Thursday, October 2, 2008

लड़की या लड़का माँ की सोच का नतीजा

Dingal news!
अगर कोई महिला यह सोचे कि वह कितने दिन जीवित रहने वाली है, या यह दुनिया अच्छी है या बुरी, तो उसकी इस सोच का असर उसके बच्चे पर निर्णायक रूप में पड़ सकता है.
वैज्ञानिकों का कहना है कि यहाँ तक कि इस सोच का असर उसके बच्चे के लिंग निर्धारण में भी निर्णायक रूप में पड़ सकता है.
ब्रिटेन के केंट विश्वविद्यालय में जीव विज्ञान की शिक्षक डॉक्टर सारा जोन्स ने निष्कर्ष निकाले हैं कि जो महिलाएँ आशावादी होती हैं उनको बेटा पैदा होने की ज़्यादा संभावना होती है.
डॉक्टर जोन्स ने 609 ऐसी महिलाओं से बातचीत की जो हाल ही माँ बनी थीं.
डॉक्टर जोन्स ने पाया कि जो महिला अपनी जितनी लंबी उम्र के बारे में सोचती, उसके हर एक साल के लिए बेटा पैदा होने की संभावना बढ़ती जाती.
पहले के शोधों में पाया गया है कि जो महिला शारीरिक रुप से स्वस्थ होती है और सुविधाजनक और आरामदेह ज़िंदगी जीती है, उनको बेटा पैदा होने की संभावना ज़्यादा रहती है.
इसके उलट जो महिलाएँ मुश्किल हालात में ज़िंदगी जीती हैं, उनके यहाँ बेटी पैदा होने की संभावना ज़्यादा होती है.
डॉक्टर सारा जोन्स ने महिलाओं से उनके रुख़ के बारे में जो सवाल पूछे, उनका लब्बोलुबाव यही था कि वे कितने साल जीना चाहती हैं?
मध्यम वर्ग और कामकाजी तबके की महिलाओं का मानना था कि वे 40 साल की उम्र तक तो जीवित रहेंगी ही लेकिन कुछ का मानना था कि वे 130 साल तक जीवित रह सकेंगी.
सोच और रासायनिक परिवर्तन
डॉक्टर सारा जोन्स का मानना है कि दिमाग़ में आशावादी विचारों से शरीर में कुछ महत्वपूर्ण रासायनिक परिवर्तन होते हैं और इससे यह संभावना बढ़ती है कि आशावादी दृष्टिकोण रखने वाली महिला के गर्भ में पुत्र ही वजूद में आएगा.
एक बेटे को पाल-पोसकर युवावस्था तक लाना बहुत मुश्किल काम है. गर्भ में भी लड़का अपनी माँ के मिसाल के तौर पर ये रासायनिक परिवर्तन गर्भ धारण के समय महिला के सेक्स हारमोन में तब्दीली कर सकता है जिससे बेटे के वजूद की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं.
डॉक्टर सारा जोन्स ने बीबीसी के रेडियो-4 को बताया कि यह देखने की बात थी कि बेटे को जन्म देने वाली महिलाएँ न सिर्फ़ शारीरिक रूप से स्वस्थ थीं बल्कि वे आशावादी और सकारात्मक सोच रखने वाली थीं और अपने बेटे को अच्छी ज़िंदगी देने का संकल्प रखती थीं.
सारा जोन्स का कहना था, "एक बेटे को पाल-पोसकर युवावस्था तक लाना बहुत मुश्किल काम है. गर्भ में भी लड़का अपनी माँ के शरीर पर ज़्यादा दबाव डालता है और लड़कों को जन्म देना भी ज़्यादा मुश्किल माना जाता है."
"अगर आप अपने बेटे का अच्छी तरह ध्यान रखते हुए उसे एक कामयाब व्यक्ति बनाने की तरफ़ अपना ठोस योगदान नहीं कर पाते हैं और अगर वह विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षित होता है तो इस बात की काफ़ी संभावना है कि वह अपनी पीढ़ी आगे बढ़ाने में सहयोग नहीं कर सके.
रॉयल कॉलेज ऑफ़ ऑब्सटेटरीशियंस एंड गायनीकोलॉजिस्ट के डॉक्टर पीटर बोवेन सिपकिंस का कहना है कि गर्भ में बच्चे के लिंग का निर्धारण सिर्फ़ एक इत्तेफ़ाक़ की बात नहीं होकर बहुत से शारीरिक और मानसिक हालात पर निर्भर हो सकता है.
उन्होंने कहा, "पहले विश्व युद्ध में पुरुषों का बड़े पैमाने पर संहार होने के बाद बहुत से लड़के पैदा हुए थे. ऐसा लगता है कि लड़ाई में जो कुछ खोया था क़ुदरत ने उसकी भरपाई के लिए ऐसा किया."
यह शोध बॉयोलॉजी लैटर्स की पत्रिका में प्रकाशित हुआ है.

'मोबाइल घटा रहा है मर्दानगी'

Dingal Times!
शोधकर्ताओं का कहना है कि मोबाइल फ़ोन का अधिक इस्तेमाल करने वाले पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या घट रही है जो सीधे तौर पर प्रजनन क्षमता को प्रभावित करती है.
मुंबई के अस्पतालों में संतानोत्पति में नाकाम होने के बाद अपना इलाज़ करा रहे 364 पुरूषों पर हुए अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला है.
यह शोध ओहियो के क्लीवलैंड क्लिनिक फाउंडेशन की ओर से हुआ है और इसके निष्कर्ष अमरीका के 'सोसाइटी ऑफ रिप्रोडक्टिव मेडिसिन' को सौंप दिए गए हैं.
शोधकर्ताओं के मुताबिक एक दिन में चार घंटे या इससे अधिक देर तक मोबाइल का इस्तेमाल करने वाले पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या कम पाई गई और बचे हुए शुक्राणुओं की हालत भी ठीक नहीं थी.
हालाँकि ब्रिटेन के एक विशेषज्ञ का कहना है कि प्रजनन क्षमता में कमी के लिए मोबाइल को दोष देना ठीक नहीं है क्योंकि वह पुरूषों के जननांगों के निकट नहीं होता.
शोध
शोध के मुताबिक जो लोग दिन में चार घंटे से अधिक मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करते थे उनमें शुक्राणुओं की संख्या प्रति मिलीलीटर पाँच करोड़ पाई गई जो सामान्य आँकड़े से काफी कम है.
जो लोग दो से चार घंटे तक मोबाइल फ़ोन से बात करते थे उनमें प्रति मिलीलीटर शुक्राणुओं की संख्या लगभग सात करोड़ आँकी गई.
जिन लोगों ने बताया कि वे मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल ही नहीं करते हैं, उनमें यह संख्या लगभग साढ़े आठ करोड़ थी और उनके शुक्राणु काफी स्वस्थ हालत में सक्रिय पाए गए.
चेतावनी
शोधकर्ताओं की टीम का नेतृत्व करने वाले डॉ अशोक अग्रवाल कहते हैं कि अभी इस मामले पर और अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है.
वो कहते हैं, "लोग मोबाइल का इस्तेमाल बेधड़क करते जा रहे हैं. बिना ये सोचे कि इसके परिणाम क्या होंगे."
डॉ अग्रवाल का कहना है कि मोबाइल से होने वाला विकिरण डीएनए पर बुरा असर डालता है जिससे शुक्राणु भी प्रभावित होते हैं.

सोयाबीन रोगियों के लिए फ़ायदेमंद

Dingal Times!
एक शोध के अनुसार सोयाबीन और चना में पाए जाने वाले एक रसायनिक पदार्थ का सेवन दिल के दौरे का सामना कर चुके रोगियों के लिए फ़ायदेमंद हो सकता है.
हाँगकाँग विश्वविद्यालय की टीम का कहना है कि सोयाबीन में पाए जाने वाले आइसोफ़लेवोन नामक रसायनिक पदार्थ कॉलेस्ट्रॉल से लड़ने वाली स्टेटिन के समकक्ष है.
यूरोपीय हृदय पत्रिका के शोध के अनुसार आइसोफ़लेवोन धमनियों में ख़ून के प्रवाह को बेहतर करने में मदद करता है.
कैंसर से बचता है
पिछले अध्ययनों में संभावना व्यक्त की गई था कि सोयाबीन का सेवन छाती और प्रोस्टेट कैंसर से बचने मे मदद करता है और कॉलेस्ट्रॉल भी कम करता है.
सोयाबिन में पाया जाने वाला आइसोफ़लेवोन हृदय की बीमारी के ख़तरे को कम करता है और उस कोशिका को बढ़ने से रोकता है जो धमनियों में ख़ून के बहाव में रूकावट पैदा करती है.
शोधकर्ताओं ने ताज़ा परीक्षण में 102 मरीज़ों को शामिल किया और शामिल किए गए सभी लोगों को ख़ून का थक्का जमने के कारण दिल का दौरा पड़ चुका था और वे हृदय की बीमारी से ग्रसित थे.
शोधकर्ताओं ने इन मरीज़ों को दो समूहों में बाँटा. एक समूह को आइसोफ़लेवोन जबकि दूसरे को पलेसेबो बारह सप्ताहों तक दिया.
शोधकताओं ने पाया कि जिन मरीज़ों ने आइसोफ़लेवोन का सेवन किया था उनकी हालत में बेहतरी देखी गई.
शोधकर्ता प्रोफ़ेसर हंग फेट सी का कहना था, "शोध इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि आइसोफ़लेवोन इनडोथेलियल की ख़राबी को ख़त्म करता है."
अध्ययन की ज़रूरत
हालाँकि उनका कहना था कि अभी यह जल्दबाज़ी होगी के मरीज़ो को आइसोफ़लेवोन के सेवन करने की सलाह दी जाए.
लेकिन उनका कहना था, "जिनके खाने में आइसोफ़लेवोन की मात्रा ज़्यादा होगी उन लोगों में दिल का दौरा पड़ने के ख़तरे कम होंगे."
ग़ौरतलब है कि आइसोफ़लेवोन फ़ाइटोइस्ट्रोजीन के अंतर्गत आता है जो प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले ओएस्ट्रोजन की नक़ल करता. ओएस्ट्रोजन हृदय की बीमारी के ख़तरे से रक्षा करता है.
द स्ट्रोक ऐसोसियेशन के डाक्टर पेटर कोलेमन का कहना है, "शोध से जो पता चल रहा है वो बड़ा महत्वपूर्ण और दिलचसप है कि आइसोफ़लेवोन के सेवन से दिल का दौरा पड़ चुके मरीज़ों के लिए फ़ायदेमंद हो सकता है."
उनका कहना था कि अभी ये शोध बहत कम लोगों पर किया गया है और इस सिलसिले में और अध्ययन की ज़रूरत है.