Wednesday, September 12, 2007

बीबीसी की हिंदी...अचला शर्मा


रेडियो की भाषा कैसी हो, यह पाठ पहले पहल मुझे बीबीसी हिंदी सेवा में वरिष्ठ सहयोगी स्वर्गीय ओंकार नाथ श्रीवास्तव ने पढ़ाया था.
उन्होंने कहा, ‘भूल जाओ कि हिंदी में एमए किया है. रेडियो पर पाठ्यपुस्तकों की या साहित्य की भाषा नहीं चलती. भाषा ऐसी हो जिसमें श्रोताओं से बतियाया जा सके.’
बेशक, मुश्किल से मुश्किल विषय को आसान शब्दों में श्रोताओं तक पहुँचाने का हुनर ओंकार जी को आता था. बीबीसी की हिंदी को ज़िंदादिल बनाए रखने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है. उनसे पहले और उनके बाद भी प्रसारकों-पत्रकारों की कई पीढ़ियों ने बीबीसी की हिंदी को गढ़ने, सँवारने और उसकी परंपरा को क़ायम रखने में भूमिका निभाई.
बीबीसी हिंदी सेवा का जन्म 1940 में हुआ था लेकिन उस ज़माने में उसका नाम था ‘हिंदुस्तानी सर्विस’ और पहले संचालक थे ज़ेड. ए. बुख़ारी.
आम जन की नज़र में ‘हिंदुस्तानी’ हिंदी और उर्दू की सुगंध लिए एक मिली जुली सादा ज़बान का नाम था, जो भारत की गंगा जमुनी सभ्यता का प्रतीक थी. यही गंगा जमुनी भाषा, बीबीसी की आज की हिंदी का आधार बनी.

विश्व युद्ध का ज़माना था. ब्रितानी फ़ौज में हिंदू भी थे और मुसलमान भी. उनकी बोलचाल की भाषा एक ही थी-हिंदुस्तानी. हालाँकि हिंदुस्तानी सर्विस नाम के जन्म की कहानी का एक राजनीतिक पहलू भी है.
मार्च 1940 में बुख़ारी साहब ने एक नोट लिखा जिसका विषय था ‘हमारे कार्यक्रमों में किस तरह की हिंदी का इस्तेमाल होगा.’ इस नोट में एक जगह उन्होंने लिखा—
"भारत में हाल की राजनीतिक घटनाओं और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की अपेक्षाओं के बीच, दूसरे शब्दों में, इन संकेतों के बीच कि स्वतंत्र भारत की सत्ता बहुसंख्यकों के हाथ में होगी, हिंदुओं ने अपनी भाषा से अरबी और फ़ारसी के उन तमाम शब्दों को निकालना शुरू कर दिया है जो मुसलमानों की देन थे. दूसरी तरफ़ मुसलमानों ने उर्दू में भारी भरकम अरबी-फ़ारसी शब्दों को भरना शुरू कर दिया है".
"पहले की उर्दू में हम कहते थे- मौसम ख़राब है. लेकिन काँग्रेस की आधुनिक भाषा में या मुसलिम लीग की आज की ज़बान में यूँ कहा जाएगा- मौसमी दशाएँ प्रतिकूल हैं या मौसमी सूरतेहाल तशवीशनाक है.…..हम अपने प्रसारणों को दो वर्गों में रख सकते हैं".
"पहला- अतिथि प्रसारक जिनकी भाषा पर हमारा कोई बस नहीं क्योंकि आप बर्नार्ड शॉ की शैली नहीं बदल सकते. दूसरे वर्ग में हमारे अपने प्रसारक आते हैं जिनकी भाषा में मौसम खराब हो सकता है, मौसमी दशाएँ प्रतिकूल नहीं होंगी. काँग्रेस ने हिंदुस्तानी नाम उस भाषा को दिया था जिसमें हम कहते हैं- मौसम ख़राब है".
मिलीजुली ज़बान हिंदुस्तानी
आम जन की नज़र में ‘हिंदुस्तानी’ हिंदी और उर्दू की सुगंध लिए एक मिली जुली सादा ज़बान का नाम था, जो भारत की गंगा जमुनी सभ्यता का प्रतीक थी. यही गंगा जमुनी भाषा, बीबीसी की आज की हिंदी का आधार बनी.
चालीस के दशक से शुरू हुई इस परंपरा को कई जाने माने प्रसारकों ने मज़बूत किया जिनमें बलराज साहनी, आले हसन, पुरुषोत्तमलाल पाहवा, महेंद्र कौल, रत्नाकर भारती, गौरीशंकर जोशी, हिमांशु भादुड़ी, नीलाभ, परवेज़ आलम, जसविंदर समेत बहुत से नाम शामिल हैं.
आले हसन देवनागरी लिपि नहीं जानते थे. उर्दू में लिखते थे. मगर बीबीसी हिंदी के पुराने श्रोता उनकी ख़ूबसूरत आवाज़ और मीठी भाषा कैसे भूल सकते हैं!

राजस्थान में आरक्षण के मुद्दे पर गूजर समाज की गुरुवार को धौलपुर में महापंचायत हो रही है. इसे देखते हुए सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम किए गए हैं.
गूजर नेताओं का कहना है कि वे इस महापंचायत में अपने अगले क़दम की घोषणा करेंगे.
सरकार ने गूजर बहुल इलाक़ों, धौलपुर, भरतपुर, सवाई माधोपुर, दौसा और करौली में सुरक्षा व्यवस्था की निगरानी के लिए चार मंत्रियों को तैनात किया है.
दूसरी और राजस्थान सरकार ने गूजर समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के मामले पर गठित जस्टिस जसराज चोपड़ा समिति के कार्यकाल को तीन महीने के लिए बढ़ा दिया है.
एक सरकारी प्रवक्ता का कहना था कि गूजर महासभा के नेता किरोड़ी सिंह बैंसला से बातचीत के बाद समिति का कार्यकाल बढ़ाकर 15 दिसंबर तक कर दिया गया है.
चोपड़ा समिति का कार्यकाल बुधवार को समाप्त हो रहा था.
गूजरों की माँग
ग़ौरतलब है कि राजस्थान में गूजरों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में रखा गया है लेकिन वे अनुसूचित जनजाति के तहत मिलने वाली आरक्षण सुविधा की मांग कर रहे हैं.
अपनी माँगों को लेकर गूजर सड़कों पर उतर आए थे
इसको लेकर गूजर समुदाय सड़कों पर उतर आया था और उनके आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया था.
इस आंदोलन के दौरान कुछ पुलिसकर्मियों समेत 23 लोगों की जानें गई थीं.
राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली में भी गूजर समाज के लोग इस आंदोलन से जुड़ गए थे.
इस दौरान हुए धरने-प्रदर्शनों के कारण सामान्य जनजीवन भी ख़ासा प्रभावित हुआ था.
लगभग दो सप्ताह तक चले उग्र आंदोलन के बाद चार जून को गूजरों नेताओं और राजस्थान सरकार के बीच एक समझौता हो गया था. इसी के तहत चोपड़ा समिति का गठन किया गया था.

क्यूँ मेरी अंगुलियाँ


क्यूँ मेरी अंगुलियाँ थकने लगी है?
क्यूँ मेरे लब थरथरा रहे है?


मै अपने गीतो से शर्मा रहा हूँ,ओर
मेरे गीत मुझसे शर्मा रहे है..
वों गीत मुझे आज बेज़ान लगते है....
कि मेरे दिल के जज़्बात थे,
जिन्हे कोरे कागज़ पर मैने उकेरा था,
और उस क़लम को भी तोड देना चाहता हूँ,
जिसने लोगो के दिल के तारो को छेडा था,
आज मेरे हाथो मे क्रांति की मशाल दे दो...
जिसकी रोशनी से,मै हटा दूँ घने स्याह अँधेरो को,
और अपने इस दिल की तडप से आज फिर,
उगा दूँ नई सुबह और सवेरो को...
अब तो दिल का आलम यही है...
कि सारे आलम पे छा जाना चाहता हूँ,
करके क़ुर्बान ये जीवन इस ज़मी के लिये,
इक नई रोशनी जलाना चाहता हूँ...!!!!