Wednesday, April 23, 2008

दृष्टिहीन लोगों के लिए इलेक्ट्रॉनिक आँखें


जापान के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी इलेक्ट्रॉनिक आँख बनाई है, जिसकी मदद से दृष्टिहीन बिना किसी परेशानी के घूम-फिर सकेगें.
भौतिकविज्ञान संस्थान में किए गए एक शोध के अनुसार यह आँख चश्मे पर जड़ी होगी, जिसे पहन कर बिना किसी की सहायता के सड़क पार की जा सकेगी.
इस इलेक्ट्रॉनिक आँख में एक कैमरा और कम्पयूटर लगा होगा जो ट्रैफिक लाईट के बदलते रंगों को बताने और सड़क की चौड़ाई नापने जैसे काम कर सकेगा.
इस तरह से इक्कठा की गई जानकारी को ध्वनि आधारित व्यवस्था के ज़रिए पहनने वाले तक पहुँचाया जाएगा.
क्योटो प्रौद्योगिकी संस्थान के प्रमुख वैज्ञानिक तादायोशी शिओयामा का कहना है, “ कैमरा आँखों के पास लगा होगा और एक बहुत छोटा कम्पयूटर उससे जुड़ा रहेगा, जो सारी सूचनाएँ और निर्देश कान के नज़दीक लगे स्पीकर पर दृष्टिहीनों को देगा.“
यह आँख इतनी उन्नत है कि इससे न सिर्फ़ पैदल पार-पथ या ज़ैब्रा क्रॉसिंग का पता लगाया जा सकेगा बल्कि सड़क की चौड़ाई को भी पूरी तरह से नापा जा सकेगा, इसके साथ ही यह आँख, लाल से हरी होती हुई ट्रैफिक लाईट के बारे में भी बता सकेगी.
पैदल पार-पथ की लम्बाई नापने के लिए यह आँख प्रक्षेपीय रेखागणित का सहारा लेती है.
कैमरे का कमाल
कैमरा आँखों के पास लगा होगा और एक बहुत छोटा कम्पयूटर उससे जुड़ा रहेगा, जो सारी सूचनाएँ और निर्देश कान के नज़दीक लगे स्पीकर पर दृष्टिहीनों को देगा

तादायोशी शिओयामा, वैज्ञानिक

इस आँख में लगा हुआ कैमरा ज़ैब्रा क्रॉसिंग की सफेद पट्टियों के चित्र उतारता है और फिर चित्र के ज्यामितिक आकार के आधार पर वास्तविक दूरी का पता लगा लिया जाता है.
सड़क पर ज़ैब्रा क्रॉसिंग है भी या नहीं यह जानने के लिए चित्र में सफेद पट्टियों की चौड़ाई और उनके बीच की दूरी की गणना की जाती है.
शोधकर्ताओं द्वारा इलेक्ट्रॉनिक आँख पर किए गए परीक्षणों के दौरान,पाँच प्रतिशत से भी कम की ग़लती सामने आई.196 बार किए गए परीक्षणों के दौरान यह तरीका केवल दो बार ही ग़लत साबित हुआ, जब इलेक्ट्रॉनिक आँख ने ज़ैब्रा क्रॉसिंग के होते हुए भी यह बताया कि वहाँ ज़ैब्रा क्रॉसिंग नहीं है.
दृष्टिहीनों के रॉयल नेशनल इंस्टीट्यूट की कैथरीन फिप्पस का मानना है, "दृष्टिहीनों और आंशिक रुप से अंधे व्यक्तियों के लिए चलना फिरना एक गंभीर समस्या है, और इस तरह के नए उपकरण हमेशा ही स्वागतयोग्य होते हैं जिनकी मदद से ऐसे लोग बिना परेशानी घूम-फिर सकें.".

'मोबाइल घटा रहा है मर्दानगी'


शोधकर्ताओं का कहना है कि मोबाइल फ़ोन का अधिक इस्तेमाल करने वाले पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या घट रही है जो सीधे तौर पर प्रजनन क्षमता को प्रभावित करती है.
मुंबई के अस्पतालों में संतानोत्पति में नाकाम होने के बाद अपना इलाज़ करा रहे 364 पुरूषों पर हुए अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला है.
यह शोध ओहियो के क्लीवलैंड क्लिनिक फाउंडेशन की ओर से हुआ है और इसके निष्कर्ष अमरीका के 'सोसाइटी ऑफ रिप्रोडक्टिव मेडिसिन' को सौंप दिए गए हैं.
शोधकर्ताओं के मुताबिक एक दिन में चार घंटे या इससे अधिक देर तक मोबाइल का इस्तेमाल करने वाले पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या कम पाई गई और बचे हुए शुक्राणुओं की हालत भी ठीक नहीं थी.
हालाँकि ब्रिटेन के एक विशेषज्ञ का कहना है कि प्रजनन क्षमता में कमी के लिए मोबाइल को दोष देना ठीक नहीं है क्योंकि वह पुरूषों के जननांगों के निकट नहीं होता.
शोध
शोध के मुताबिक जो लोग दिन में चार घंटे से अधिक मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करते थे उनमें शुक्राणुओं की संख्या प्रति मिलीलीटर पाँच करोड़ पाई गई जो सामान्य आँकड़े से काफी कम है.
जो लोग दो से चार घंटे तक मोबाइल फ़ोन से बात करते थे उनमें प्रति मिलीलीटर शुक्राणुओं की संख्या लगभग सात करोड़ आँकी गई.
जिन लोगों ने बताया कि वे मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल ही नहीं करते हैं, उनमें यह संख्या लगभग साढ़े आठ करोड़ थी और उनके शुक्राणु काफी स्वस्थ हालत में सक्रिय पाए गए.
चेतावनी
शोधकर्ताओं की टीम का नेतृत्व करने वाले डॉ अशोक अग्रवाल कहते हैं कि अभी इस मामले पर और अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है.
वो कहते हैं, "लोग मोबाइल का इस्तेमाल बेधड़क करते जा रहे हैं. बिना ये सोचे कि इसके परिणाम क्या होंगे."
डॉ अग्रवाल का कहना है कि मोबाइल से होने वाला विकिरण डीएनए पर बुरा असर डालता है जिससे शुक्राणु भी प्रभावित होते हैं.

लैपटॉप से पुरुषों को ख़तरा!


लैपटॉप का इस्तेमाल करने वाले पुरुष सावधान. जानकारों का मानना है कि लैपटॉप का इस्तेमाल करने वाले पुरुष अनजाने में अपनी प्रजनन क्षमता को नुक़सान पहुँचा रहे हैं.
स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क में हुए शोध के बाद विशेषज्ञों का कहना है कि अपनी गोद में इस कंप्यूटर को रखने के कारण अंडकोष का तापमान बढ़ जाता है और इससे शुक्राणु निर्माण पर नकारात्मक असर पड़ता है.
यह शोध ह्यूमन रिप्रोडक्शन नामक पत्रिका में छपा है. अमरीकी शोधकर्ताओं का कहना है कि लैपटॉप की बढ़ती लोकप्रियता के कारण इस पर और शोध की आवश्यकता है.
इस समय दुनियाभर में क़रीब 15 करोड़ लोग लैपटॉप का इस्तेमाल करते हैं.
स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क के शीर्ष शोधकर्ता डॉक्टर येफ़िम शेईकिन ने इस शोध के बारे में बताया, "लैपटॉप के अंदर का तापमान 70 डिग्री सेंटीग्रेड से भी ज़्यादा तक पहुँच जाता है."
उन्होंने बताया कि लैपटॉप को संतुलित ढंग से रखने के लिए लोग अपनी दोनों जांघों को काफ़ी क़रीब लाते हैं और इस स्थिति में पुरुषों का अंडकोष जांघों के बीच दब जाता है.
अंडकोष लैपटॉप के काफ़ी क़रीब होता है और इस कारण लैपटॉप का तापमान सीधा अंडकोष तक पहुँचता है.
शोध
इस शोध में 21 से 35 वर्ष की आयु के बीच के 29 स्वस्थ पुरुषों ने हिस्सा लिया. शोधकर्ताओं ने एक घंटे के दौरान लैपटॉप के कारण अंडकोष के तापमान में बदलाव को रिकॉर्ड किया.
इस दौरान कई बार उनके बैठने का तरीक़ा बदला गया. शोधकर्ताओं ने पाया कि अपनी जांघों के बीच लैपटॉप को संतुलित रखने के दौरान उनके अंडकोष का तापमान 2.1 सेंटीग्रेड बढ़ गया.
जब इन पुरुषों ने अपनी जांघ के बीच लैपटॉप रखा तो उनके बाएँ अंडकोष का तापमान 2.6 डिग्री सेंटीग्रेड और दाएँ अंडकोष का तापमान 2.8 डिग्री सेंटीग्रेड औसतन बढ़ा पाया गया.
डॉक्टर शेईकिन ने बताया कि सामान्य तौर पर शुक्राणु के निर्माण और विकास के लिए शरीर को अंडकोष में एक उपयुक्त तापमान की ज़रूरत होती है.
उन्होंने कहा कि अभी इसकी जानकारी नहीं है कि कितने समय और कितने बार इस तरह के तापमान बदलाव से शुक्राणु निर्माण की प्रक्रिया पर असर पड़ता है.
हालाँकि डॉक्टर शेईकिन ने यह स्पष्ट किया कि पहले के अध्ययन बताते हैं कि उपयुक्त तापमान से एक डिग्री सेंटीग्रेड तक की बढ़ोत्तरी से कोई ख़ास असर नहीं होता लेकिन लगातार तापमान में होने वाले बदलाव के कारण मुश्किलें पेश आ सकतीं हैं.
उनका कहना है कि लैपटॉप को अपनी जांघों के बीच रखकर बार-बार इस्तेमाल करने से स्थायी रूप से नुक़सान हो सकता है.
डॉक्टर शेईकिन ने सलाह दी कि जब तक इस विषय पर और शोध नहीं होते बच्चों और युवकों को अपनी गोद में रखकर इनके इस्तेमाल से बचना चाहिए.

माँ के खान-पान का असर बच्चे पर




गर्भकाल में माँ के खानपान की आदतें संतान के लिंग निर्धारण में अहम भूमिका निभा सकती है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि ज़्यादा कैलोरी वाले भोजन के साथ ही नियमित अंतराल पर नाश्ता करते रहने से लड़का पैदा की संभावना बढ़ सकती है.
विकसित देशों में गर्भवती महिलाएँ कम कैलरी वाले भोजन को अपना रही हैं जिसे लड़कियों की बढ़ती आबादी से जोड़कर देखा जा रहा है.
अध्ययन के लिए ब्रिटेन की 740 ऐसी महिलाओं को चुना गया जो पहली बार माँ बनने जा रही थीं.
शोधकर्ताओं ने इन महिलाओं से गर्भधारण के पहले और उसके शुरुआती दौर में खानपान की उनकी आदतों के बारे में जानकारी माँगी.
शोधकर्ताओं ने पाया कि गर्भकाल में अधिक कैलोरी वाला भोजन लेने वाली 56 फ़ीसदी महिलाओं को लड़का हुआ जबकि कम कैलोरी के आहार लेने वाली मात्र 46 फ़ीसदी महिलाओं को लड़का पैदा हुआ.
घटते लड़के
जिन महिलाओं के लड़के हुए उन्होंने आम तौर पर पोटाशियम, कैल्शियम, विटामिन सी, ई और बी12 जैसे तत्वों से भरे कई तरह के पोषक आहारों की ज़्यादा मात्रा ली थी.
देखा
gayaa है कि औरतों के खानपान में थोड़ा सा बदलाव भी औलाद की पूरी ज़िदगी के स्वास्थ्य पर असर डाल सकता है इसलिए गर्भधारण और गर्भकाल के दौरान समुचित आहार लेना महत्वपूर्ण है

इन महिलाओं ने नियमित रूप से नाश्ते में अनाज भी लिया था.
पहले के अध्ययनों में भी यह बात सामने आई थी कि विकसित देशों में लोग कम कैलरी वाले भोजन ले रहे हैं. इन देशों में ऐसे लोगों की तादाद काफ़ी अधिक है जो नाश्ता करते ही नहीं हैं.
वैज्ञानिकों ने यह पहले से पता लगा रखा है कि जानवरों में भी अगर माँ को प्रचुर भोजन मिले तो नर संतान पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है.
खाना
शोधों से यह भी ज्ञात है कि ग्लूकोज की ज़्यादा मात्रा नर भ्रूण के विकास में मदद पहुँचाता है लेकिन मादा भ्रूण के विकास को रोकता है.
नाश्ता न करने से ग्लूकोज का स्तर घटता है और इसका असर बच्चे पर भी पड़ सकता है.
शेफ़ील्ड यूनिवर्सिटी के डॉ. एलेन पैसी कहते हैं कि इस बात के काफ़ी सबूत हैं कि बदली हुई परिस्थितियों में प्रकृति के पास किसी आबादी में लिंग अनुपात बदलने के कई तरीक़े हैं.
हालाँकि वे कहते हैं, "महिलाओं से मेरी अपील है कि वो अपने होने वाले बच्चे के लिंग को प्रभावित करने के लिए भूखे रहने या अधिक खाने की शरुआत न करें."
पैसी बताते हैं, "कुछ जानवरों के अध्ययन में देखा गया है कि औरतों के खानपान में थोड़ा सा बदलाव भी औलाद की पूरी ज़िदगी के स्वास्थ्य पर असर डाल सकता है. इसलिए गर्भधारण और गर्भकाल के दौरान समुचित आहार लेना महत्वपूर्ण है."