Wednesday, October 22, 2008

वैज्ञानिकों ने बनाया सबसे ज्यादा सुकून वाला कमरा


Dingal Times!
कमरे में लगे बल्ब सिर्फ रोशनी देने का काम ही नहीं करेंगे। इनके उजाले से कंप्यूटर और फोन ही नहीं, कारों
को भी इंटरनेट से जोड़ा जा सकेगा। सुनकर भले ही अजीब लगे, मगर यह जल्द ही हकीकत में बदलने वाला है। अब तक रिमोट कंट्रोल से टीवी या डीवीडी प्लेयर को ऑपरेट किया जाता रहा है। मगर अब खास वायरलेस सिस्टम से तकरीबन हर जगह पर इंटरनेट कनेक्शन किया जा सकेगा। अमेरिका की बॉस्टन यूनिवर्सिटी के कंप्यूटर इंजीनियर थॉमस लिटिल कहते हैं कि लाइटिंग वाली हर जगह पर इंटरनेट कनेक्शन से कम्यूनिकेशन को काफी आसान बनाया जा सकेगा।

जैसे ही आप बल्ब का स्विच ऑन करेंगे, जहां-जहां लाइट होगी, वहां रखे कंप्यूटर या फोन में इंटरनेट नेटवर्क सक्रिय हो जाएगा। हालांकि, यह साधारण बल्ब नहीं होंगे। इसके लिए एलईडी (लाइट एमिटिंग डायोड) बल्बों का इस्तेमाल किया जाएगा। यह बल्ब बिजली की कम खपत करेंगे और बहुत लंबे समय तक चलेंगे।

लाइट से कम्यूनिकेशन

रोशनी के जरिए संचार कोई नई बात नहीं है। रोमन एक-दूसरे से संपर्क करने के लिए आग का इस्तेमाल करते थे। समुद्र में बने लाइट हाउस जहाजों को आने-जाने का रास्ता तलाशने में काफी समय से मदद करते रहे हैं। फिलहाल वायरलेस कम्यूनिकेशन रेडियो तरंगों के जरिए अपना रास्ता तय करता है। लेकिन अब रोशनी के जरिए कम्यूनिकेशन की संभावना तलाशी जा रही है। हाल ही में नासा और अमेरिकी आर्मी ने हाई स्पीड लेजर के जरिए कम्यूनिकेशन पर रिसर्च शुरू की है। लिटिल कहते हैं कि अलग-अलग तरह की वायरलेस डिवाइस के लिए अलग-अलग फ्रीक्वेंसी पर रेडियो तरंगें छोड़ी जाती हैं।

इनकी संख्या काफी ज्यादा होने के कारण इनका एक जाल सा बन जाता है, जिसमें एक फ्रीक्वेंसी का दूसरी फ्रीक्वेंसी की तरंगों में मिलने की आशंका पैदा हो जाती है। नेटवर्क भी बहुत तेज नहीं रह पाता। इसके उलट, लाइट से नेटवर्किन्ग तरंगों की इस भीड़ से अलग होगी। यह सीधी खास यूजर और डिवाइस तक नेटवर्क पहुंचाएगी। यह तरीका ज्यादा सेफ भी होगा।

ग्रीन वायरलेस नेटवर्क

लिटिल और उनके साथी रिसर्चरों ने एलईडी बल्बों के जरिए वायरलेस रूट पर प्रयोग शुरू कर दिया है। योजना के अगले चरण में दुनिया में एलईडी बल्बों का प्रसार बढ़ाया जाना है। इन बल्बों में ऊर्जा की खपत काफी कम होती है। एलईडी कंप्यूटर स्क्रीन से लेकर ट्रैफिक लाइटों तक बहुत सी जगह दिखाई देते हैं। हालांकि, एलईडी बल्बों का घरों में इस्तेमाल शुरू होने में थोड़ा वक्त लग सकता है क्योंकि यह काफी महंगा है। फिलहाल एक बल्ब की कीमत 30 डॉलर (करीब 1300 रुपये) है। हालांकि, यह आम बल्बों की तुलना में 50 गुना ज्यादा समय तक चलता है।

स्मार्ट हाउस, स्मार्ट कार

यह प्रयोग अमेरिका के शहरों में सस्ता वायरलेस नेटवर्क देने तक ही सीमित नहीं है। लिटिल लगभग हर चीज को स्मार्ट तरीके से वायरलेस सिस्टम से जोड़ने का मकसद लेकर चल रहे हैं। इसका इस्तेमाल वीइकल्स में भी किया जा सकता है। लिटिल कहते हैं कि ऑटो इंडस्ट्री में यह बेहद कारगर होगा। अमेरिका के कई स्टेट की सरकारें लिटिल की इस योजना में आर्थिक मदद दे रही हैं। 

एजुकेशनल लोन से अरमानों की उड़ान


Dingal Times!
अगर आप हायर एजुकेशन का सपना देख रहे हैं, लेकिन उसे हकीकत में बदलने के लिए आपके पास रिसोर्सेज़ की कमी है, तो चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। आप अपने डिग्री या डिप्लोमा कोर्स के लिए बैंक से लोन ले सकते हैं। बस, इसके लिए आपको कुछ शर्त पूरी करनी होंगी।

बात चाहे विदेश में पढ़ाई की हो या देश में महंगे तकनीकी कोर्स करने की, इन पर आने वाले खर्च को वहन करना हर किसी के बस की बात नहीं होती। इस मर्ज का इलाज है, एजुकेशनल लोन। यूं तो पब्लिक सेक्टर के बैंक ही हायर एजुकेशन के लिए लोन देते हैं, लेकिन कुछ प्राइवेट बैंकों ने भी यह सुविधा स्टूडेंट्स को दी है। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, सरकार ऐसी स्कीम लाने जा रही है, जिससे हायर स्टडीज पूरी करने तक स्टूडेंट्स को लोन पर ब्याज भी नहीं देना पड़ेगा।

एचआरडी मिनिस्ट्री ने इसके लिए चार करोड़ रुपये का बजट रखा है। 2012 में खत्म होने वाली 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत ही यह राशि दे दी जाएगी।

भारत में पढ़ाई

आप कोई भी सिक्युरिटी या मार्जिन मनी दिए बिना बैंक से चार लाख रुपये तक का एजुकेशनल लोन ले सकते हैं। इसके अलावा, आपको थर्ड पार्टी की गारंटी पर चार से सात लाख तक का लोन मिल सकता है। इसमें पांच फीसदी की मार्जिन मनी वसूली जाती है। थर्ड पार्टी की गारंटी आपके किसी रिश्तेदार, पड़ोसी या दोस्त को देनी पड़ती है।

विदेश का सपना

विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए फिक्स्ड डिपॉजिट, एनएससी सर्टिफिकेट या प्रॉपर्टी के अगेंस्ट सात लाख या उससे ज्यादा का कर्ज ले सकते हैं। इसमें 15 पर्सेन्ट का मार्जिन अमाउंट भी होगा यानी आपका जितना लोन मंजूर हुआ है, बैंक उससे 15 फीसदी कम राशि आपको देगा। केंद्र सरकार इस तरह के लोन पर दो प्रतिशत की सब्सिडी बैंकों को देती है।

लोन लेने के लिए जरूरी दस्तावेज

- आपके लास्ट एग्जामिनेशन की मार्कशीट।

- कोर्स में ऐडमिशन का प्रूफ।

- कोर्स के लिए खर्च का ब्यौरा।

- अगर आपको स्कॉलरशिप मिली है, तो उसका कंफर्मेशन लेटर देना जरूरी है।

- अगर फॉरेन एक्सचेंज परमिट जरूरी है, तो उसकी कॉपी होनी चाहिए।

- दो पासपोर्ट साइज फोटोग्राफ।

- लोन लेने वाले स्टूडेंट या उसकेपैरंट्स के छह महीने का बैंक अकांउट स्टेटमेंट।

- इनकम टैक्स असेसमेंट ऑर्डर।

- कर्ज लेने वाले की कुल प्रॉपर्टी और उसकी जिम्मेदारियों का ब्रीफ स्टेटमेंट।

सरकार की योजना

केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) और इंडियन बैंक्स असोसिएशन (आईबीए) से सलाह-मशविरा करके कॉम्प्रिहेंसिव एजुकेशनल लोन स्कीम तैयार की है। इस स्कीम में सभी तरह के कोर्सेज़ को कवर किया गया है, जिनमें प्रफेशनल कोर्स भी शामिल हैं।

इसके तहत, भारत में शिक्षा लेने के लिए साढ़े सात लाख और विदेश में पढ़ने के लिए 15 लाख रुपये तक का लोन दिया जाता है। इस लोन का भुगतान पांच से सात साल की अवधि में करना जरूरी है। पढ़ाई खत्म होने के बाद कर्ज चुकाने के लिए एक साल का ग्रेस पीरियड मिलता है। यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमिशन (यूजीसी) ने कॉलेज और यूनिवर्सिटीज को मेधावी और जरूरतमंद छात्रों को आसान शर्त पर फाइनैंशल हेल्प देने के लिए भी प्रोत्साहित किया है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने एजुकेशनल लोन संबंधी गाइड लाइंस कमर्शल बैंकों को जारी की हुई हैं।

ब्याज की दरें

आमतौर पर सभी नैशनलाइज्ड बैंक और प्राइवेट बैंक 11-15 प्रतिशत की ब्याज दर पर ऋण देते हैं। इलाहाबाद बैंक करीब 11.75-12.5 प्रतिशत दर पर लोन देता है। कोर्स पूरा होने के एक साल बाद या जॉब मिलने के छह महीने के भीतर (जो भी जल्दी हो) कर्ज लौटाना होता है। यह लोन स्कूल, कॉलेज, हॉस्टल, एग्जामिनेशन और लाइब्रेरी फीस देने और किताबें, साइंटिफिक इक्विप्मेंट खरीदने और स्टडी टूर, प्रोजेक्ट वर्क और थीसिस के लिए दिया जाता है।

इसी तरह, आंध्रा बैंक 13.75 प्रतिशत, बैंक ऑफ बड़ौदा 14 फीसदी और बैंक ऑफ इंडिया 11.25-12.25 पर्सेन्ट की दर से स्टूडेंट्स को लोन देता है। बैंक ऑफ महाराष्ट्र से स्टूडेंट्स 12.75 फीसदी की दर पर लोन ले सकते हैं।

प्राइवेट एजुकेशन लोन

प्राइवेट एजुकेशन लोन को अल्टरनेटिव लोन भी कहा जाता है। आजकल देश और विदेश में हायर एजुकेशन काफी महंगी हो गई है। इस तरह के लोन बैंक से लिए गए लोन और एजुकेशन की एक्चुअल कॉस्ट के अंतर को कम करते हैं। इस तरह के लोन आप प्राइवेट लेंडर्स से ले सकते हैं। कुछ लोग प्राइवेट एजुकेशनल लोन के लिए इसलिए अप्लाई करते हैं, क्योंकि उन्हें बैंक से अपनी जरूरत का पूरा अमाउंट नहीं मिल पाता या वे री-पेमेंट की शर्त को आसान बनाना चाहते हैं। हालांकि इस तरह का कर्ज सरकारी लोन की तुलना में महंगा पड़ता है, लेकिन क्रेडिट कार्ड की उधारी से कहीं अधिक सस्ता है।  

Saturday, October 18, 2008

दिमाग़ के लिए अच्छा' है इंटरनेट

Dingal News!
कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के एक शोध से संकेत मिले हैं कि इंटरनेट के इस्तेमाल से अधेड़ उम्र के लोगों और बुज़ुर्गों की दिमाग़ी ताकत बढ़ाने में मदद मिल सकती है.

शोधकर्ताओं के एक दल ने पाया कि इंटरनेट पर वेब सर्च करने से निर्णय लेने की प्रक्रिया और जटिल तर्कों को नियंत्रित करने वाले दिमाग़ के हिस्से सक्रिय हो जाते हैं.

शोधकर्ताओं का कहना है कि इससे आयु संबंधी उन मनोवैज्ञानिक बदलावों के मामलों में भी मदद मिल सकती है जिससे दिमाग़ की कार्य करने की गति धीमी हो जाती है.

यह अध्ययन 'अमेरिकन जर्नल ऑफ़ गेरियाट्रिक साइकेट्री' में प्रकाशित हुआ है.

जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, दिमाग़ में कई बदलाव आने लगते हैं.

इन बदलावों में कोशिकाओं का संकुचन और उनकी सक्रियता में कमीं आना भी शामिल है जो किसी व्यक्ति की कार्य कुशलता को प्रभावित कर सकते हैं.

वेब सर्फ़िंग

लंबे समय से इस पर माना जा रहा है कि वर्ग पहेली (क्रॉसवर्ड पज़ल) जैसी दिमाग़ी क़सरतों से दिमाग़ सक्रिय बना रहता है. इससे बढ़ती उम्र के कारण दिमाग़ पर पड़ने वाले असर को कम करने में मदद मिल सकती है.

नवीनतम अध्ययन से संकेत मिला है कि इस सूची में वेब सर्फिंग को भी शामिल किया जा सकता है.

मुख्य शोधकर्ता प्रोफेसर गैरी स्मॉल का कहना है, "अध्ययन के नतीज़े उत्साहवर्धक हैं. उभरती कम्प्यूटर तकनीकों का मनोवैज्ञानिक असर हो सकता हैं. इससे वयस्कों, अधेड़ लोगों और बुज़ुर्गों को लाभ मिल सकता है."

 रोज़ाना वेब सर्च जैसा एक साधारण कार्य बुज़ुर्गों के दिमाग़ को दुरूस्त रखता है.
 
गैरी स्माल, प्रोफ़ेसर, कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय

उनका कहना है, "इंटरनेट पर सर्च करने के लिए दिमाग़ को जटिलता से इस काम में जुटना पड़ता है. यह दिमाग़ी करसत में मदद कर सकता है और इससे दिमाग़ की कार्य कुशलता में सुधार होता है."

नवीनतम अध्ययन 55 से 76 आयुवर्ग के 24 लोगों पर किए शोध पर आधारित है. इनमें से आधे लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते थे जबकि बाक़ी लोगों इससे दूर थे.

क़िताब पढ़ने और इंटरनेट पर सर्च करने के दौरान इन लोगों का ब्रेन स्कैन किया गया.

दोनों ही कार्यों से दिमाग़ के उस हिस्से में उल्लेखनीय गतिविधियाँ दर्ज की गईं जो भाषा, अध्ययन, स्मृति और दृश्य क्षमताओं को नियंत्रित करती हैं.

वेब सर्च करने के दौरान दिमाग़ के अलग-अलग हिस्सों में अतिरिक्त उल्लेखनीय गतिविधियाँ देखी गईं जो निर्णय लेने की प्रक्रिया और जटिल तार्किकता को नियंत्रित करती हैं. वेब सर्च नहीं करने वालों के दिमाग़ में ऐसी कोई हलचल नहीं पाई गई.

आदिलाबाद की बहादुर तुलजाबाई

Dingal News!
आंध्र प्रदेश का आदिलाबाद ज़िला पिछले दिनों मानवता के एक विकृत चेहरे का गवाह बना जब वहाँ दंगे भड़के, लेकिन इसी के बीच कुछ ऐसा भी हुआ जिससे ये लगता है कि तमाम विकृतियों के बावजूद मानवता जीवित है.
इस महीने दुर्गा विसर्जन जुलूस के दौरान सांप्रदायिक हिंसा भड़की और धर्म के नाम पर हमलों का सिलसिला शुरू हो गया. ऐसे में ही दंगाइयों ने एक मुस्लिम घर पर हमला किया और तब अपने पड़ोसियों की मदद के लिए एक हिंदू महिला दंगाईयों के सामने दीवार बनकर खड़ी हो गई.
घटना भैंसा शहर की है जहाँ के संवेदनशील पंजेशाह इलाक़े में उन्मादी असामाजिक तत्वों ने दूकानों और मकानों में आग लगा रहे थे. तुलजा बाई अपने घर की खिड़की से हिंसा का ये मंज़र देख रही थीं.
उन्मादी भीड़ ने तुलजा बाई के घर के सामने रहने वाले सैयद उस्मान के घर को निशाना बनाया और घर को आग के हवाले करने की कोशिश की.
लेकिन तुलजा बाई से यह देखा नहीं गया और वह दंगाईयों से जा भिड़ीं.
तुलजई बाई का साहस
उस हादसे के बारे में तुलजा बाई ने बताया, ''धुँआ निकलता देख मैं,मेरा बेटा और परिवार के अन्य सदस्य बाहर की ओर दौड़े. मैने देखा कि एक युवक उस घर से दौड़कर बाहर निकला. तब मुझे लगा कि परिवार घर के भीतर आग में फँसा हो सकता है.''तुलजा बाई ने बताया, ''मैं अपने परिवार के साथ घर के बाहर जमा भीड़ को पीछे धकेलने लगी. हम परिवार को बचाने के कोशिश कर रहे थे और भीड़ हम पर चिल्ला रही थी. मैंने उन्हें चुप रहने के लिए कहा और उन्हें बताया कि ये लोग हमारे पड़ोसी, हमारे भाई हैं.''
कुछ देर बाद तुलजा बाई और उसका परिवार, साफ़िया बेगम और उसके तीन बच्चों को घर से किसी तरह बाहर निकालने में सफल हो गए. तुलजा बाई, साफ़िया बेगम और उसके बच्चों को अपने घर ले आई.
तुलजा बाई ने बताया, ''अपने घर में उनकी सुरक्षा पुख़्ता करने के बाद हम घर की आग बुझाने के लिए पानी लेकर दौड़े. किस्मत से हमारे पास पर्याप्त पानी था और हमने ख़ुद आग पर क़ाबू पा लिया."
उन्मादी असामाजिक तत्वों ने तुलजा बाई के परिवार को आग बुझाने से रोका और बाल्टियाँ छीनने कोशिश की.
आगजनी और लूटपाट
हमारी सारी संपत्ति लुट गई लेकिन हम अपने हिंदू पड़ोसियों का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा करते हैं जिनके कारण मेरे परिवार के सदस्य आज जीवित हैं

सैयद मोहम्मद पाशा
इस घटना में सैयद परिवार के घर के भीतर रखे पतंगों के हज़ारों बंडल जलकर राख हो गए जो उनकी जीविका का सहारा था. फ़र्नीचर भी जल गया और रंगीन टेलीविज़न को टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया.
मगर सबसे बड़ा नुक़सान ये हुआ कि भीड़ ने उस्मान के बड़े भाई सैयद मोहम्मद पाशा की बेटियों की शादी लिए जुटाए कीमती गहनों और रूपयों को लूट लिया.
हैदराबाद के एक दैनिक में बतौर संवाददाता काम करने वाले पाशा ने बताया, '' हमारी सारी संपत्ति लुट गई लेकिन हम अपने हिंदू पड़ोसियों का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा करते हैं जिनके कारण मेरे परिवार के सदस्य आज जीवित हैं.''
तुलजा बाई और पाशा के पुरख़े पिछले 200 वर्षों से भैंसा के पंजेशाह इलाक़े में रहते आए हैं.
तुलजा बाई के बेटे ठाकुर रमेश सिंह ने कहा, '' हमेशा बाहरी लोग समस्या खड़ी करते हैं और स्थानीय लोगों को भोगना पड़ता है. ''
फ़िलहाल चाहे हिंदू हों या मुसलमान, हर वर्ग के लोग तुलजा बाई की वीरता और मानवता की सराहना कर रहे हैं.
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने तुलजा बाई को सांप्रदायिक वैमनस्यता फैलाने वाले लोगों के ख़िलाफ़ आशा की एक किरण बताया.
जाने-माने लोकगीत गायक और आंदोलनकारी ग़द्दार ने तुलजा बाई के घर पर जाकर उनकी बहादुरी की प्रशंसा की और उनके पैर छूकर उन्हें सम्मान दिया.

इज्ज़त बचाने के लिए सिर क़लम

Dingal News!
उत्तर प्रदेश में एक महिला ने अपनी इज्ज़त बचाने के लिए एक दबंग किस्म के कामुक युवक का सिर क़लम कर अपने को पुलिस के हवाले कर दिया.
मगर पुलिस ने इस महिला को पीड़ित मानते हुए उसे सम्मानपूर्वक घर भेज दिया क्योंकि पुलिस के अनुसार उसने आत्म रक्षा में पलटवार किया था.
घटना नेपाल सीमा से सटे लखीमपुर ज़िले के इसानगर थाने की है.
ग्राम हसनपुर कटौली के मजरा मक्कापुरवा में दलित राजकुमार और मनचले किस्म के जुलाहे अन्नू के घर अगल-बगल हैं.
अन्नू राजकुमार की पत्नी फूलकुमारी को अक्सर छेड़ता था. मगर कमजोर वर्ग का राजकुमार उसके विरोध का साहस नहीं कर पाता.
गुरुवार को फूलकुमारी जानवरों के लिए चारा लाने गयी थी. वह एक गन्ने के खेत में पत्ते तोड़ रही थी. तभी अन्नू वहाँ पहुँच गया और उसके साथ ज़बर्दस्ती करने लगा.
इज्ज़त बचाने के लिए हमला
बीबीसी से फोन पर बातचीत में फूलकुमारी ने कहा कि वह चारा काटने गई थी और उसने अपनी इज्ज़त और जान बचाने के लिए हमलावर पर वार किया था.
महिला का कहना था, ''हमने मार दिया. हम गए थे गन्ने की पत्ती लेने. तभी वह ज़बर्दस्ती लिपट गया. हमने किसी तरह उसका बांका छीन लिया और उसी से उसकी गर्दन उड़ा दी.''
स्थानीय अख़बारों ने प्रत्यक्षदर्शियों के हवाले से लिखा कि फूलकुमारी खून से लथपथ अन्नू का कटा हुआ सिर लिए हसनपुर कटौली पहुँची और वहाँ अपने को पुलिस के हवाले कर दिया. पुलिस वाले उसे थाने ले गए और उसने पूरा मामला बयान किया.
बीबीसी से बातचीत में फूलकुमारी ने इस बात से इनकार किया कि वह अन्नू का कटा हुआ सिर लेकर बाज़ार में गई. पुलिस का कहना है कि उसने अन्नू का कटा सिर धान के एक खेत से बरामद किया.
पुलिस ने फूलकुमारी की चिकित्सा जांच कराई और चौबीस घंटों की तहकीकात के बाद उसके घर वालों के हवाले कर दिया.
ज़िले के पुलिस कप्तान राम भरोसे ने बीबीसी से बातचीत में कहा, वह तो पीड़ित है और उसने अपने बचाव में ऐसा किया. उसने कोई ज़ुर्म नहीं किया.
पुलिस ने फूलकुमारी की रपट के आधार पर मृत युवक के ख़िलाफ़ बलात्कार, हत्या के प्रयास और उत्पीड़न का मामला दर्ज कर लिया.
पुलिस का कहना है कि मृत युवक के परिवार वालों ने अभी तक कोई मामला दर्ज नहीं कराया है.
एक स्थानीय पत्रकार का कहना है कि मृत युवक का चाल चलन अच्छा नहीं था.

Wednesday, October 15, 2008

हाथ मिलाने से ही रोग का पता

Dingal Times!
ज़रा कल्पना कीजिए कि आप अपने डॉक्टर के पास जाते हैं, उससे हाथ मिलाते हैं और बस आपकी बीमारी के बारे में सारी जानकारी उसे मिल जाती है.
इतना ही नहीं डॉक्टर के शरीर से यह जानकारी अपने आप ही कंप्यूटर में दाख़िल हो जाती है.
यानी अभी आप कुर्सी पर बैठे भी नहीं हैं कि आपके शरीर का अंदरूनी हाल डॉक्टर के पास पहुँच जाता है.
शरीर में तरह-तरह के संवेदनशील सूचक यानी चिप लगाए जा सकते हैं जिनमें आपकी नब्ज़ की रफ़्तार, पसीने में पाए जाने वाले तत्व और चिकित्सा संबंधी अन्य जानकारी मौजूद होगी.
इन चिपों के ज़रिए यह संभव हो सकता है कि आप अपने डॉक्टर से सिर्फ़ हाथ मिलाएँ और आपकी तबियत क्यों ख़राब है, इसकी जानकारी डॉक्टर को मिल जाए. आपको डॉक्टर को कुछ भी बताने की ज़रूरत न पड़े.
अब शायद ये बातें सच हो सकती हैं.
कंप्यूटर की अमरीकी फ़र्म माइक्रोसॉफ़्ट ने इसी क्षेत्र में पेटेंट हासिल किया है. यानी इन्सान के हाथ की उँगलियों से ले कर पैर के अँगूठे तक इन्सानी शरीर को कंप्यूटर में बदलने का पेटेंट.
अमरीकी पेटेंट संख्या 6754472 का शीर्षक है - 'मानवीय शरीर को इस्तेमाल करते हुए ऊर्जा और डाटा संचारित करने का तरीक़ा और मशीन.'
शरीर एक मशीन
इन्सानी शरीर में नसों और धमनियों का एक जाल बिछा हुआ है. इस जाल को इलेक्ट्रॉनिक सूचना के संचार के लिए आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है.
हमारे शरीर की त्वचा में बिजली की तरंग दौड़ाने की क्षमता है और यही क्षमता शरीर को कंप्यूटर की तरह इस्तेमाल करने में मददगार साबित होगी.
मिसाल के तौर पर आप का मोबाइल फ़ोन कमर की पेटी में लटका हुआ है, जिसमें घंटी बजती है जो किसी और को सुनाई नहीं देगी बल्कि आप के कानों में ठुसे हुए छोटे-छोटे स्पीकर उस घंटी की आवाज़ आपके कानों में पहुँचा देंगे.
आप एक ख़ास तरह की ऐनक पहने हुए हैं, उस टेलीफ़ोन के साथ अगर कोई तस्वीर आ रही है तो उस ऐनक पर वो तस्वीर आप को ख़ुद बा ख़ुद नज़र आ जाएगी.
ये मत समझिए कि ये सब कल्पना है. अब से छह साल पहले ब्रिटेन के रीडिंग विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर केविन वॉर्क ने अपनी बाँह में एक कंप्यूटर चिप दाख़िल कर ली थी.
वो जब किसी दरवाज़े के नज़दीक होते तो वो दरवाज़ा ख़ुद ब-ख़ुद खुल जाता और कमरे में उनके दाख़िल होते ही बत्ती जल जाती थी.
मशहूर पत्रिकार न्यू साइंटिस्ट ने अब से दो साल पहले लिखा था कि एक मरीज़ के धड़ का एक तरफ़ का हिस्सा फालिस से बेकार हो गया था और उसकी एक टाँग काम नहीं करती थी.
उसकी विकलाँग टाँग में एक छोटी सी चिप लगा दी गई जो उसकी सही टाँग से सिगनल लेकर बिल्कुल उसी तरह काम करने लगी जैसी सही टाँग काम करती है.
स्विट्ज़रलैंड के वैज्ञानिकों ने विकलांग लोगों के लिए एक ऐसा आला बना लिया था जिसकी मदद से उनकी विकलांगों वाली गाड़ी उनकी अपनी सोच का कहना मानते हुए चल सकती थी.
कंप्यूटर और तकनालॉजी की कंपनी आईबीएम ने बताया है कि आठ साल पहले उसने एक आला बनाकर उसे एक नुमाइश में पेश किया था जिसकी मदद से दो आदमी जब एक दूसरे से हाथ मिलाएँ तो अपने कार्डों की जानकारी बिजली की तरंगों के ज़रिए एक दूसरे को दे सकते हैं.
कुछ मानवाधिकार संगठनों ने इस पर ऐतराज किया है कि माइक्रोसॉफ़्ट को इसका पेटेंट क्यों दिया गया है.
उनका कहना है कि शरीर या इन्सान की त्वचा ऐसी चीज़ नहीं है जिसे कोई कंपनी अपने नाम पेटेंट करा ले.

जान बचा सकता है हाथ धोना!

DingalTimes!
हाथ धोने से डायरिया जैसी बीमारियों से बचा जा सकता है
ऐसी उम्मीद की जा रही है कि संयुक्त राष्ट्र के पहले हाथ धुलाई दिवस के अवसर पर एशिया में लगभग 12 करोड़ बच्चे अपने हाथ धोएँगे.
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि इस अभियान से वह संदेश देना चाहता है कि एक साधारण क़दम से डायरिया और हेपेटाइटिस जैसे गंभीर रोगों से बचा जा सकता है.
भारत में मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर इस अभियान में हिस्सा लेंगे.
रिपोर्टों के अनुसार लगभग 35 लाख बच्चों की डायरिया और निमोनिया की वजह से मौत हो जाती है.
उल्लेखनीय है कि साबुन से हाथ धोने से इन बीमारियों से मरनेवालों की संख्या घटकर आधी तक की जा सकती है.
इस तथ्य को ध्यान में रखकर ये अभियान चलाया जा रहा है.
अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल से लेकर पाकिस्तान के शहर कराची और भारत की राजधानी दिल्ली से लेकर बांग्लादेश के ढाका तक ये अभियान चलाया जा रहा है.
अफ़ग़ानिस्तान में टीवी और रेडियों पर इस विषय पर चर्चा होगी और नेपाल में नई सरकार एसएमएस संदेश के जरिए इस संदेश को भेजा जाएगा.
भूटान में तो इस संदेश के लिए भूटानी चरित्रों वाले विशेष एनीमेटेड वीडियो तैयार किए गए हैं.
ग़ौरतलब है कि दुनिया भर में बच्चों की जान लेने वाली डायरिया दूसरी बड़ी बीमारी है.

Tuesday, October 14, 2008

...खाने के और, दिखाने के और'


अगर आपसे कहा जाए कि सूचना का अधिकार क़ानून लागू किए जाने के तीन बरस बीत जाने तक सरकार ने इस क़ानून के प्रचार पर जितना खर्च किया, वो शायद एक नेता या नौकरशाह के कुछ महीनों के चाय-पानी के खर्च से भी कम है तो आपको अटपटा लगेगा.
पर सूचना का अधिकार क़ानून के प्रचार-प्रसार के लिए केंद्र सरकार की ओर से किए गए खर्च की यही सच्चाई है.
सूचना का अधिकार क़ानून के ज़रिए मिली जानकारी के मुताबिक केंद्र सरकार के सेवीवर्गीय एवं प्रशिक्षण विभाग (डिपार्टमेंट ऑफ़ पर्सोनल एंड ट्रेनिंग- डीओपीटी) ने अभी तक इस क़ानून के प्रचार-प्रसार पर तीन बरसों में कुल दो लाख रूपए खर्च किए हैं.
केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए सरकार सूचना का अधिकार क़ानून को अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों में शामिल बताती है. यूपीए के कार्यकाल में ही 12 अक्तूबर 2005 को यह क़ानून देशभर में लागू किया गया.
उस वक्त सरकार ने इस क़ानून के ज़रिए सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित कराने की दिशा में लोगों के हाथ में एक मज़बूत अधिकार दिए जाने की बात कही थी.
पर्यवेक्षकों का कहना है कि जहाँ एक-एक योजना के प्रचार पर सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर देती है, सूचना का अधिकार क़ानून के मामले में शायद सरकार की ऐसी कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखाई दी.
कितना किया ख़र्च..?
अगर विभागों पर ही इस क़ानून के प्रचार के लिए निर्भरता रहेगी तो नौकरशाही का कामकाज का तरीका इसे लेकर गंभीर नहीं होगा और अधिक पैसा देने पर भी उसका सही इस्तेमाल नहीं हो सकेगा. ऐसे में सरकार को उन संगठनों को पैसा देना चाहिए जो इसके प्रचार को लेकर गंभीर हैं और इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं

वजाहत हबीबुल्लाह, मुख्य सूचना आयुक्त
पिछले दिनों प्रधानमंत्री कार्यालय में इसी क़ानून के तहत आवेदन करके दिल्ली के एक युवा कार्यकर्ता अफ़रोज़ आलम ने यह जानकारी मांगी कि सरकार ने अभी तक इस क़ानून के प्रचार-प्रसार पर कितना पैसा खर्च किया.
इसके जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस आवेदन को डीओपीटी को बढ़ा दिया. विभाग की ओर से इस बारे में दिया गया जवाब चौंकानेवाला है.
विभाग के मुताबिक पिछले तीन बरसों में इस क़ानून के प्रचार के लिए कुल दो लाख रूपए खर्च किए गए हैं. यह पैसा डीएवीपी और प्रसार भारती के ज़रिए खर्च किया गया है.
यानी इस आंकड़े के मुताबिक वर्ष में लगभग 66 हज़ार रूपए या यूँ कहें कि सरकार इस क़ानून के प्रचार पर औसत तौर पर हर महीने महज़ साढ़े पाँच हज़ार रुपए ख़र्च कर रही है.
विभाग ने यह भी बताया है कि इस रक़म के अलावा क़रीब दो लाख, 80 हज़ार रुपए सरकारी विभागों, सूचना मांगनेवालों, अपील अधिकारियों, जन अधिकारियों और केंद्रीय जन सूचना अधिकारियों को निर्देश आदि जारी करने पर खर्च कर दिया गया.
यानी विभाग की ओर से सरकारी महकमे में जानकारी देने के लिए किया गया खर्च भी 100 करोड़ से ज़्यादा बड़ी आबादी के देश को सूचना का अधिकार क़ानून के बारे में बताने के लिए किए गए खर्च से ज़्यादा है.
क़ानून की उपेक्षा..?
सूचना का अधिकार अभियान से जुड़ी जानी-मानी समाजसेवी अरुणा रॉय कहती हैं, "इससे साफ़ है कि सरकार सूचना का अधिकार क़ानून को लोगों तक पहुँचाने के प्रति कितनी गंभीर है. इससे नौकरशाही का और सत्ता का इस क़ानून के प्रति रवैया उजागर होता है."
सूचना का अधिकार अभियान के एक अन्य मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त समाजसेवी अरविंद केजरीवाल भी सरकार की मंशा और नौकरशाही के रवैये पर ऐसे ही पटाक्षेप करते हैं.
इससे साफ़ है कि सरकार सूचना का अधिकार क़ानून को लोगों तक पहुँचाने के प्रति कितनी गंभीर है. इससे नौकरशाही का और सत्ता का इस क़ानून के प्रति रवैया उजागर होता है

अरुणा रॉय
सूचना का अधिकार क़ानून का सेक्शन-चार कहता है कि विभागों को कामकाज से संबंधी सूचना तत्काल जारी करनी और सार्वजनिक करनी चाहिए. यही सेक्शन यह भी कहता है कि विभागों को इस क़ानून के बारे में लोगों के बीच सभी संभव संचार-प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल करके लोगों को इससे अवगत कराना चाहिए.
पर सरकार की ओर से इतने छोटे बजट का खर्च इस क़ानून की अवहेलना की कलई भी खोलता है.
'नौकरशाही पर निर्भर न रहें'
भारत सरकार के मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह भी यह स्वीकार करते हैं कि इस क़ानून के प्रचार के लिए जितना पैसा खर्च किया गया है वो काफी कम है.
पर वो इसके लिए अलग रास्ता सुझाते हैं. बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा कि सरकार या विभागों का मुंह देखने के बजाय इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि किस तरह से इस क़ानून को लेकर लोगों के बीच काम कर रहे संगठनों की मदद की जाए.
उन्होंने कहा, "अगर विभागों पर ही इस क़ानून के प्रचार के लिए निर्भरता रहेगी तो नौकरशाही का कामकाज का तरीका इसे लेकर गंभीर नहीं होगा और अधिक पैसा देने पर भी उसका सही इस्तेमाल नहीं हो सकेगा. ऐसे में सरकार को उन संगठनों को पैसा देना चाहिए जो इसके प्रचार को लेकर गंभीर हैं और इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं."
पर क्या मुट्ठी भर संगठनों और संसाधनों का अभाव इस विचार को बौना साबित नहीं कर देता, इस पर वो कहते हैं कि इसके लिए बड़े दानदाताओं की ओर देखना चाहिए. विश्व बैंक जैसी संस्थाएं हज़ारों करोड़ रूपए का बजट ऐसे काम के लिए देने को तैयार हैं. इसके इस्तेमाल की दिशा तय करने की ज़रूरत है.
केंद्रीय सूचना आयुक्त के तर्क और सूचना का अधिकार अभियान से जुड़े लोगों की चिंता कई संकेत देती हैं.
राजनीतिक और नौकरशाही के हलकों में ये बात आम है कि सूचनाओं के सार्वजनिक होने से नेताओं और नौकरशाहों में चिंता है और हड़कंप है.
विश्लेषक मानते हैं कि दुनियाभर में जो इतिहास भारत सरकार ने इस क़ानून को लागू करके रचा था, उसे इसके प्रचार-प्रसार के प्रति इस रवैये को देखकर ठेस पहुँची है.
सवाल भी उठ रहे हैं कि प्रधानमंत्रियों के जन्मदिन और पुण्यतिथियों पर लाखों के विज्ञापन छपवा देने वाली सरकारें, अपनी उपलब्धियों पर मुस्कराती हुई तस्वीर छपवाने वाले मंत्रियों का आम आदमी को सूचना प्रदान करने वाले इस क़ानून के प्रति क्या रवैया है.

Sunday, October 12, 2008

मलेरिया परजीवियों का नया जीनोम तैयार


वाशिंगटन। वैज्ञानिकों ने विकासशील देशों में आम बीमारी मलेरिया का कारण बनने वाले दो परजीवियों का जीनोम तैयार करने में सफलता हासिल कर ली है। इस खोज के बाद दुनिया के 2.6 अरब यानी कुल आबादी के 40 फीसद लोगों को मच्छर के काटने से होने वाली बीमारी से लड़ने के लिए नई दवा और टीका विकसित करने में मदद मिलेगी। न्यूयार्क विश्वविघालय के लांगोन मेडिकल सेंटर के वैज्ञानिक जेन कार्लटन के नेतृत्व में दोनों परजीवियों का जीनोम तैयार किया गया। कार्लटन ने कहा कि मलेरिया के इलाज में यह खोज बहुत ही कारगर साबित होगी। हालांकि इन परजीवियों से जो मलेरिया होता है वह कभी-कभार ही जानलेवा होता ह,ै लेकिन इससे बार -बार तेज बुखार, सिरदद, ठंड लगना बहुत ज्यादा पसीना आना, उल्टी, अतिसार जैसी परेशानियां हो जाती हैं। * वीवैक्स नाम का परजीवी शुरूआती बीमारी के बाद मनुष्य के कलेजे में महीनों या वर्षाें सुप्तावस्था पड़ा रहता है। उसके बाद यह दोबारा हमला करता है। * वैज्ञानिकों ने जीनोम तैयार करने के बाद वह जीन खोज ली है, जो लम्बे समय तक इसके सुप्तावस्था में पड़े रहने के लिए जिम्मेदार होती है। * उस जीन की भी खोज कर ली गई है, जो व्यक्ति की लाल रक्त कोशिकाओं और रोग प्रतिरोधक क्षमता पर हमला करती हैं। इस परजीवी पर अब कईं दवाइयां असर ही नहीं करती हैं। * विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष 2007 में मलेरिया ने दुनियाभर में कुल आठ लाख 81 हजार लोगों की जान ले ली थी तथा 24 करोड़ 70 लाख इससे संक्रमित हुए थे। * ब्रिटेन में वेलकम टस्ट सांगेर के वैज्ञानिकों ने मलेरिया के ही एक परजीवी प्लास्मोडियम नोलेसी का जीनोम तैयार किया है। *यह परजीवी दक्षिण पूर्व एशिया में स्वास्थ्य के लिए खतरा बनता जा रहा है। * वैज्ञानिकों ने मुनष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रणाली की नजर से बचने के लिए इस परजीवी द्वारा अपनाए जाने वाले तिकड़म का भी पता लगा लिया है। इसके लिए यह मनुष्य की इस क्षमता में मौजूद एक जीन जैसा हुलिया अख्तियार कर लेता है। * मलेरिया से मरने वाले लोगों की सबसे ज्यादा तादाद अफ्रीका में है और ये मौतें प्लास्मोडियम फाल्सीपैरम परजीवी से होती है। इस परजीवी का जीनोम 2002 में तैयार कर लिया गया था।

Thursday, October 9, 2008

'लिव-इन' को विवाह जैसी मान्यता!


महाराष्ट्र सरकार चाहती है कि क़ानूनों को इस तरह से बदल दिया जाए जिससे बिना विवाह किए पर्याप्त समय से साथ रह रही महिला को पत्नी जैसी मान्यता मिल सके.
महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र सरकार को यह प्रस्ताव भेजा है कि भारतीय दंड संहिता (सीआरपीसी) में इस तरह से संशोधन किया जाए जिससे 'पर्याप्त समय' से चल रहे 'लिव-इन' को विवाह जैसी मान्यता मिल सके.
हालांकि महाराष्ट्र सरकार ने इस 'पर्याप्त समय' को परिभाषित नहीं किया है.
लेकिन यदि क़ानून में यह संशोधन हो जाता है तो 'लिव-इन' में रह रही महिला को विवाह टूटने की स्थिति में मिलने वाली सारे अधिकार हासिल हो जाएंगे जिसमें गुज़ारा भत्ता और बच्चों की परवरिश शामिल है.
'लिव-इन' ऐसा रिश्ता है जिसमें वयस्क लड़का और लड़की आपसी सहमति से बिना विवाह किए एक साथ रहते हैं और पति-पत्नी जैसा व्यवहार करते हैं.
महानगरों में कामकाजी लोगों के बीच ऐसे संबंधों का प्रचलन लगातार बढ़ रहा है.
समस्याएँ
'लिव-इन' संबंध जब टूटते हैं तो अक्सर महिला साथी को परेशानी का सामना करना पड़ता है.
एक तो यह कि इन संबंधों को कोई क़ानूनी मान्यता नहीं है इसलिए वो अपने पुरुष साथी से किसी तरह के हर्ज़ाने की माँग नहीं कर सकती.
न तो उसे गुज़ारा भत्ता मिलता है और न अपने पुरुष साथी की संपत्ति में हिस्सेदारी करने का अधिकार ही मिलता है.
महाराष्ट्र सरकार चाहती है कि आपराधिक दंड संहिता की धारा 125 में संशोधन करके 'लिव-इन' में रह रही महिलाओं को पत्नी की तरह के अधिकार दे दिए जाएँ.
यदि केंद्र सरकार इस संशोधन को स्वीकृति देती है तो महाराष्ट्र सरकार क़ानून में ऐसा संशोधन कर सकेगी.
इसी साल सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फ़ैसले में कहा था कि 'लिव-इन' से पैदा हुए बच्चों को अवैध नहीं कहा जा सकेगा.
महाराष्ट्र सरकार के इस प्रस्ताव पर मिलीजुली सी प्रतिक्रिया हुई है. महिला संगठनों ने जहाँ इसका स्वागत किया है वहीं कुछ संगठनों ने कहा है कि इससे समाजिक संस्कृति को नुक़सान पहुँचेगा.

Tuesday, October 7, 2008

रीढ़ की हड्डी फिट तो आप हिट


फिट रहने के लिए रीढ़ की हड्डी का ध्यान रखना ज़रूरी है, क्योंकि शरीर को आगे-पीछे मोड़ने और सही पॉस्चर में रखने के लिए इसका सही रहना ज़रूरी है। दूसरे शब्दों में कहें, तो रीढ़ की हड्डी पर शरीर की तमाम गतिविधियां निर्भर रहती हैं। इसे सही रखने के लिए इन तीन आसनों का नियमित अभ्यास जरूरी है:

पादहस्तासन सीधे खड़े होकर पैरों को आपस में मिला लें। अब सांस भरते हुए हाथों को ऊपर उठाएं व सांस निकालते हुए आगे की ओर झुकें व हाथों से पैरों को छू लें। यहां कमर आगे मुड़ जाएगी। प्रयास करें कि आपका माथा घुटनों के पास आ जाए और ध्यान रखें कि घुटनों को मोड़ें नहीं। सांस को सामान्य रखते हुए आसन में यथाशक्ति रुके रहें और फिर धीरे से वापस आ जाएं। सावधानी कमर दर्द, गर्दन दर्द व हाई बीपी व एसिडिटी में इसका अभ्यास न करें। लाभ यह आसन कमर में लचीलापन बढ़ता है और घुटनों व जंघाओं को बल देता है। इससे पाचनतंत्र, हृदय, फेफड़ों व मस्तिष्क का स्वास्थ्य बढ़ता है और मन में एकाग्रता बढ़ती है।

अर्धचक्रासन पादहस्तासन में हमने कमर को आगे की ओर मोड़ा। अब कमर को पीछे मोड़ना है। इसके लिए पैरों में थोड़ा अंतर रखें व हाथों को पीछे आपस में पकड़ लें। अब सांस भरते हुए कमर को पीछे की ओर मोड़ें व हाथों को नीचे की ओर खींचे। यहां सिर को पीछे ढीला छोड़ दें। आंखें खुली रखें। सांस सामान्य रहेगी। ध्यान रहे, कमर को जबरदस्ती पीछे नहीं मोड़ना है। यथाशक्ति रुकने के बाद धीरे से वापस आ जाएं। इसका अभ्यास दो बार करें।

सावधानी: हर्निया में इसका अभ्यास न करें। यह आसन कमरदर्द, गर्दन दर्द और कंधे की जकड़न को दूर करता है। इससे कमर में लचीलापन बढ़ता है। इससे रीढ़ की हड्डी से जुड़ी समस्याएं नहीं होतीं और शरीर हल्का रहता है।

वक्रासन बैठकर दोनों पैरों को सामने फैला दें। बाएं पैर को घुटने से मोड़कर दाएं पैर के घुटने के पास खड़ा कर लें। अब दाएं हाथ को बाएं पैर के घुटने के बाहर से घुमाकर खड़े पैर का पंजा पकड़ लें व बाएं हाथ को पीछे जमीन पर रखते हुए गर्दन को पीछे की ओर घुमा दें। सांस को सामान्य रखकर कुछ देर के लिए रुक जाएं। इसी प्रकार दूसरी ओर से भी करें।

सावधानी: कमर में ज्यादा दर्द होने पर यह आसन न करें। यह आसन पाचनतन्त्र को बलिष्ठ बनाता है। इससे अमाश्य, लीवर, पेन्क्रियाज, आंतें, किडनी, मूत्राश्य आदि अंगों को बल मिलता है। यह डायबटीज में लाभकारी है और कमर को लचीला रखता है।

Thursday, October 2, 2008

लड़की या लड़का माँ की सोच का नतीजा

Dingal news!
अगर कोई महिला यह सोचे कि वह कितने दिन जीवित रहने वाली है, या यह दुनिया अच्छी है या बुरी, तो उसकी इस सोच का असर उसके बच्चे पर निर्णायक रूप में पड़ सकता है.
वैज्ञानिकों का कहना है कि यहाँ तक कि इस सोच का असर उसके बच्चे के लिंग निर्धारण में भी निर्णायक रूप में पड़ सकता है.
ब्रिटेन के केंट विश्वविद्यालय में जीव विज्ञान की शिक्षक डॉक्टर सारा जोन्स ने निष्कर्ष निकाले हैं कि जो महिलाएँ आशावादी होती हैं उनको बेटा पैदा होने की ज़्यादा संभावना होती है.
डॉक्टर जोन्स ने 609 ऐसी महिलाओं से बातचीत की जो हाल ही माँ बनी थीं.
डॉक्टर जोन्स ने पाया कि जो महिला अपनी जितनी लंबी उम्र के बारे में सोचती, उसके हर एक साल के लिए बेटा पैदा होने की संभावना बढ़ती जाती.
पहले के शोधों में पाया गया है कि जो महिला शारीरिक रुप से स्वस्थ होती है और सुविधाजनक और आरामदेह ज़िंदगी जीती है, उनको बेटा पैदा होने की संभावना ज़्यादा रहती है.
इसके उलट जो महिलाएँ मुश्किल हालात में ज़िंदगी जीती हैं, उनके यहाँ बेटी पैदा होने की संभावना ज़्यादा होती है.
डॉक्टर सारा जोन्स ने महिलाओं से उनके रुख़ के बारे में जो सवाल पूछे, उनका लब्बोलुबाव यही था कि वे कितने साल जीना चाहती हैं?
मध्यम वर्ग और कामकाजी तबके की महिलाओं का मानना था कि वे 40 साल की उम्र तक तो जीवित रहेंगी ही लेकिन कुछ का मानना था कि वे 130 साल तक जीवित रह सकेंगी.
सोच और रासायनिक परिवर्तन
डॉक्टर सारा जोन्स का मानना है कि दिमाग़ में आशावादी विचारों से शरीर में कुछ महत्वपूर्ण रासायनिक परिवर्तन होते हैं और इससे यह संभावना बढ़ती है कि आशावादी दृष्टिकोण रखने वाली महिला के गर्भ में पुत्र ही वजूद में आएगा.
एक बेटे को पाल-पोसकर युवावस्था तक लाना बहुत मुश्किल काम है. गर्भ में भी लड़का अपनी माँ के मिसाल के तौर पर ये रासायनिक परिवर्तन गर्भ धारण के समय महिला के सेक्स हारमोन में तब्दीली कर सकता है जिससे बेटे के वजूद की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं.
डॉक्टर सारा जोन्स ने बीबीसी के रेडियो-4 को बताया कि यह देखने की बात थी कि बेटे को जन्म देने वाली महिलाएँ न सिर्फ़ शारीरिक रूप से स्वस्थ थीं बल्कि वे आशावादी और सकारात्मक सोच रखने वाली थीं और अपने बेटे को अच्छी ज़िंदगी देने का संकल्प रखती थीं.
सारा जोन्स का कहना था, "एक बेटे को पाल-पोसकर युवावस्था तक लाना बहुत मुश्किल काम है. गर्भ में भी लड़का अपनी माँ के शरीर पर ज़्यादा दबाव डालता है और लड़कों को जन्म देना भी ज़्यादा मुश्किल माना जाता है."
"अगर आप अपने बेटे का अच्छी तरह ध्यान रखते हुए उसे एक कामयाब व्यक्ति बनाने की तरफ़ अपना ठोस योगदान नहीं कर पाते हैं और अगर वह विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षित होता है तो इस बात की काफ़ी संभावना है कि वह अपनी पीढ़ी आगे बढ़ाने में सहयोग नहीं कर सके.
रॉयल कॉलेज ऑफ़ ऑब्सटेटरीशियंस एंड गायनीकोलॉजिस्ट के डॉक्टर पीटर बोवेन सिपकिंस का कहना है कि गर्भ में बच्चे के लिंग का निर्धारण सिर्फ़ एक इत्तेफ़ाक़ की बात नहीं होकर बहुत से शारीरिक और मानसिक हालात पर निर्भर हो सकता है.
उन्होंने कहा, "पहले विश्व युद्ध में पुरुषों का बड़े पैमाने पर संहार होने के बाद बहुत से लड़के पैदा हुए थे. ऐसा लगता है कि लड़ाई में जो कुछ खोया था क़ुदरत ने उसकी भरपाई के लिए ऐसा किया."
यह शोध बॉयोलॉजी लैटर्स की पत्रिका में प्रकाशित हुआ है.

'मोबाइल घटा रहा है मर्दानगी'

Dingal Times!
शोधकर्ताओं का कहना है कि मोबाइल फ़ोन का अधिक इस्तेमाल करने वाले पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या घट रही है जो सीधे तौर पर प्रजनन क्षमता को प्रभावित करती है.
मुंबई के अस्पतालों में संतानोत्पति में नाकाम होने के बाद अपना इलाज़ करा रहे 364 पुरूषों पर हुए अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला है.
यह शोध ओहियो के क्लीवलैंड क्लिनिक फाउंडेशन की ओर से हुआ है और इसके निष्कर्ष अमरीका के 'सोसाइटी ऑफ रिप्रोडक्टिव मेडिसिन' को सौंप दिए गए हैं.
शोधकर्ताओं के मुताबिक एक दिन में चार घंटे या इससे अधिक देर तक मोबाइल का इस्तेमाल करने वाले पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या कम पाई गई और बचे हुए शुक्राणुओं की हालत भी ठीक नहीं थी.
हालाँकि ब्रिटेन के एक विशेषज्ञ का कहना है कि प्रजनन क्षमता में कमी के लिए मोबाइल को दोष देना ठीक नहीं है क्योंकि वह पुरूषों के जननांगों के निकट नहीं होता.
शोध
शोध के मुताबिक जो लोग दिन में चार घंटे से अधिक मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करते थे उनमें शुक्राणुओं की संख्या प्रति मिलीलीटर पाँच करोड़ पाई गई जो सामान्य आँकड़े से काफी कम है.
जो लोग दो से चार घंटे तक मोबाइल फ़ोन से बात करते थे उनमें प्रति मिलीलीटर शुक्राणुओं की संख्या लगभग सात करोड़ आँकी गई.
जिन लोगों ने बताया कि वे मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल ही नहीं करते हैं, उनमें यह संख्या लगभग साढ़े आठ करोड़ थी और उनके शुक्राणु काफी स्वस्थ हालत में सक्रिय पाए गए.
चेतावनी
शोधकर्ताओं की टीम का नेतृत्व करने वाले डॉ अशोक अग्रवाल कहते हैं कि अभी इस मामले पर और अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है.
वो कहते हैं, "लोग मोबाइल का इस्तेमाल बेधड़क करते जा रहे हैं. बिना ये सोचे कि इसके परिणाम क्या होंगे."
डॉ अग्रवाल का कहना है कि मोबाइल से होने वाला विकिरण डीएनए पर बुरा असर डालता है जिससे शुक्राणु भी प्रभावित होते हैं.

सोयाबीन रोगियों के लिए फ़ायदेमंद

Dingal Times!
एक शोध के अनुसार सोयाबीन और चना में पाए जाने वाले एक रसायनिक पदार्थ का सेवन दिल के दौरे का सामना कर चुके रोगियों के लिए फ़ायदेमंद हो सकता है.
हाँगकाँग विश्वविद्यालय की टीम का कहना है कि सोयाबीन में पाए जाने वाले आइसोफ़लेवोन नामक रसायनिक पदार्थ कॉलेस्ट्रॉल से लड़ने वाली स्टेटिन के समकक्ष है.
यूरोपीय हृदय पत्रिका के शोध के अनुसार आइसोफ़लेवोन धमनियों में ख़ून के प्रवाह को बेहतर करने में मदद करता है.
कैंसर से बचता है
पिछले अध्ययनों में संभावना व्यक्त की गई था कि सोयाबीन का सेवन छाती और प्रोस्टेट कैंसर से बचने मे मदद करता है और कॉलेस्ट्रॉल भी कम करता है.
सोयाबिन में पाया जाने वाला आइसोफ़लेवोन हृदय की बीमारी के ख़तरे को कम करता है और उस कोशिका को बढ़ने से रोकता है जो धमनियों में ख़ून के बहाव में रूकावट पैदा करती है.
शोधकर्ताओं ने ताज़ा परीक्षण में 102 मरीज़ों को शामिल किया और शामिल किए गए सभी लोगों को ख़ून का थक्का जमने के कारण दिल का दौरा पड़ चुका था और वे हृदय की बीमारी से ग्रसित थे.
शोधकर्ताओं ने इन मरीज़ों को दो समूहों में बाँटा. एक समूह को आइसोफ़लेवोन जबकि दूसरे को पलेसेबो बारह सप्ताहों तक दिया.
शोधकताओं ने पाया कि जिन मरीज़ों ने आइसोफ़लेवोन का सेवन किया था उनकी हालत में बेहतरी देखी गई.
शोधकर्ता प्रोफ़ेसर हंग फेट सी का कहना था, "शोध इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि आइसोफ़लेवोन इनडोथेलियल की ख़राबी को ख़त्म करता है."
अध्ययन की ज़रूरत
हालाँकि उनका कहना था कि अभी यह जल्दबाज़ी होगी के मरीज़ो को आइसोफ़लेवोन के सेवन करने की सलाह दी जाए.
लेकिन उनका कहना था, "जिनके खाने में आइसोफ़लेवोन की मात्रा ज़्यादा होगी उन लोगों में दिल का दौरा पड़ने के ख़तरे कम होंगे."
ग़ौरतलब है कि आइसोफ़लेवोन फ़ाइटोइस्ट्रोजीन के अंतर्गत आता है जो प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले ओएस्ट्रोजन की नक़ल करता. ओएस्ट्रोजन हृदय की बीमारी के ख़तरे से रक्षा करता है.
द स्ट्रोक ऐसोसियेशन के डाक्टर पेटर कोलेमन का कहना है, "शोध से जो पता चल रहा है वो बड़ा महत्वपूर्ण और दिलचसप है कि आइसोफ़लेवोन के सेवन से दिल का दौरा पड़ चुके मरीज़ों के लिए फ़ायदेमंद हो सकता है."
उनका कहना था कि अभी ये शोध बहत कम लोगों पर किया गया है और इस सिलसिले में और अध्ययन की ज़रूरत है.