Tuesday, October 23, 2007

टाइम की पर्यावरण सूची में दो भारतीय

अमरीकी पत्रिका टाइम ने दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण की दिशा में उल्लेखनीय काम कर रहे लोगों की एक सूची जारी की है जिसमें दो भारतीयों - तुलसी ताँती और डीपी डोभाल ने भी जगह पाई है.
तुलसी ताँती भारत की पवन ऊर्जा कंपनी सुज़लॉन के प्रमुख हैं और डीपी डोभाल वाडिया हिमालय भूगर्भीय संस्थान से संबंधित हैं. इन दोनों को टाइम ने ‘हीरोज़ ऑफ़ इनवायरनमेंट’ सूची में शामिल किया है.

टाइम पत्रिका ने अपनी वेबसाइट पर कहा है कि 'सूची में शामिल लोग वो हैं जिन्होंने दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पर्यावरण चिंता को लेकर छाई ख़ामोशी को ख़त्म किया है.'

पत्रिका लिखती है, "पर्यावरण के मसले उठा रहे इन लोगों ने पृथ्वी को आवाज़ दी है. इस आवाज़ को सुनकर हमें उनका साथ देना चाहिए."

तुलसी ताँती की कहानी

टाइम में ताँती पर छपे लेख में बताया गया है कि दुनिया की चौथी सबसे बड़ी पवन ऊर्जा टर्बाइन कंपनी के प्रमुख 49 वर्षीय इंजीनियर ताँती की जिंदगी में दो ऐसे मोड़ आए जब वे पर्यावरण की चिंता से जुड़ते चले गए.

वर्ष 1995 में ताँती कपड़े की कंपनी चला रहे थे. तमाम प्रयोग के बावजूद बिजली की क़ीमत और आपूर्ति के कारण उनकी कंपनी मुनाफ़ा नहीं दे पा रही थी.

ताँती ने पवन ऊर्जा की दो टर्बाइन लीं और कंपनी ने धीरे-धीरे लाभ देना शुरू कर दिया.


अगर भारत के लोग अमरीका की तरह बिजली की खपत करने लगें तो दुनिया में संसाधनों की कमी हो जाएगी. ऐसी स्थिति में या तो भारत को विकसित होने से रोक दिया जाए या दूसरे विकल्पों को आज़माया जाए


तुलसी ताँती

दूसरी बार वर्ष 2000 की शुरुआत में उन्होंने ग्लोबल वार्मिंग पर एक रिपोर्ट पढ़ी.

इससे उन्हें मालूम चला कि अगर वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ने में भारी कमी नहीं लाई गई तो वर्ष 2050 तक कई देश पानी में डूब जाएँगे. इन देशों में मालदीव जैसे देश का भी नाम था, जहाँ घूमने जाना उन्हें बहुत भाता है.

तांती के अनुसार, "अगर भारत के लोग अमरीका की तरह बिजली की ख़पत करने लगें तो दुनिया में संसाधनों की कमी हो जाएगी. ऐसी स्थिति में या तो भारत को विकसित होने से रोक दिया जाए या दूसरे विकल्पों को आज़माया जाए."

2001 तक ताँती ने अपनी कपड़े वाली कंपनी बेच दी और पवन ऊर्जा टर्बाइन बनाने की कंपनी सुज़लॉन एनर्जी को शुरू किया. आज चार देशों में कंपनी के कारख़ाने हैं और यह सालाना करीब 85 करोड़ डॉलर का कारोबार करती है.

ग्लेशियर के अध्ययन में जुटे डोभाल

टाइम पत्रिका के लेख के मुताबिक आर्कटिक और अन्य जगहों के ग्लेशियर का अध्ययन तो कई वैज्ञानिकों ने किया है लेकिन दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला हिमालय के ग्लेशियर पिघलने पर उतना काम नहीं हुआ है.

टाइम पत्रिका के अनुसार यही कारण है कि डोभाल का काम इतना महत्वपूर्ण है.

भारत सरकार के वाडिया हिमालय भूगर्भ संस्थान के 45 वर्षीय भूगर्भशास्त्री डोभाल हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने पर शोध करते-करते अब एक तरह से ग्लेशियरशास्त्री बन गए हैं.


जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से ग्लेशियर सबसे संवेदनशील हैं. क्या-क्या असर हो रहा है, यह जानने का सबसे बेहतरीन ज़रिया ग्लेशियर हैं


डीपी डोभाल

डीपी डोभाल के अनुसार, "जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से ग्लेशियर सबसे संवेदनशील हैं. क्या-क्या असर हो रहा है, यह जानने का सबसे बेहतरीन ज़रिया ग्लेशियर हैं."

डोभाल के अनुसार दूसरे क्षेत्र के ग्लेशियरों का लंबे समय का 'डाटा' उपलब्ध है लेकिन हिमालय के ग्लेशियरों के बारे में हम अब भी बहुत कम जानते हैं. वे कहते हैं कि हमने बहुत देर से इस पर काम शुरू किया.

पिछले 15 सालों से हिमालय के एक ग्लेशियर के आकार का सही और लगातार आंकड़ा लिया जा रहा है. कुछ और आंकड़ें भी हैं लेकिन इनका आकलन और भी बाद में शुरू हुआ है.

अन्य पर्यावरणविद

टाइम की सूची में शामिल दूसरे देशों के 'पर्यावरण नायक' भी लाजवाब हैं. आर्थक रूप से पिछड़े बांग्लादेश के रसायनशास्त्री अबुल हुसाम ने प्रदूषित पानी को साफ़ करने की तरकीब निकाली है.

चीन के शी झेंगरोंग भी इस सूची में हैं. झेंगरोंग ने सौर ऊर्जा के व्यवसाय को अपनाया और आज देश के सबसे अमीर लोगों में एक हैं.

'मैं झूठ के दरबार में सच बोल रहा हूँ...'

एक दौर था जब भारत की राजधानी दिल्ली यहाँ आए दिन होनेवाले राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलनों और मुशायरों के लिए जानी जाती थी पर अब लोगों को न तो ऐसे आयोजन सुनने को मिलते हैं और न ही सुनने वाले.
हाँ, मगर कुछ ऐसी ही हो चली दिल्ली में शुक्रवार को जब एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का मुशायरा आयोजित हुआ तो सुनने वालों ने फिर से अपनी एक शाम दक्षिण एशिया और दुनिया के तमाम हिस्सों से आए शायरों के नाम कर दी.

मौका था दिल्ली में जश्न-ए-बहार के पाँचवें आयोजन का, जिसमें भारत और पाकिस्तान के अलावा चीन और सऊदी अरब के शायरों ने भी शिरकत की.

जश्न-ए-बहार

शाम को जब मुशायरा जमा तो हज़ारों की संख्या में सुनने वाले भी पहुँचे और साथ ही तमाम मशहूर शख़्सियतें भी. मसलन मक़बूल फ़िदा हुसैन, पाक उच्चायुक्त अहमद अज़ीज़ खाँ और प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन जैसे कितने ही लोग मुशायरे में पहुँचे.


मुशायरे में हुसैन भी पहुँचे और देर रात तक पूरा मुशायरा सुना.

पर लोगों के लिए तो सबसे ज़्यादा अहमियत शायरों की ही थी. पाकिस्तान से आईं ज़हरा निगार और फ़हमीदा रियाज़ की शायरी ख़ासी पसंद की गई तो भारत के जाने माने शायर वसीम बरेलवी और निदा फ़ाज़ली और मुनव्वर राना और गौहर रज़ा को लोगों ने काफ़ी सराहा.

सऊदी अरब से आए उमर सलीम अमअल अदरूस और चीन से आए शायर झांग शिक्शुआन की शायरी को भी ख़ूब पसंद किया गया.

बदलेगी फ़िज़ा

इन तमाम शायरों ने जिस एक बात पर ज़ोर दिया, वो थी पड़ोसी मुल्कों और संप्रदायों के बीच भाईचारे की.


साउदी अरब से आए उमर सलीम अमअल अदरूस की शायरी भी लोगों को पसंद आई.

भारत में पाकिस्तानी उच्चायुक्त अहमद अज़ीज़ ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि इस तरह की कोशिशें दोनों ओर से होती रही हैं और इससे संबंधों को सुधारने की दिशा में काफ़ी मदद मिलती है.

यह पूछने पर कि ऐसा तो दोनों मुल्कों के बीच दो दशकों से हो रहा है, फिर भी सियासी संबंध क्यों नहीं सुधर रहे, उन्होंने मुस्कराकर कहा, "इस बार ऐसा नहीं होगा."

पर सवाल तो ये है कि देशों के बीच संबंधों से लेकर आवाम की आवाज़ तक की तमाम उम्मीदों और ज़िम्मेदारियों से इतर मुशायरे और कवि सम्मेलनों की परंपरा ख़ुद को कितना और कब तक क़ायम रख पाएगी.

झलकियाँ

मुशायरे में कुछ शायरों की शायरी की चंद झलकियाँ इस तरह हैं -

मैं क़तरा होकर भी तूफ़ाँ से जंग लेता हूँ
मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है.
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
यह इक चिराग़ कई आँधियों पे भारी है.
वसीम बरेलवी

मैंने पूछा था सबब, पेड़ के गिर जाने का
उठके माली ने कहा इसकी क़लम बाक़ी है
निदा फ़ाज़ली

कुछ रोज़ से हम सिर्फ़ यही सोच रहे हैं
अब हम को किसी बात का ग़म क्यों नहीं होता
शहरयार

मैं दुनिया के मेयार पे पूरा नहीं उतरा
दुनिया मेरे मेयार पे पूरी नहीं उतरी.
मैं झूठ के दरबार में सच बोल रहा हूँ,
हैरत है कि सर मेरा क़लम क्यों नहीं होता.
मुनव्वर राना

इक अमीर शख़्स ने हाथ जोड़ के पूछा एक ग़रीब से
कहीं नींद हो तो बता मुझे कहीं ख़्वाब हों तो उधार दे.
आग़ा सरोश

हिंदी शब्दों से कुछ ख़ास लगाव हैः फ़हमीदा रियाज़

भारत में जन्मी और पाकिस्तान में पली-बढ़ी फ़हमीदा रियाज़ ने शायरी, कहानी, उपन्यास और अनुवाद यानी साहित्य की जिस विधा में हाथ आज़माया, शोहरत पाई.
लेखन के अलावा वो महिलाओं के हक़ की लड़ाई में भी हमेशा आगे रहीं. उर्दू के साथ ही उन्हें फ़ारसी, सिंधी और अंग्रेज़ी भाषा में भी महारत हासिल है. कुछ अरसा पहले उनसे मुलाक़ात हुई और प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के कुछ प्रमुख अंश:

आप हमेशा अपनी बेबाक शायरी और आज़ाद ख़्याली की वजह से ख़बरों में रही हैं, कैसा लगता है आपको?

भई जिस तरह की शायरी मैंने की थी उस तरह की शायरी का उस वक़्त बहुत ज्यादा विरोध हुआ था लेकिन अब तो लोग उन तमाम चीजों को पसंद कर रहें हैं. जैसे मैंने वह नज़्म लिखी थी "तुम बिलकुल हम जैसे निकले." उस वक़्त इस पर इतना हंगामा हुआ था लेकिन इस बार जब मैं हिन्दुस्तान आई तो यही नज़्म लोगों ने मुझ से बार-बार सुनना चाही. तो मुझे ख़ुशी है कि मैं ऐसे दौर में ज़िंदा हूँ कि जिसमें मैंने जो कहा और लिखा उसकी कामयाबी देखते हुए इस दुनिया से जाऊँगी.

आपकी शायरी में हिंदी के शब्द काफी नज़र आते है उसकी क्या वजह है?

इसकी बड़ी अजीब सी वजह है. चूकि हम सिंध में रहते है और सिंध की अपनी ज़ुबान सिंधी है. क्योंकि यहां पहले अरब आए थे इसलिए इस भाषा में फारसी से ज़्यादा अरबी के शब्द मिलते है और साथ ही फ़ारसी और संस्कृत जैसे वह शब्द भी जिसे आप लोग हिंदी कहते हैं.

हम मुहाजिरों की कोशिश और बुनियादी ख़्वाहिश यह थी कि हम लोग अपनी ज़ुबान को सिंधी की तरफ़ ले जाएँ. हालांकि पहले पाकिस्तान की सरकारी पॉलिसी इन हिंदी शब्दों को नज़र अंदाज़ करने की थी जिसका बड़ा विरोध हुआ कि भई आप हमारी ज़ुबान से यह शब्द किस तरह निकाल सकते है--

हम तो इसका इस्तेमाल करेगें. दूसरी ख़ास वजह यह है कि यह शब्द मुझे बेहद ख़ूबसूरत और अच्छे लगते है और दिल में इनके लिए एक ख़ास मुहब्ब्त और जगह है.

लेकिन हिंदी शब्दों के इस्तेमाल पर पाकिस्तान के साहित्यिक हलक़ों की और आम लोगों की प्रतिक्रिया क्या रही?

ख़ुशक़िस्मती से मुझे किसी तरह के सवालो का सामना नहीं करना पड़ा. और देखिए यह अदब है और अदब में मैं ही अकेली नहीं. हमारे यहां जमीलउद्दीन आली है उन्होंने हमेशा दोहे लिखें और हिंदी में ही लिखते रहे. इसके अलावा फैज़ की शायरी को देखिए,

'उठो माटी से अब जागो मेरे लाल,
तूना तुमरा राग पड़ा है
देखो कितना काज पड़ा है.
बैरी बिराजे राज सिंहासन
तुम माटी में लाल'

तो यह फैज़ है.अब अपनी कहूँ तो हिंदुस्तान आने से पहले मुझे हिंदी पढ़नी आती भी नहीं थी. मेरी तमाम हिंदी वाली शायरी हिंदुस्तान आने से पहले की शायरी हैं.

महिला लेखिका होने के नाते क्या दिक़्क़ते पेश आई?

बेइन्तेहा दिक़्क़ते आईं. औरत का किसी भी विषय पर मुंह खोलना नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त बात थी.हमारे समाज में और हिन्दुस्तान में भी हालात वैसे ही है कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है.सबसे बड़ी दिक्क़त तो यह थी कि आलोचक, महिला लेखिका के काम को गंभीरता से नही लेते थे.

दूसरे उन्हें वो मुक़ाम या दर्जा नहीं दिया जाता जिसकी वह हक़दार है. तीसरे फौरन उनके किरदार को निशाना बनाया जाता है. मंटो ने जो कुछ लिखा उस पर उनके चरित्र को निशाना नहीं बनाया गया...लेकिन इस्मत चुग़ताई पर चरित्रहीनता का आरोप लगा दिया गया.

हमने तो इसके लिए लड़ाई भी लड़ी. बाक़ायदा एक मंच बनाया गया और एक किताब भी लिखी गई. 'रिकंस्ट्रक्शन आफ़ मेल रायटर्स पर्सेपशन अबाउट फ़ीमेल'. अर्थात 'महिलाओं के बारे में पुरूष लेखकों के नज़रिए की पुनर्रचना' जिसमें पहली बार महिला लेखिकाओं ने पुरूष लेखकों के साहित्य की समीक्षा की. मैंने ख़ुद उर्दू के बड़े समझे जानेवाले कहानीकार एम राशिद की कहानियों की समीक्षा की थी और लिखा था कि उनकी कहानियों में औरत का मतलब गोश्त के सिवा और कुछ भी नहीं है.

हिंदुस्तानी साहित्य के बारे में आप क्या सोचती हैं?

आज़ादी के फौरन बाद हिंदी साहित्य मे कोई जान दिखाई नहीं पड़ रही थी. तब वहां मंटो या इस्मत चुग़ताई की तरह का साहित्यकार दिखाई नहीं पड़ता था. जबकि तब पाकिस्तान में अच्छा अदब लिखा जा रहा था. लेकिन अब तस्वीर बदल गई है. इसमें कोई शक नहीं कि हिंदुस्तान का साहित्य बड़ी-बड़ी ज़ुबानों का साहित्य है.

बहुत अच्छी कहानियां और उपन्यास नई सोच और नई थीम के साथ देखने को मिल रहे हैं. हालांकि सब कुछ हर वक़्त पढ़ने को नहीं मिल पाता.बल्कि इस ओर उठे जो सुस्त क़दम हैं उनमें तेज़ी लाई जाए ताकि वहां की किताबें और मेगज़ीन यहां और वहां की यहां आसानी से मिल जाएँ.

पाकिस्तान की फ़ौजी हुकूमतों ने आपको हमेशा परेशान किया. तो परवेज़ मुशर्रफ़ के दौर में आपको किन दुश्वारियों से गुज़रना पड़ रहा है?

जनरल ज़िया उल हक़ के दौर में मुझे भारत भागना पड़ा था. मैं 1980 से लेकर 1987 तक यानी पूरे सात साल भारत में रही. मैं हमेशा फ़ौजी हुकूमतों के ख़िलाफ़ रही हूँ. लेकिन यह सच है कि परवेज़ मुशर्रफ़ ने बुद्धिजीवियों को काफ़ी खुला माहौल दिया है. इसीलिए तमाम लिबरल उनके साथ रहे हैं.

पिछले दिनों यहाँ से एक लेखिका पाकिस्तान गई थीं तब उनसे उनकी मां ने लाहौरी नमक लाने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी. आप भारत में पैदा हुई हैं तो अपनी मिट्टी की कौन सी चीज़ आपको सबसे ज़्यादा पसंद है?

भई मैं तो मेरठ में पैदा हुई हूँ तो मुझे तो मेरठ की गज़क बेहद पसंद है. उसके बाद मथुरा के पेड़े और आगरा का पेठा है.