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भारतीय उपमहाद्वीप के 1947 में विभाजन के बाद जब पाकिस्तान अस्तित्व में आया तब जिस तरह से बहुत सारे मुसलमानों ने भारत में ही रहना पसन्द किया, उसी तरह से बहूत सारे हिन्दू भी ऐसे थे जिन्हें पाकिस्तान छोड़ना गवारा नहीं हुआ.
कुछ भारत जाना चाहते भी थे तो ग़रीबी की वजह से नहीं जा सके.
बँटवारे के पचास साल बाद भी पाकिस्तान में ज़्यादातर हिन्दुओं की सामाजिक और आर्थिक हालत अब भी चिंताजनक है.
रुचि राम सिन्ध प्रान्त में हिन्दुओं के एक प्रमुख नेता हैं और मानवाधिकारों के लिए भी काम करते हैं. रुचि राम कहते हैं कि सरकार हिन्दुओं की संख्या कम दिखाने के लिए आँकड़ो में फेरबदल करती है.
“थरपाकर में हिन्दू बहुसंख्या में हैं लेकिन सरकार ने मुसलमानों का बहुमत दिखाने के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों की संख्या क्रमशः 49 और 51 प्रतिशत कर दी है.”
अवसर नहीं
ज़्यादातर हिन्दू मानते हैं कि पिछले पचास साल में उन्हें देश की राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने के मौके ही नहीं मिले हैं और उनके हालात में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है.
नौकरियों में भी भेदभाव होता है और प्रतिष्ठित पदों पर हिन्दुओं को नौकरियाँ नहीं मिलती हैं
रूचि राम
थरपाकर के एक डॉक्टर अशोक कहते हैं कि कुछ तो सरकारी व्यवस्था की वजह से हिन्दुओं को मौक़े नहीं मिले और कुछ हिन्दुओं ने स्वयं भी पहल नहीं की है.
रुचि राम कहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच पैदा होने वाले तनाव का असर भी हिन्दुओं पर पड़े बगैर नहीं रहता है.
रुचि राम याद करते हुए बताते हैं कि भारत में जब 1992 में बाबरी मसजिद को ध्वस्त किया गया था तब पाकिस्तान में हिन्दुओं के ख़िलाफ़ दंगे शुरु हो गए थे और अनेक मन्दिर भी गिरा दिए गए थे लेकिन सरकार ने फिर उन मन्दिरों को बनवा दिया था.
वहीं ऐसे भी उदाहरण मिले जहाँ अनेक मुसलमानों ने पवित्र क़ुरआन का वास्ता देकर मुसलमानों की उग्र भीड़ से अपने हिन्दू पड़ोसियों की जान बचाई.
रुचि राम कहते हैं कि आमतौर पर मुसलमानों की परम्परागत दरियादिली को मानना पड़ेगा और इसकी एक ताज़ातरीन मिसाल ये रही कि भारत के गुजरात राज्य में हाल के महीनों में इतना कुछ हुआ लेकिन पाकिस्तान में हालात सामान्य बने रहे.
इस सामाजिक सद्भाव के बावजूद पाकिस्तानी हिन्दुओं को ये कसक ज़रूर है कि वे बेहद ग़रीबी और सरकारी भेदभाव के माहौल में जीवन गुज़ारते हैं.
लेकिन क्या सामाजिक तौर पर भी उन्हें असुरक्षा के माहौल में जीना पड़ता है. डॉक्टर अशोक कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है और हिन्दुओं को मुसलमानों से आमतौर पर कोई ख़तरा या दहशत नहीं होती है.
लेकिन कभी-कभार कट्टरपंथी तबका इस सामाजिक और सांप्रदायिक ताने-बाने को बिगाड़ने की कोशिश ज़रूर करता है.
अनेक हिन्दू कार्यकर्ता कहते हैं कि सरकार में अपनी पहुँच रखने वाले हिन्दू नेता भी अपने समुदाय के ग़रीब लोगों के कल्याण के लिए कुछ नहीं करते.
हक़ीक़त
पाकिस्तान के संविधान में कहा गया है कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सरकार को हिफ़ाज़त करनी पड़ेगी और उन्हें नौकरियाँ देनी होंगी लेकिन हक़ीक़त इससे बहुत भिन्न है.
रुचि राम कहते हैं कि हिन्दुओं के बच्चों को स्कूलों में हिन्दू धर्म की शिक्षा नहीं मिलती और उन्हें ज़्यादा नम्बर लेने के लिए इस्लाम की शिक्षा हासिल करनी पड़ती है.
“नौकरियों में भी भेदभाव होता है और प्रतिष्ठित पदों पर हिन्दुओं को नौकरियाँ नहीं मिलती हैं.”
बहरहाल ये शिकायतें तो पाकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं को सरकार और सामाजिक व्यवस्था से हैं लेकिन इसके बावजूद वे पाकिस्तान को ही अपनी सरज़मीं मानते हैं और तमाम शिकायतों के बावजूद उन्हें वहीं रहना मंज़ूर है.