के-फुल्के हास्य-व्यंग्य या फिर गंभीर साहित्यिक लेखन तक ही सीमित नहीं है. इन चिट्ठों की माध्यम से कोई अपने सामाजिक आंदोलनों को गति दे रहा है तो कोई धर्म और आस्था की बातें कर रहा है.


'मोहल्ला' पर बीसियों लोग मिलकर लिखते हैं

किसी के चिट्ठे पर भारतीय रसोई की खुशबू है तो कोई बाज़ार की झलक दिखाने में लगा है. कोई अपना तकनीकी ज्ञान लोगों से साझा कर रहा है तो कोई अपने लेखन से मन की परतें खोलने में लगा है. सिनेमा, खेल, समाज, राजनीति जैसे हर विषय पर लोग खुलकर लिखते हैं और बहस भी छिड़ती है.

ब्लॉगिंग विधा ने राजस्थान में बाड़मेर पुलिस को इतना प्रभावित किया कि विभाग ने अपना एक आधिकारिक चिट्ठा ही बना लिया. इस चिट्ठे पर विभाग अपने दैनिक कार्यकलापों का ब्यौरा प्रकाशित करता है.

यदि आप चिट्ठाकारी की विविधता की सही तस्वीर देखना चाहते हैं तो आपको ब्लॉग एग्रीगेटरों पर जाना होगा.

ब्लॉग एग्रीगेटर यानी ऐसी वेबसाइट जहां सक्रिय चिट्ठों की सूची होती है. हिंदी चिट्ठाकारी को बढ़ावा देने में ब्लॉग एग्रीगेटरों की न सिर्फ भूमिका बड़ी है, बल्कि इनकी विकास यात्रा भी बड़ी रोचक रही है.

शुरुआत

चिट्ठाविश्व नाम से पहला हिंदी ब्लॉग एग्रीगेटर बनाने वाले पुणे के सॉफ्टवेयर इंजीनियर देबाशीष चक्रवर्ती बताते हैं कि शुरुआत में जब महज पाँच-दस चिट्ठे हुआ करते थे तब चिट्ठाकार एक-दूसरे के चिट्ठों पर जाकर ताज़ा सामग्री पढ़ लिया करते थे. संख्या बढ़ने पर इस कल्पना ने जन्म लिया कि अलग-अलग चिट्ठों पर होने वाले अपडेट की सूचना एक ही जगह मिला करे.


ज़िंदगी भर बहुत कमाया है, ब्लॉगवाणी तो अब बुढ़ापे में खुद को व्यस्त रखने का एक साधन भर है. पर भविष्य में एग्रीगेटरों के व्यावसायिक महत्व से इनकार भी नहीं किया जा सकता


मैथिली गुप्ता, ब्लॉगवाणी के संचालक

तेजी से बढ़ते चिट्ठों की वजह से चिट्ठाविश्व की सेवा नाकाफी साबित होने लगी क्योंकि वह तकनीकी तौर पर इतने सारे चिट्ठों के लिए तैयार नहीं था. ऐसे में चिट्ठोंकारों ने आपसी सहयोग का अनूठा उदाहरण पेश किया.

देश-विदेश में बसे कई चिट्ठाकारों ने हिंदी के नाम पर आपस में चंदा करके एक हज़ार डॉलर से भी ज्यादा की रकम जुटाई. इस रकम का इस्तेमाल करके जो एग्रीगेटर बना वो 'नारद' के नाम से बेहद लोकप्रिय साबित हुआ.

अब तो चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी नाम के एग्रीगेटर भी सक्रिय है.

चिट्ठों की तेजी से बढ़ती संख्या की वजह से एग्रीगेटरों के संचालन का खर्च भी बढ़ता जा रहा है. ब्लॉगवाणी के संचालक मैथिली गुप्त ने तो अपने एग्रीगेटर के लिए एक अलग सर्वर ही ले रखा है जिसका किराया 200 डॉलर मासिक के आसपास बैठता है.

इतने खर्चे के पीछे कोई व्यवसायिक उद्देश्य? यह पूछे जाने पर सरकारी नौकरी में भाषायी सॉफ्टवेयर निर्माण के काम से रिटायर मैथिली गुप्त कहते हैं, "ज़िंदगी भर बहुत कमाया है, ब्लॉगवाणी तो अब बुढ़ापे में खुद को व्यस्त रखने का एक साधन भर है. पर भविष्य में एग्रीगेटरों के व्यावसायिक महत्व से इनकार भी नहीं किया जा सकता."

जमती जड़ें

किसी ब्लॉगर की लोकप्रिय पोस्ट आम तौर पर 200 से 300 बार पढ़ी जाती है वहीं ब्लॉग एग्रीगेटरों के पन्ने रोज़ाना तकरीबन पाँच से दस हज़ार बार देखे जाते हैं.

ब्लॉगर भी अपने चिट्ठों को लोकप्रिय बनाने की तिकड़म में लगे रहते हैं. इसके लिए वे परंपरागत लेखन के अलावा इंक ब्लॉगिंग, पॉडकास्टिंग यानी ऑडियो ब्लॉगिंग और वीडियो ब्लॉगिंग करते देखे जा सकते हैं. ये बात और है कि इन प्रयोगधर्मी ब्लॉगरों की तकनीकी समझ आम ब्लॉगरों की तुलना में थोड़ी अधिक होती है.


ब्लॉगवाणी कुछ ही समय पहले शुरु हुआ है

इस चलन को गीत-संगीत पर आधारित चिट्ठा चलाने वाले वाले यूनुस खान चिट्ठाकारी का स्वाभाविक विस्तार मानते हैं. बतौर रेडियो प्रेजेंटर विविध भारती में कार्यरत यूनुस अपने चिट्ठे पर ऐसे गीत-संगीत को जगह देते हैं जिसे रेडियो पर पेश कर पाना मुमकिन नहीं.

व्यवसायिकता की दृष्टि से देखें तो अंग्रेजी के ब्लॉगर अपने लेखन से डॉलर और पाउंड में खासी कमाई कर रहे हैं, मगर हिंदी में चिट्ठा लेखन फिलहाल शौक़िया ही है.

यहाँ यह बता देना जरूरी है कि ब्लॉगरों की कमाई मुख्य रूप से विज्ञापन और प्रयोजित लेखन के ज़रिए होती है. हालांकि कुछ हिंदी चिट्ठाकार भी इस रास्ते पर हैं मगर कमाई अभी ना के बराबर ही है.

जानकार मानते हैं कि इंटरनेट के तेज़ी से हो रहे विस्तार में हिंदी चिट्ठाकारों का उज्ज्वल भविष्य छिपा है क्योंकि अब नेट पर अंगरेज़ी का एकछत्र राज नहीं रह गया है.

पाकिस्तान में मुहाजिरों का दर्द

विभाजन को साठ साल हो गए हैं लेकिन बँटवारे का दर्द किसी न किसी रूप में यहाँ आज भी महसूस किया जा सकता है.
बँटवारे के बाद अपने लिए एक अलग देश का सपना आँखों में लिए मुसलमानों का पाकिस्तान पलायन हुआ.

ये लोग भारत में अपना सार घर-बार छोड़कर पाकिस्तान आए थे लेकिन पाकिस्तान में इन उर्दूभाषी लोगों को मुहाजिर कहा गया और इनमें से बहुत सारे लोग जिस हालत में आए थे आज भी उसी हालत में कराची की मैली-कुचैली गलियों में जीवन बिता रहे हैं.

लगभग 50 फ़ीसदी मुहाजिर मुफ़लिसी की हालात में कराची तथा सिंध में रहते हैं. साठ साल बीत जाने बाद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है.

ग़रीबी से जूझते ये लोग बड़ी संख्या में कराची के गुज्जर नाला, ओरंगी टाउन, अलीगढ़ कॉलोनी, बिहार कॉलोनी और सुर्जानी इलाकों में रहते हैं.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार पाकिस्तान की आबादी लगभग 16.5 करोड़ है. जिसमें मुहाजिरों की संख्या लगभग आठ प्रतिशत है. ये वो लोग हैं जो विभाजन के समय पाकिस्तान आए थे.

इसके अलावा 44.68 फ़ीसदी पंजाबी, 15.42 फ़ीसदी पश्तून, 14.1 फ़ीसदी सिंधी, 10.53 फ़ीसदी सिरायकी, 3.57 फ़ीसदी बलोच तथा 4.66 फ़ीसदी अन्य समुदाय हैं.

विभाजन की पीड़ा

कराची के गुज्जर नाले के निवासी और भारतीय शहर कानपुर से आए, 78 साल के मोहम्मद अनवर बँटवारे के दर्द को याद करते हुए कहते हैं, “जब हम पाकिस्तान पहुँचे तो पहले हमे थार के मरुस्थल में बनाए गए एक शिविर में रखा गया, जहाँ हम मजबूरी में ट्रेन के भापइंजन से निकला गरम पानी पीते थे."

अनवर का कहना था, “हम किस तकलीफ़ से गुजरे हैं यह शायद इस युवा पीड़ी को नहीं मालूम होगा. हमने कई मंज़र देखे हैं जिसमें बँटवारे के दौरान दंगों में हमारे अजीज़ हमसे बिछड़ गए.”




अनवर ने बताया कि कानपुर में घर, ज़मीन, जो भी था सब कुछ छोड़कर केवल एक चादर लिए पाकिस्तान आए थे. मुआवज़े में सरकार की ओर से कुछ भी नहीं मिला. मुआवज़े में घर या संपत्ति उन्हीं को मिली जिनके आगे-पीछे कोई हाथ था. या जिन्होंने लूटा उनको ही सब मिला.”


हम तो इस्लाम का झंडा लेकर अए थे और सोचा था कि मुसलमानों के लिए एक अलग देश बन रहा है तो कुछ सुख की सांस लेंगे पर यहाँ तो तकलीफ़ ही तकलीफ़ हैं


मोहम्मद अनवर

मोहम्मद अनवर ने कहा, “हम तो इस्लाम का झंडा लेकर अए थे और सोचा था कि मुसलमानों के लिए एक अलग देश बन रहा है तो कुछ सुख की सांस लेंगे पर यहाँ तो तकलीफ़ ही तकलीफ़ हैं”.

बँटवारे के समय जब मोहम्मद अनवर ने कानपुर छोड़ा था तब उन की उम्र 17 साल थी, और फिर ग़रीबी के कारण उन्हें कानपुर लौटना नसीब नहीं हुआ.

उन्होंने बताया, “भारत जाने के लिए इतने साधन नहीं हैं, पेट की चिंता करें या अपने मादरे-वतन कानपुर देखने की. दिल तो बहुत करता है, पर क्या करें, ग़रीबी ने दीवार सी खड़ी कर दी है.”

उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर से आए, 72 वर्षीय अयूब अली का कहना था, “शाहजहाँपुर में घर छोड़ा ज़मीन छोड़ी, पर यहाँ आने के बाद भी फ़क़ीर ही रहे. न किसी ने सिर छिपाने को जगह दी और न ही किसी ने कोई मदद की. बँटवारे के बाद से आज तक धक्के खा रहे हैं.”

आख़िरी इच्छा

गुज्जर नाले के ही रहने वाले अयूब अली ने कहा कि पाकिस्तान में सारी उम्र तकलीफ़ में गुज़री है, "मन करता है कि भारत जाकर आख़िरी दिन वहीं पर ही गुज़ारूँ. बँटवारे के बाद फ़िर कभी मुड़कर भी अपने शाहजहाँपुर को नहीं देखा, अब तो मन में एक ही अरमान है कि शाहजहाँपुर जाऊँ और वहीं पर ही मौत आ जाए.”


शाहजहाँपुर में घर छोड़ा ज़मीन छोड़ी, पर यहाँ आने के बाद भी फ़क़ीर ही रहे

अयूब का कहना है, "पाकिस्तान में हमारी युवा पीढ़ी के लिए कोई रोज़गार की सुविधा उपलब्ध नहीं है. हमारे नौजवान सारा दिन गलियों में घूमते रहते हैं. सरकार को चाहिए कि उन्हें कम से कम कोई नौकरी तो दे."

इन मैली-कुचैली गलियों में इधर-उधर चक्कर लगाने वाले अधिकतर नौजवान भारतीय फ़िल्मी हीरो, हीरोईनों के प्रशंसक हैं. एक नौजवान, आसिफ़ ने कहा कि उन्हें शाहरुख़ ख़ान बहुत पसंद हैं और वह भारत जाकर फ़िल्मों में काम करना चाहते हैं.

आसिफ़ ने बताया, “बीए पास किए दो साल हो गए पर आज तक नौकरी नहीं मिली, सफ़ारिश है नहीं, हम ग़रीब लोग हैं इसलिए गलियों में धक्के खा रहे हैं.”

कराची के जाने-माने प्रोफ़ेसर तौसीफ़ अहमद ने बताते हैं कि विभाजन के बाद भारत से पलायन करके आने वाले लोगों में काफ़ी लोग निम्न-मध्यम वर्ग के भी थे.

तौसीफ़ अहमद ने कहा कि भारत से आने वाले लोग सांप्रदायिक हिंसा को झेलते हुए पाकिस्तान पहुँचे थे और उनके हाथ में कुछ भी नहीं था लेकिन जिन लोगों को कुछ नहीं मिल सका वह आज तक ग़रीबी में जी रहे हैं.

कराची के इन मुहाजिरों की एक पीढ़ी ने जहाँ विभाजन का दर्द और सांप्रदायिक दंगों की पीड़ा झेली तो दूसरी ओर इनकी युवा पीढ़ी आज ग़रीबी से जूझ रही है.

पाकिस्तान से अलग होने की माँग

पाकिस्तान के विवादास्पद बल्तिस्तान इलाक़े की रानी ने कहा है कि बल्तिस्तान को पाकिस्तान से आज़ादी दी जानी चाहिए.
इसकी वजह बताते हुए रानी ने कहा कि पिछले साठ साल में वहाँ के लोगों को न तो उनके हक़ मिले हैं और न ही उनसे किए वादे पूरे हुए हैं.

पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने आज बल्तिस्तान सहित उत्तरी पहाड़ी इलाक़ों के लिए विशेष पैकेज की घोषणा की है.

एक तरफ़ बल्तिस्तान को भारत जम्मू कश्मीर का हिस्सा बताता है तो दूसरी ओर, पाकिस्तान उसको अपना अटूट हिस्सा होने का दावा करता है.

बल्तिस्तान की सीमा एक तरफ़ भारत प्रशासित कश्मीर के कारगिल से लगती है तो दूसरी तरफ़ चीन से.


पहले तो हम बहुत समय तक प्रांत की माँग करते रहे, फिर आज़ाद कश्मीर की तरह और अब हमने सब कुछ छोड़ दिया है, अब हम माँग करते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के अनुसार बल्तिस्तान को पाकिस्तान से अलग किया जाए


बल्तिस्तान की रानी

पाकिस्तान में बल्तिस्तान, गिलगित और चित्राल को 'नॉर्थर्न एरियाज़' के नाम से जाना जाता है और ये इलाक़े आधिकारिक तौर पर पाकिस्तान का हिस्सा नहीं हैं बल्कि विवादास्पद कश्मीर का हिस्सा हैं.

बल्तिस्तान की रानी मलिका बल्तिस्तानी ने बुधवार कराची में एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि पहले बल्तिस्तान एक स्वतंत्र राज्य था लेकिन विभाजन के बाद हमने भारत के साथ जुड़े रहने के बजाए मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व पाकिस्तान में रहने का फैसला किया.

उन्होंने कहा, “हम कभी भी कश्मीर का हिस्सा नहीं रहे, पाकिस्तान ने एक अलग राज्य बनाकर आज़ाद कशमीर का नाम दिया और भारत ने कश्मीर को अपने संविधान और संसद में जगह दी.”

उन्होंने कहा कि पाकिस्तान सरकार ने बल्तिस्तान को एक प्रांत की हैसियत देने के बजाए सीधे राजधानी इस्लामाबाद से चला रही है जिससे हमारे लोगों को कोई अधिकार नहीं मिल रहे.

उन्होंने कहा, “सरकार ने बल्तिस्तानियों को नौकरियों से दूर रखा है और बल्तिस्तान में जो भी सरकारी नौकरी में है इन में कोई भी बल्तिस्तानी नहीं है.”

माँग

पाकिस्तान बनने के बाद बल्तिस्तान के लोगों की माँग रही है कि बल्तिस्तान को प्रांत बना दिया जाए लेकिन सरकार ने इस मांग को हमेशा ठुकरा दिया है.


बल्तिस्तान के एक तरफ़ कारगिल है और दूसरी ओर चीन

मलिका बल्तिस्तानी ने बताया, “पहले तो हम बहुत समय तक प्रांत की माँग करते रहे, फिर आज़ाद कश्मीर की तरह और अब हमने सब कुछ छोड़ दिया है, अब हम माँग करते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के अनुसार बल्तिस्तान को पाकिस्तान से अलग किया जाए.”

उन्होंने कहा, “राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने बल्तिस्तान के लिए एक विशेष संविधानिक पैकैज की जो घोषणा की है, उन्होंने तो बल्तिस्तान की जनता को बेवकूफ़ बनाया है. सरकार ने बल्तिस्तानियों को 50 साल पीछे धकेल दिया है.”

मलिका ने कहा कि जो भी हमारी प्रगति और ख़ुशहाली के लिए काम करेगा, हम उसके साथ रहेंगे. पाकिस्तान अगर बल्तिस्तानियों को अधिकार नहीं देना चाहते तो हम पाकिस्तान से अलग होना चाहते हैं.

राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने बुधवार को देश के उत्तरी इलाक़ों और बल्तिस्तान के लिए एक विशेष संविधानिक पैकैज की घोषणा की है. इस घोषणा के तहत बल्तिस्तान की हैसियत पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर जैसी हो जाएगी और बलतिस्तान के लिए एक अलग विधानसभा की स्थापना की जाएगी.

Tuesday, October 23, 2007

टाइम की पर्यावरण सूची में दो भारतीय

अमरीकी पत्रिका टाइम ने दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में उल्लेखनीय काम कर रहे लोगों की एक सूची जारी की है जिसमें दो भारतीयों - तुलसी ताँती और डीपी डोभाल ने भी जगह पाई है.
तुलसी ताँती भारत की पवन ऊर्जा कंपनी सुज़लॉन के प्रमुख हैं और डीपी डोभाल वाडिया हिमालय भूगर्भीय संस्थान से संबंधित हैं. इन दोनों को टाइम ने ‘हीरोज़ ऑफ़ इनवायरनमेंट’ सूची में शामिल किया है.

टाइम पत्रिका ने अपनी वेबसाइट पर कहा है कि 'सूची में शामिल लोग वो हैं जिन्होंने दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पर्यावरण चिंता को लेकर छाई ख़ामोशी को ख़त्म किया है.'

पत्रिका लिखती है, "पर्यावरण के मसले उठा रहे इन लोगों ने पृथ्वी को आवाज़ दी है. इस आवाज़ को सुनकर हमें उनका साथ देना चाहिए."

तुलसी ताँती की कहानी

टाइम में ताँती पर छपे लेख में बताया गया है कि दुनिया की चौथी सबसे बड़ी पवन ऊर्जा टर्बाइन कंपनी के प्रमुख 49 वर्षीय इंजीनियर ताँती की जिंदगी में दो ऐसे मोड़ आए जब वे पर्यावरण की चिंता से जुड़ते चले गए.

वर्ष 1995 में ताँती कपड़े की कंपनी चला रहे थे. तमाम प्रयोग के बावजूद बिजली की क़ीमत और आपूर्ति के कारण उनकी कंपनी मुनाफ़ा नहीं दे पा रही थी.

ताँती ने पवन ऊर्जा की दो टर्बाइन लीं और कंपनी ने धीरे-धीरे लाभ देना शुरू कर दिया.


अगर भारत के लोग अमरीका की तरह बिजली की खपत करने लगें तो दुनिया में संसाधनों की कमी हो जाएगी. ऐसी स्थिति में या तो भारत को विकसित होने से रोक दिया जाए या दूसरे विकल्पों को आज़माया जाए


तुलसी ताँती

दूसरी बार वर्ष 2000 की शुरुआत में उन्होंने ग्लोबल वार्मिंग पर एक रिपोर्ट पढ़ी.

इससे उन्हें मालूम चला कि अगर वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ने में भारी कमी नहीं लाई गई तो वर्ष 2050 तक कई देश पानी में डूब जाएँगे. इन देशों में मालदीव जैसे देश का भी नाम था, जहाँ घूमने जाना उन्हें बहुत भाता है.

तांती के अनुसार, "अगर भारत के लोग अमरीका की तरह बिजली की ख़पत करने लगें तो दुनिया में संसाधनों की कमी हो जाएगी. ऐसी स्थिति में या तो भारत को विकसित होने से रोक दिया जाए या दूसरे विकल्पों को आज़माया जाए."

2001 तक ताँती ने अपनी कपड़े वाली कंपनी बेच दी और पवन ऊर्जा टर्बाइन बनाने की कंपनी सुज़लॉन एनर्जी को शुरू किया. आज चार देशों में कंपनी के कारख़ाने हैं और यह सालाना करीब 85 करोड़ डॉलर का कारोबार करती है.

ग्लेशियर के अध्ययन में जुटे डोभाल

टाइम पत्रिका के लेख के मुताबिक आर्कटिक और अन्य जगहों के ग्लेशियर का अध्ययन तो कई वैज्ञानिकों ने किया है लेकिन दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला हिमालय के ग्लेशियर पिघलने पर उतना काम नहीं हुआ है.

टाइम पत्रिका के अनुसार यही कारण है कि डोभाल का काम इतना महत्वपूर्ण है.

भारत सरकार के वाडिया हिमालय भूगर्भ संस्थान के 45 वर्षीय भूगर्भशास्त्री डोभाल हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने पर शोध करते-करते अब एक तरह से ग्लेशियरशास्त्री बन गए हैं.


जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से ग्लेशियर सबसे संवेदनशील हैं. क्या-क्या असर हो रहा है, यह जानने का सबसे बेहतरीन ज़रिया ग्लेशियर हैं


डीपी डोभाल

डीपी डोभाल के अनुसार, "जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से ग्लेशियर सबसे संवेदनशील हैं. क्या-क्या असर हो रहा है, यह जानने का सबसे बेहतरीन ज़रिया ग्लेशियर हैं."

डोभाल के अनुसार दूसरे क्षेत्र के ग्लेशियरों का लंबे समय का 'डाटा' उपलब्ध है लेकिन हिमालय के ग्लेशियरों के बारे में हम अब भी बहुत कम जानते हैं. वे कहते हैं कि हमने बहुत देर से इस पर काम शुरू किया.

पिछले 15 सालों से हिमालय के एक ग्लेशियर के आकार का सही और लगातार आंकड़ा लिया जा रहा है. कुछ और आंकड़ें भी हैं लेकिन इनका आकलन और भी बाद में शुरू हुआ है.

अन्य पर्यावरणविद

टाइम की सूची में शामिल दूसरे देशों के 'पर्यावरण नायक' भी लाजवाब हैं. आर्थक रूप से पिछड़े बांग्लादेश के रसायनशास्त्री अबुल हुसाम ने प्रदूषित पानी को साफ़ करने की तरकीब निकाली है.

चीन के शी झेंगरोंग भी इस सूची में हैं. झेंगरोंग ने सौर ऊर्जा के व्यवसाय को अपनाया और आज देश के सबसे अमीर लोगों में एक हैं.

'मैं झूठ के दरबार में सच बोल रहा हूँ...'

एक दौर था जब भारत की राजधानी दिल्ली यहाँ आए दिन होनेवाले राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलनों और मुशायरों के लिए जानी जाती थी पर अब लोगों को न तो ऐसे आयोजन सुनने को मिलते हैं और न ही सुनने वाले.
हाँ, मगर कुछ ऐसी ही हो चली दिल्ली में शुक्रवार को जब एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का मुशायरा आयोजित हुआ तो सुनने वालों ने फिर से अपनी एक शाम दक्षिण एशिया और दुनिया के तमाम हिस्सों से आए शायरों के नाम कर दी.

मौका था दिल्ली में जश्न-ए-बहार के पाँचवें आयोजन का, जिसमें भारत और पाकिस्तान के अलावा चीन और सऊदी अरब के शायरों ने भी शिरकत की.

जश्न-ए-बहार

शाम को जब मुशायरा जमा तो हज़ारों की संख्या में सुनने वाले भी पहुँचे और साथ ही तमाम मशहूर शख़्सियतें भी. मसलन मक़बूल फ़िदा हुसैन, पाक उच्चायुक्त अहमद अज़ीज़ खाँ और प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन जैसे कितने ही लोग मुशायरे में पहुँचे.


मुशायरे में हुसैन भी पहुँचे और देर रात तक पूरा मुशायरा सुना.

पर लोगों के लिए तो सबसे ज़्यादा अहमियत शायरों की ही थी. पाकिस्तान से आईं ज़हरा निगार और फ़हमीदा रियाज़ की शायरी ख़ासी पसंद की गई तो भारत के जाने माने शायर वसीम बरेलवी और निदा फ़ाज़ली और मुनव्वर राना और गौहर रज़ा को लोगों ने काफ़ी सराहा.

सऊदी अरब से आए उमर सलीम अमअल अदरूस और चीन से आए शायर झांग शिक्शुआन की शायरी को भी ख़ूब पसंद किया गया.

बदलेगी फ़िज़ा

इन तमाम शायरों ने जिस एक बात पर ज़ोर दिया, वो थी पड़ोसी मुल्कों और संप्रदायों के बीच भाईचारे की.


साउदी अरब से आए उमर सलीम अमअल अदरूस की शायरी भी लोगों को पसंद आई.

भारत में पाकिस्तानी उच्चायुक्त अहमद अज़ीज़ ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि इस तरह की कोशिशें दोनों ओर से होती रही हैं और इससे संबंधों को सुधारने की दिशा में काफ़ी मदद मिलती है.

यह पूछने पर कि ऐसा तो दोनों मुल्कों के बीच दो दशकों से हो रहा है, फिर भी सियासी संबंध क्यों नहीं सुधर रहे, उन्होंने मुस्कराकर कहा, "इस बार ऐसा नहीं होगा."

पर सवाल तो ये है कि देशों के बीच संबंधों से लेकर आवाम की आवाज़ तक की तमाम उम्मीदों और ज़िम्मेदारियों से इतर मुशायरे और कवि सम्मेलनों की परंपरा ख़ुद को कितना और कब तक क़ायम रख पाएगी.

झलकियाँ

मुशायरे में कुछ शायरों की शायरी की चंद झलकियाँ इस तरह हैं -

मैं क़तरा होकर भी तूफ़ाँ से जंग लेता हूँ
मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है.
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
यह इक चिराग़ कई आँधियों पे भारी है.
वसीम बरेलवी

मैंने पूछा था सबब, पेड़ के गिर जाने का
उठके माली ने कहा इसकी क़लम बाक़ी है
निदा फ़ाज़ली

कुछ रोज़ से हम सिर्फ़ यही सोच रहे हैं
अब हम को किसी बात का ग़म क्यों नहीं होता
शहरयार

मैं दुनिया के मेयार पे पूरा नहीं उतरा
दुनिया मेरे मेयार पे पूरी नहीं उतरी.
मैं झूठ के दरबार में सच बोल रहा हूँ,
हैरत है कि सर मेरा क़लम क्यों नहीं होता.
मुनव्वर राना

इक अमीर शख़्स ने हाथ जोड़ के पूछा एक ग़रीब से
कहीं नींद हो तो बता मुझे कहीं ख़्वाब हों तो उधार दे.
आग़ा सरोश

हिंदी शब्दों से कुछ ख़ास लगाव हैः फ़हमीदा रियाज़

भारत में जन्मी और पाकिस्तान में पली-बढ़ी फ़हमीदा रियाज़ ने शायरी, कहानी, उपन्यास और अनुवाद यानी साहित्य की जिस विधा में हाथ आज़माया, शोहरत पाई.
लेखन के अलावा वो महिलाओं के हक़ की लड़ाई में भी हमेशा आगे रहीं. उर्दू के साथ ही उन्हें फ़ारसी, सिंधी और अंग्रेज़ी भाषा में भी महारत हासिल है. कुछ अरसा पहले उनसे मुलाक़ात हुई और प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के कुछ प्रमुख अंश:

आप हमेशा अपनी बेबाक शायरी और आज़ाद ख़्याली की वजह से ख़बरों में रही हैं, कैसा लगता है आपको?

भई जिस तरह की शायरी मैंने की थी उस तरह की शायरी का उस वक़्त बहुत ज्यादा विरोध हुआ था लेकिन अब तो लोग उन तमाम चीजों को पसंद कर रहें हैं. जैसे मैंने वह नज़्म लिखी थी "तुम बिलकुल हम जैसे निकले." उस वक़्त इस पर इतना हंगामा हुआ था लेकिन इस बार जब मैं हिन्दुस्तान आई तो यही नज़्म लोगों ने मुझ से बार-बार सुनना चाही. तो मुझे ख़ुशी है कि मैं ऐसे दौर में ज़िंदा हूँ कि जिसमें मैंने जो कहा और लिखा उसकी कामयाबी देखते हुए इस दुनिया से जाऊँगी.

आपकी शायरी में हिंदी के शब्द काफी नज़र आते है उसकी क्या वजह है?

इसकी बड़ी अजीब सी वजह है. चूकि हम सिंध में रहते है और सिंध की अपनी ज़ुबान सिंधी है. क्योंकि यहां पहले अरब आए थे इसलिए इस भाषा में फारसी से ज़्यादा अरबी के शब्द मिलते है और साथ ही फ़ारसी और संस्कृत जैसे वह शब्द भी जिसे आप लोग हिंदी कहते हैं.

हम मुहाजिरों की कोशिश और बुनियादी ख़्वाहिश यह थी कि हम लोग अपनी ज़ुबान को सिंधी की तरफ़ ले जाएँ. हालांकि पहले पाकिस्तान की सरकारी पॉलिसी इन हिंदी शब्दों को नज़र अंदाज़ करने की थी जिसका बड़ा विरोध हुआ कि भई आप हमारी ज़ुबान से यह शब्द किस तरह निकाल सकते है--

हम तो इसका इस्तेमाल करेगें. दूसरी ख़ास वजह यह है कि यह शब्द मुझे बेहद ख़ूबसूरत और अच्छे लगते है और दिल में इनके लिए एक ख़ास मुहब्ब्त और जगह है.

लेकिन हिंदी शब्दों के इस्तेमाल पर पाकिस्तान के साहित्यिक हलक़ों की और आम लोगों की प्रतिक्रिया क्या रही?

ख़ुशक़िस्मती से मुझे किसी तरह के सवालो का सामना नहीं करना पड़ा. और देखिए यह अदब है और अदब में मैं ही अकेली नहीं. हमारे यहां जमीलउद्दीन आली है उन्होंने हमेशा दोहे लिखें और हिंदी में ही लिखते रहे. इसके अलावा फैज़ की शायरी को देखिए,

'उठो माटी से अब जागो मेरे लाल,
तूना तुमरा राग पड़ा है
देखो कितना काज पड़ा है.
बैरी बिराजे राज सिंहासन
तुम माटी में लाल'

तो यह फैज़ है.अब अपनी कहूँ तो हिंदुस्तान आने से पहले मुझे हिंदी पढ़नी आती भी नहीं थी. मेरी तमाम हिंदी वाली शायरी हिंदुस्तान आने से पहले की शायरी हैं.

महिला लेखिका होने के नाते क्या दिक़्क़ते पेश आई?

बेइन्तेहा दिक़्क़ते आईं. औरत का किसी भी विषय पर मुंह खोलना नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त बात थी.हमारे समाज में और हिन्दुस्तान में भी हालात वैसे ही है कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है.सबसे बड़ी दिक्क़त तो यह थी कि आलोचक, महिला लेखिका के काम को गंभीरता से नही लेते थे.

दूसरे उन्हें वो मुक़ाम या दर्जा नहीं दिया जाता जिसकी वह हक़दार है. तीसरे फौरन उनके किरदार को निशाना बनाया जाता है. मंटो ने जो कुछ लिखा उस पर उनके चरित्र को निशाना नहीं बनाया गया...लेकिन इस्मत चुग़ताई पर चरित्रहीनता का आरोप लगा दिया गया.

हमने तो इसके लिए लड़ाई भी लड़ी. बाक़ायदा एक मंच बनाया गया और एक किताब भी लिखी गई. 'रिकंस्ट्रक्शन आफ़ मेल रायटर्स पर्सेपशन अबाउट फ़ीमेल'. अर्थात 'महिलाओं के बारे में पुरूष लेखकों के नज़रिए की पुनर्रचना' जिसमें पहली बार महिला लेखिकाओं ने पुरूष लेखकों के साहित्य की समीक्षा की. मैंने ख़ुद उर्दू के बड़े समझे जानेवाले कहानीकार एम राशिद की कहानियों की समीक्षा की थी और लिखा था कि उनकी कहानियों में औरत का मतलब गोश्त के सिवा और कुछ भी नहीं है.

हिंदुस्तानी साहित्य के बारे में आप क्या सोचती हैं?

आज़ादी के फौरन बाद हिंदी साहित्य मे कोई जान दिखाई नहीं पड़ रही थी. तब वहां मंटो या इस्मत चुग़ताई की तरह का साहित्यकार दिखाई नहीं पड़ता था. जबकि तब पाकिस्तान में अच्छा अदब लिखा जा रहा था. लेकिन अब तस्वीर बदल गई है. इसमें कोई शक नहीं कि हिंदुस्तान का साहित्य बड़ी-बड़ी ज़ुबानों का साहित्य है.

बहुत अच्छी कहानियां और उपन्यास नई सोच और नई थीम के साथ देखने को मिल रहे हैं. हालांकि सब कुछ हर वक़्त पढ़ने को नहीं मिल पाता.बल्कि इस ओर उठे जो सुस्त क़दम हैं उनमें तेज़ी लाई जाए ताकि वहां की किताबें और मेगज़ीन यहां और वहां की यहां आसानी से मिल जाएँ.

पाकिस्तान की फ़ौजी हुकूमतों ने आपको हमेशा परेशान किया. तो परवेज़ मुशर्रफ़ के दौर में आपको किन दुश्वारियों से गुज़रना पड़ रहा है?

जनरल ज़िया उल हक़ के दौर में मुझे भारत भागना पड़ा था. मैं 1980 से लेकर 1987 तक यानी पूरे सात साल भारत में रही. मैं हमेशा फ़ौजी हुकूमतों के ख़िलाफ़ रही हूँ. लेकिन यह सच है कि परवेज़ मुशर्रफ़ ने बुद्धिजीवियों को काफ़ी खुला माहौल दिया है. इसीलिए तमाम लिबरल उनके साथ रहे हैं.

पिछले दिनों यहाँ से एक लेखिका पाकिस्तान गई थीं तब उनसे उनकी मां ने लाहौरी नमक लाने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी. आप भारत में पैदा हुई हैं तो अपनी मिट्टी की कौन सी चीज़ आपको सबसे ज़्यादा पसंद है?

भई मैं तो मेरठ में पैदा हुई हूँ तो मुझे तो मेरठ की गज़क बेहद पसंद है. उसके बाद मथुरा के पेड़े और आगरा का पेठा है.

Wednesday, October 3, 2007

ऊँटनी का दूध कितना पौष्टिक!


ऊंटनी का दूध स्वास्थ्य के लिए कितना लाभदायक है और इसमें कौन कौन से पोषक तत्व होते हैं. यह पूछते हैं गांव कानोड़ बाड़मेर राजस्थान से कुरनाराम गोदारा.
ऊंटनी के दूध में कैल्शियम, विटामिन बी और सी बड़ी मात्रा में होते हैं और इसमें लौह तत्व गाय के दूध की अपेक्षा दस गुना होता है. इसके अलावा इसमें रोग प्रतिकारक तत्व होते हैं जो कैंसर, ऐचआईवी एड्स, अल्ज़ाइमर्स और हैपेटाइटिस सी जैसे रोगों से लड़ने की क्षमता पैदा करते हैं. संयुक्त राष्ट्र का खाद्य और कृषि संगठन (एफ़एओ) चाहता है कि जिन देशों में ऊँटनी का दूध होता है वो इसे पश्चिमी देशों को निर्यात करें. लेकिन हर साल कोई 54 लाख टन दूध का उत्पादन होता है जो दुनिया भर में निर्यात के लिए काफ़ी नहीं. एक मुश्किल और है कि दूध को लम्बे समय तक चलाने के लिए अति उच्च तापमान से गुज़ारना पड़ता है जबकि ऊंटनी का दूध इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता. और फिर हो सकता है लोगों को इसका स्वाद भी अच्छा न लगे क्योंकि ऊंटनी का दूध, गाय या भैंस के दूध के मुक़ाबले कुछ ज़्यादा नमकीन होता है.