Sunday, March 30, 2008

गीत गुमसुम है ग़ज़ल चुप है.....


दुनिया भर में उर्दू की शायराना परंपरा के लिए मश्हूर शंकर-शाद मुशायरे में हिंदी के प्रसिद्ध कवि गोपालदास नीरज ने जब ये शेर पढ़ा...
मेरा मक़सद है कि महफ़िल रहे रौशन यूं हीख़ून चाहे मेरा दीपों में जलाया जाए तो
उससे जहां मुशायरे का तेवर तय हुआ वहीं उस वक़्त उर्दू मुशायरे में एक और नया पहलू भी जुड़ गया जब उन्होंने यह शेर पढ़ा...
गीत गुमसुम है, ग़ज़ल चुप है, रुबाई है दुखीऐसे माहौल में नीरज को बुलाया जाए
शंकर-शाद मुशायरा विश्व भर में उर्दू का सबसे बड़ा और सबसे लोकप्रिय मुशायरा रहा है और भारत की आज़ादी के बाद से दिल्ली की सांस्कृतिक पहचान रहा है. डीसीएम का यह मुशायरा दो हिंदू शायरों सर शंकरलाल शंकर और लाला मुरलीधर शाद की याद में आयोजित किया जाता है जो उर्दू के सेकूलर चरित्र को पेश करता है.
यह 45वां मुशायरा कई ऐतबार से यादगार कहा जाएगा, इस में जहां भारत के नामवर उर्दू शायरों ने शिरकत की वहीं पाकिस्तान के बड़े नाम अहमद फ़राज़ और ज़हरा निगाह भी मौजूद थीं.
मुशायरे की परंपरा
बेकल उत्साही और वसीम बरेलवी उर्दू मुशायरों के सबसे लोकप्रिय शायरों में हैं
मुशायरे का आरंभ परंपरागत तौर पर दीप जलाकर किया गया और यह शमा पाकिस्तान की सुप्रसिद्ध शायरा ज़हरा निगाह ने रौशन की.साथ में फ़िल्मी जगत की मानी जानी हस्ती शबाना आज़मी भी थीं. मुशायरे की अध्यक्षता दिल्ली के सब से बुज़ुर्ग शायर बेकल उत्साही ने की जो हमेशा ही इस मुशायरे की शान रहे हैं.
मुशायरे के शुरू में परंपरागत तौर पर शंकर और शाद की ग़ज़लों की कुछ पंक्तियां भी सुनाई गईं. दोनों के एक एक शेर नमूने के तौर पर इस तरह हैं.
दुनिया-ए-मुहब्बत में शंकर हम आस लगाए बैठे हैंइस दर्द भरे दिल का शायद पैदा कोई दरमाँ हो जाए
और
दुनिया सिमट के आ गई मय्यत पे शाद कीबस एक वो हैं जिनको अब तक ख़बर नहीं
शाद और शंकर के बारे में उर्दू में कहा जाता है कि वो एक शेर की दो पंक्तियों की तरह हैं जहां दोनों पंक्तियां पढ़ी जाती हैं वहीं शेर पूरा हो जाता है.
साझा संस्कृति
मुशायरे को शुरू करने से पहले शमा रौशन की जाती है, बेकल उत्साही, ज़हरा निगाह और शबाना आज़मी शमा रौशन करते हुए
आज की दौड़ती भागती ज़िंदगी में जब सारे मूल्यों को हमारी अर्थ-व्यवस्था तय करती है और जहां हम अपने जिस्म के लिए सारी कोशिश में लगे हैं वहीं हम अपनी रूह यानी आत्मा को कैसे नकार सकते हैं. शायरी वास्तव में हमारी आत्मा की ग़ज़ा है और यह ज़रूरत पूरी होती है ऐसे मुशायरों से.
भारत की साझा संस्कृति और मूल्यों की अभिव्यक्ति इस प्रकार के मुशायरों में उभर कर सामने आती है और हम अपने अतित के धरोहर की क़ीमत पहचानते हैं. मलिकज़ादा जावेद ने जब ये पंक्तियां पढ़ीं तो लोगों ने ख़ूब दाद दी
ज़रा सा नर्म हो लह्जा ज़रा सा अपनापनशरीफ़ लोग मुरव्वत में डूब जाते हैं
और
उठाओ कैमरा तस्वीर खींच लो इनकीउदास लोग कहां रोज़ मुस्कुराते हैं
मूल्यों की शायरी
उर्दू शायरी में घटते बढ़ते मूल्यों का हर घड़ी मूल्यांकन तो होता ही रहता इसकी एक ख़ूबी यह भी है यह वास्तविक्ता का आईना बन जाती है और इस के ज़रिए हर उस चीज़ पर चोट की जाती है जो समाज और इंसानियत के ख़िलाफ़ हो.
मुशायरों की जान वसीम बरेलवी के यह शेर कुछ इसी जानिब इशारा करते हैं.
चैन से बैठे हैं आपस में लड़ाने वालेआंगनों से गए दीवार उठाने वाले
या
मुझको गुनाहगार कहे और सज़ा ने देइतना भी इख़्तियार किसी को ख़ुदा ने दे
या
लिहाज़ आँख का, रिश्तों का डर नहीं रहताजब एक शख़्स के हाथों में घर नहीं रहाता
इक ऐसा मोड़ इसी ज़िंदगी में आना हैकि जिसके बाद कोई हमसफ़र नहीं रहता
पसंदीदा शेर
शनिवार को दिल्ली में आयोजित मुशायरे में पढ़े गए कुछ पसंदीदा शेर आप भी देखते चलिए
हादसों की ज़द में हैं तो मुस्कुराना छोड़ देंज़लज़लों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें
तुमने मेरे घर न आने की क़सम खाई तो हैआंसुओं से भी कहो आँखों में आना छोड़ दें
प्यार के दुश्मन कभी तू प्यार से कह के तो देखएक तेरा दर ही क्या हम तो ज़माना छोड़ दें
दूरी हुई तो उन से क़रीब और हम हुएये कैसे फ़ासले थे जो बढ़ने से कम हुए (वसीम बरेलवी)
ख़्वाब का रिश्ता हक़ीक़त से न जोड़ा जाएआईना है इसे पत्थर से न तोड़ा जाए
अब भी भर सकते हैं मैख़ाने के सब जामो-सुबूमेरा भीगा हुआ दामन जो निचोड़ा जाए (मलिकज़ाद मनज़ूर)मौत आई हमें ख़बर न हुईऐसी ग़फ़्लत तो उम्र भर न हुई
ज़िंदगी बाप की मानिंद सज़ा देती हैमौत मां की तरह मुझको बचाने आई (नीरज)
जुनूँ के नग़्मे वफ़ाओं के गीत गाते हुएहमारी उम्र कटी ज़ख़्मे-दिल छुपाते हुए
कोई है जो हमें दो-चार पल को अपना लेज़बान सूख गई ये सदा लगाते हुए
मुझको तआक़ुब में ले आई एक अंजान जगहख़ुश्बू तो ख़ुश्बू थी मेरे हाथ नहीं आई (शहरयार)
ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेनाबहुत हैं फ़ायदे इसमें मगर अच्छा नहीं लगता
मुझे दुश्मन से भी ख़ुद्दारी की उम्मीद रहती हैकिसी का भी हो सर, क़दमों में सर अच्छा नहीं लगता (जावेद अख़्तर)

Friday, March 28, 2008

इस्लाम धर्म के अनुयायी शुक्रवार को पवित्र क्यों मानते हैं?


वैसे तो इस्लामी मान्यता के अनुसार सभी दिन एक समान हैं लेकिन शुक्रवार को सैय्यदुल ऐय्याम कहा गया है यानी दिनों का सरदार. यह माना जाता है कि इसी दिन मानव जाति को बनाया गया था और प्रलय यानी क़यामत भी शुक्रवार को ही होगी. जो लोग मर चुके हैं एक बार फिर ज़िंदा किए जाएंगे और ख़ुदा के सामने पेश होंगे. इसे बड़े इश्तमा का दिन बताया गया है. क़ुरआन में सूर ए जुमा है जिसमें लिखा है कि अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ लपक कर जाओ और मिलजुलकर एक जगह एकत्र होकर उसका ज़िक्र करो. जुमा छुट्टी का दिन नहीं है लेकिन जब दोपहर के समय की अज़ान हो तो सभी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियाँ छोड़कर अल्लाह के ज़िक्र और नमाज़ के लिए एकत्र होना चाहिए. एक बात और है कि असर और मग़रिब की नमाज़ के बीच, यानी दोपहर बाद और सूर्यास्त की नमाज़ के बीच जो दुआ मांगी जाती है उसे अल्लाह विशेष रूप से क़ुबूल करता है.

बाल क्यों गिरते हैं?


सामान्य व्यक्ति की खोपड़ी में कोई एक लाख रोमकूप होते हैं और हरएक रोमकूप से उसके जीवन काल में कोई 20 बाल निकल सकते हैं. हर बाल एक महीने में कोई एक सेंटीमीटर बढ़ता है. एक वक़्त में सिर के 90 प्रतिशत बाल बढ़ रहे होते हैं जबकि 10 प्रतिशत आराम कर रहे होते हैं. आराम कर रहे बाल दो या तीन महीने के अंदर गिर जाते हैं. इस तरह हर रोज़ हमारे कोई 100 बाल गिर जाते हैं. यानी 100 बालों का गिरना सामान्य है. लेकिन अगर इससे अधिक बाल गिरते हैं तो चिंता होना लाज़मी है. इसके कई कारण हो सकते हैं. जैसे लंबी बीमारी या शल्य चिकित्सा के बाद अधिक बाल गिर सकते हैं. अगर आप अधिक तनाव की स्थिति में हैं तब भी बाल गिरते हैं. अगर आपकी थाइरॉइड ग्रंथि ठीक से काम नहीं कर रही तो उसका असर भी पड़ सकता है. बच्चा पैदा होने के बाद भी कई महिलाओं के बाल गिरने लगते हैं क्योंकि उनके शरीर में हारमोंस का संतुलन बिगड़ जाता है. कई दवाओं के प्रयोग से बाल गिरने लगते हैं जैसे ख़ून को पतला करने वाली दवा, कैंसर के इलाज में प्रयोग होने वाली दवाएं, गर्भनिरोधक दवाएं या ऐंटी डिप्रैसैंट. कई बार फ़ंगस इन्फ़ैक्शन से भी बाल गिरने लगते हैं.

सबसे पुराना ध्वनि दस्तावेज़ मिला


अमरीकी ध्वनि इतिहासकारों ने एक ऐसी रिकॉर्डिंग को खोजने और बजाने का दावा किया है जिसे मानव की रिकॉर्ड की गई आवाज़ का सबसे पुराना दस्तावेज़ माना जा रहा है.दस सेकेंड की यह रिकार्डिंग 1860 में बनी है. उसमें एक महिला की आवाज़ है और वह एक फ़्रैंच गीत का अंश गा रही है.

इतिहासकार इसे एडिसन की फ़ोनोग्राफ़ खोज से भी 17 वर्ष पुराना बता रहे हैं. फ़ोनोग्राफ़ एक ऐसा यंत्र है जिसमें रिकार्ड की हुई ध्वनियों को बजाया जाता है.

ध्वनि इतिहासकार डेविड गिओवन्नोनी ने गुरुवार को समाचार एजेंसी रायटर को को बताया, “यह जादुई है, यह उसी तरह से है जैसे भूत गा रहा हो.”


यह जादुई है, यह उसी तरह से है जैसे भूत गा रहा हो


डेविड गिओवन्नोनी, ध्वनि इतिहासकार

ध्वनि तकनीशियन और जानकार इसे मानव की आवज़ की शुरुआती रिकार्डिंग बता रहे हैं.

गिओवन्नोनी ने बताया कि इसे पर्सियन आविष्कारक एडुअर्ड-लेअन स्कॉट द मार्टिनविल्ले ने नौ अप्रैल 1860 को एक यंत्र ‘फ़ोनॉटोग्राफ़’ पर बनाया था. ये यंत्र ध्वनि को तेल वाले लैम्प के धुएं से काला किए गए काग़ज के टुकडे पर उकेरता है.

उन्होंने बताया कि शुक्रवार को ये रिकॉर्डिंग कैलिफ़ोर्निया में स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के एसोसिएशन फ़ॉर रिकार्डेड साउंड कलेक्शंस में प्रस्तुत की जाएगी.

गिओवन्नोनी ने कहा, “यह दुनिया कि सबसे पुरानी तस्वीर खोजने जैसा है जो कैमरे के आविष्कार के 17 वर्ष पहले ली गई थी.”

उन्होंने कहा कि फ़ोनॉटोग्राफ़ रिकार्डिंग कभी बजाने के लिए नहीं की जाती है.

“हमने ध्वनि की आकृतियों का अध्ययन किया था जिन्हें बाद में बजाया जा सका.”

'कश्मीर में बच्चों को बंदूक नहीं क़लम मिले'

पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सहअध्यक्ष आसिफ़ अली ज़रदारी ने कहा है कि कश्मीर में बच्चों को बंदूक की जगह क़लम दी जानी चाहिए.


उन्होंने कहा है कि कश्मीर में शांति होनी चाहिए और इस कश्मीर नीति को वे पाकिस्तान की संसद में लेकर जाएँगे.

जम्मू-कश्मीर के सत्ताधारी गठबंधन में शामिल पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रमुख महबूबा मुफ़्ती से मुलाक़ात के बाद ज़रदारी ने कहा कि लोकतंत्र में युद्ध के लिए कोई जगह नहीं होती.

महबूबा मुफ़्ती से मुलाक़ात के बाद ज़रदारी ने पत्रकारों से बातचीत की और कहा, "कश्मीर से आई मेरी बहन कह रही हैं कि वे अमन की बात करने आई हैं. तो मैं ये कहना चाहता हूँ मेरी पार्टी का हमेशा से यही मानना रहा है. जनता जंग नहीं करती."
हम तो चाहते हैं कि बंदूकों में ज़ंग लग जाए. हम तो आपसी भरोसा बढ़ाने के क़दमों की बात नहीं कर रहे. हम तो इस दिशा में कार्रवाई चाहते हैं. हम चाहते हैं कि हम आगे बढ़े और ये मसला हल हो


आसिफ़ ज़रदारी

पीडीपी की प्रमुख महबूबा मुफ़्ती बेनज़ीर भुट्टो की मौत के प्रति संवेदना व्यक्त करने ज़रदारी से मिली थीं. इस मुलाक़ात में दोनों के बीच कश्मीर पर विस्तार से बातचीत हुई जिसके बाद ज़रदारी ने ये बयान दिया है.

अमन

आसिफ़ अली ज़रदारी ने कहा कि उनकी पार्टी कश्मीर में अमन चाहती है. उन्होंने वादा किया है कि उनकी पार्टी में इस दिशा में कश्मीर नीति लेकर आएगी.

आसिफ़ अली ज़रदारी ने कहा कि वे चाहते हैं कि पूरे इलाक़े में शांति क़ायम हो और पाकिस्तान से लगी सभी सीमाओं पर अमन रहे.

उन्होंने कहा, "हम तो चाहते हैं कि बंदूकों में ज़ंग लग जाए. हम तो आपसी भरोसा बढ़ाने के क़दमों की बात नहीं कर रहे. हम तो इस दिशा में कार्रवाई चाहते हैं. हम चाहते हैं कि हम आगे बढ़े और ये मसला हल हो."

ज़रदारी ने यहाँ तक कहा कि वे चाहते हैं कि जिन बच्चों के हाथ में बंदूकें हैं उन्हें क़लम दी जाए, उन्हें कारोबार दे दी जाए, तो बेहतर होगा.

महबूबा मुफ़्ती ने भी कश्मीर मसले पर सुलह-सफ़ाई की पैरवी की और कहा कि इस समय ये मसला हल करने का सही समय है. उन्होंने कहा, "बहुत ख़ून बहा, यहाँ भी और वहाँ भी. हमें कोशिश करनी चाहिए कि सुलह-सफ़ाई हो. कारोबार बढ़ाना चाहिए और आने-जाने की सुविधाएँ मिलनी चाहिए."

पाकिस्तान में कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के यूसुफ़ रज़ा गीलानी के नेतृत्व में नई गठबंधन सरकार बनी है.

Sunday, March 23, 2008

उत्तर प्रदेश की आबादी पाकिस्तान से ज़्यादा


भारत की जनगणना के ताज़े आँकड़ों के अनुसार हर तीसरा भारतीय निरक्षर है. आबादी के लिहाज़ से उत्तर प्रदेश पहला राज्य है, जबकि लक्षद्वीप में सबसे कम लोग रहते हैं.
भारत के महापंजीयक जेके बाँठिया ने 2001 की जनगणना के विस्तृत आँकड़े जारी करते हुए शनिवार को दिल्ली में यह जानकारी दी.

समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार उन्होंने बताया कि 1991 से 2001 के बीच भारत की जनसंख्या में 18 करोड़ से भी ज़्यादा की वृद्धि हुई, यानी ब्राज़ील की अनुमानित जनसंख्या से भी ज़्यादा.

उल्लेखनीय है कि ब्राज़ील का स्थान आबादी की दृष्टि से दुनिया में पाँचवाँ है.

बंथिया ने कहा कि उत्तर प्रदेश में साढ़े सोलह करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं, यानी पाकिस्तान की अनुमानित आबादी से भी ज़्यादा.

दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र है जिसकी आबादी 9.7 करोड़ है, जबकि बिहार में सवा आठ करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं.

दूसरी ओर लक्षद्वीप में मात्र 61 हज़ार लोग रहते हैं.

पूर्ण साक्षरता की राह पर

बाँठिया ने बताया कि साक्षरता के क्षेत्र में भारत ने हाल के वर्षों में भारी प्रगति की है.

भारत की मौजूदा साक्षरता दर 64.8 प्रतिशत है.

अलग-अलग देखा जाए तो भारत में पुरुष साक्षरता 75.3 प्रतिशत, और महिला साक्षरता दर 53.7 प्रतिशत है.

यदि साक्षरता दरों की तुलना 1991 के आंकड़ों से की जाए तो पुरुष साक्षरता दर में 11 प्रतिशत और महिला साक्षरता दर में 14.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

जनगणना के चिंताजनक आंकड़ों में से एक है लैंगिक अनुपात का असंतुलन बढ़ना.

भारत में 2001 के आंकड़ों के अनुसार 1000 पुरुषों पर 927 महिलाएँ हैं. जबकि 1991 के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं का अनुपात 945 था.

जनगणना के 'संशोधित आँकड़े' जारी


भारत में मुसलमानों की आबादी तेज़ी से बढ़ने संबंधी आँकड़ों को लेकर उठे विवाद के बाद अब जनगणना आयोग ने 'संशोधित आँकड़े' जारी किए हैं और अब कहा गया है कि वृद्धि दर कम हुई है.
इन आँकड़ों के अनुसार मुसलमानों की आबादी 1991 की जनगणना के आँकड़ों के मुक़ाबले 29.3 प्रतिशत बढ़ी है.

पहले ये प्रतिशत 36 बताया गया था. इसके अनुसार मुसलमानों की आबादी बढ़ने की दर में लगभग डेढ़ प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई थी क्योंकि इससे पहले 1991 के आँकड़ों के अनुसार ये वृद्धि दर 34.5 बताई गई थी.

मगर अब आयोग ने इन आँकड़ों में संशोधन करते हुए जम्मू-कश्मीर और असम के वर्ष 2001 की जनगणना के आँकड़े निकालकर प्रतिशत निकाला है.

ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि 1991 में जम्मू-कश्मीर में और 1981 में असम में जनगणना नहीं हो सकी थी.

इस तरह अब जो आँकड़े आए हैं वे दिखाते हैं कि मुसलमानों की आबादी की दर बढ़ने के बजाए घटी ही है.

आयोग ने अब 'संशोधित' और 'बिना संशोधित' दो आँकड़े जारी किए हैं. आयोग के प्रमुख जेके बंठिया ने कहा है कि ये संशोधन किसी दबाव में नहीं किए गए हैं.

विवाद

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडू ने बंगलौर में यह कहकर विवाद खड़ा कर दिया था कि मुसलमानों की तेज़ी से बढ़ती आबादी भारत की राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए गंभीर चिंता का कारण है.

इसके बाद इस बात पर विवाद तेज़ हो गया था कि क्या धर्म के आधार पर अलग-अलग समुदायों के आँकड़ों का विश्लेषण ठीक है.

जनसंख्या से जुड़े मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि यह मामला इतना सरल नहीं है जितना दिखता है, इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, जागरूकता और आर्थिक स्तर जैसे पहलुओं पर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है.

वर्ष 2001 के आँकड़े दिखाते हैं कि हिंदुओं की जनसंख्या में 2.8 प्रतिशत की गिरावट रही जबकि सिखों की आबादी में 8.6 फ़ीसदी की गिरावट आई है.

नसबंदी कराओ, बंदूक पाओ!


मध्यप्रदेश के चंबल इलाके में बंदूक आन-बान और शान का प्रतीक मानी जाती है. लेकिन आजकल इसी शान को पाने के लिए यहाँ लोग नसबंदी करवा रहे है.
दरअसल, भिंड के ज़िला प्रशासन ने इन दिनों परिवार नियोजन को बढ़ावा देने के लिए एक योजना चला रखी है. जिसके मुताबिक़ नसबंदी कराने वाले पुरुषों को बंदूक का लाइसेंस हासिल करने में प्राथमिकता दी जा रही है.

भिंड जिले में ज़्यादा से ज़्यादा मर्द इस साल नसबंदी करवाने के लिये आगे आ रहे हैं. इस उम्मीद के साथ की उन्हें बंदूक का लाइसेंस आसानी से मिल जायेगा.

पिछले साल मात्र आठ पुरुषों ने नसबंदी कराई थी. लेकिन, इस साल अब तक 175 से भी ज़्यादा लोग नसबंदी करवा चुके हैं.

भिंड के ज़िलाधिकारी मनीष श्रीवास्तव कहते हैं, "इस साल अच्छे नतीजे सामने आए हैं. बंदूक के लाइसेंस की उम्मीद में काफी लोगों ने नसबंदी करवाई है."

चंबल के इलाक़े में लोगों के बंदूक-प्रेम का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भिंड ज़िले में 23 हज़ार लाइसेंसी बंदूके हैं.

जबकि, 11 हज़ार शिवपुरी ज़िले में और 15 हज़ार लाइसेंसी बंदूकें मुरैना ज़िले में हैं.

बंदूक है तो शान है
चंबल इलाक़े में सड़क पर चलते हुये आप आसानी से ऐसे दर्जनों लोगों को देख सकते है, जिनके कंधे पर बंदूक टंगी होती है.


चंबल का बंदूक प्रेम
भिंड ज़िले में 23,000 बंदूकें
शिवपुरी में 11,000 बंदूकें
मुरैना में 15,000 बंदूकें
यहां के सुमेर पटेल कहते हैं, "हर परिवार की पहली कोशिश यही होती है कि उनके पास एक बंदूक हो. अगर दो हो तो भी कोई बुराई नही है."

वहीं, अमर सिंह कहते हैं कि बंदूक उनकी इज़्ज़त से जुड़ा हुआ मामला है. यही वजह है कि हर किसी की कोशिश होती है कि उनके पास कम से कम एक बंदूक तो हो.

नसबंदी करवा चुके संजीव डागा कहते हैं, "जिला प्रशासन का ये फैसला अच्छा है. मुझे बंदूक हासिल करने के लिए नसबंदी रिपोर्ट लगानी पड़ी. उम्मीद है कि लाइसेंस जल्द ही मिल जाएगा."

नसबंदी का ऑपरेशन करवा कर बंदूक हासिल करने वाले पंकज भी कहते हैं कि ज़िला प्रशासन की पहल अच्छी है.

लेकिन, इस इलाक़े में समाज सेवा करने वाले केएस मिश्रा इस मामले में कुछ अलग सोचते हैं. उनका कहना है "बंदूक के लिये यहाँ के लोग कुछ भी कर सकते है. मगर परिवार नियोजन को बढ़ावा देने के इस तरीके को सही नहीं कहा जा सकता."

वो कहते हैं कि प्रशासन को दूसरे तरीक़े आज़माना चाहिए न कि इस तरह बंदूक के लाइसेंस देने की बात करनी चाहिये.

इन सब के बीच यहां के लोग खुश हैं कि आखिर उन्हें बंदूक का लाइसेंस बिना किसी दिक़्क़त के मिल रहा है. वो भी एक छोटे से ऑपरेशन के बाद.

Monday, March 17, 2008

'सबको लुभाती है लंबी टाँगें'


मर्द और औरतों का एक दूसरे के लिए आकर्षण प्राकृतिक समझा जाता है लेकिन एक ताज़ा शोध में ऐसा भी सामने आया है कि सामान्य से थोड़ी लंबी टाँग वाले मर्द और औरतें एक-दूसरे को ज़्यादा आकर्षित करते हैं.पोलैंड में किए गए एक शोध का नतीजा यही है कि अगर आपकी टाँगे आम लोगों की टाँगों से ज़्यादा लंबी है तो यक़ीन मानिए आप पर ज़्यादा लोगों की नज़रें टिकी होंगी.

शोधकर्ताओं ने महिलाओं और पुरुषों के एक समूह को कुछ तस्वीरें दीं जिनमें दोनों को वही तस्वीरें भाईं जिनमें चालाकी से पैरों की लंबाई को असली लंबाई से पाँच फ़ीसदी बढ़ा दिया गया था.

लेकिन "न्यू साइंटिस्ट" में छपी इस शोध रिपोर्ट का यह भी कहना है कि टाँगे बहुत ज़्यादा लंबी हों तो भी वे आकर्षक नहीं रह जाती.

तस्वीरों में मूल लंबाई से 15 फ़ीसदी ज़्यादा लंबी दिखाई गई टाँगों को लेकर साफ़तौर पर कम रोमांच देखने को मिला.

टाँगों की मूल जोड़ी को लेकर आकर्षण का स्तर वैसा ही पाया गया जैसा कि लंबाई में 10 फ़ीसदी की वृद्धि कर बनाई गई तस्वीरों को लेकर दर्ज किया गया.

'लंबी टाँगें, स्वस्थ शरीर'वर्कले यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पुरुष और महिलाओं की सात तस्वीरों में टाँगों की लंबाई के साथ कंप्यूटर पर छेड़छाड़ की.

महिलाओं और पुरुषों की ये टाँगें अलग-अलग लंबाई वाली थीं.

शोधकर्ताओं ने असली लंबाई से छेड़छाड़ कर बनाई गई तस्वीरों को पसंद करने के लिए 218 लोगों के सामने रखा. पसंद करने वालों में पुरुष और महिलाएँ दोनों को रखा गया था.

शोधकर्ताओं की टीम के मुखिया डॉ. बोगस्लॉ पावलॉस्की कहते हैं, "लंबी टाँगे अच्छे स्वास्थ्य का परिचायक है."

उन्होंने यह भी कहा कि अगर कोई सर्वेक्षण कराया जाए तो उसमें भी लंबी टाँगों को लेकर नतीजे इससे अलग नहीं होंगे.

'छोटी टाँगें, रोग का योग'
बहुत से ऐसे शोध सामने आए हैं जिनसे इस तरह के निष्कर्ष बढ़ रहे हैं जिनमें लंबी टाँगों को बेहतर स्वास्थ्य से जोड़ा गया है.


बहुत लंबी भी ठीक नहीं...
यह बहुत रोचक है कि मामूली रूप से लंबी टाँग वाले, बहुत लंबी टाँगें वालों से ज़्यादा लुभावने होते हैं. लोग मामूली वृद्धि को तरज़ीह देते हैं लेकिन टाँगें इतनी भी लंबी न हो जाएँ कि वो अजीब दिखने लगे


डॉक्टर जॉर्ज फ़ील्डमैन, मनोवैज्ञानिक

हाल में ब्रिटेन में एक अध्ययन का तो यह कहना था कि छोटी टाँग वाले लोगों को लीवर की बीमारी का ख़तरा ज़्यादा होता है.

बकिंघमशर न्यू यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के मुख्य व्याख्याता डॉक्टर जॉर्ज फ़ील्डमैन कहते हैं कि लंबी टाँगें शायद पहली चीज़ नहीं हों जिसे सामने वाला देखता है.

उनका कहना है कि इस लिहाज़ से शरीर का वह पूरा हिस्सा महत्वपूर्ण है जिस पर महिलाएँ या पुरुष सबसे पहले नज़र फेरते हैं.

वह कहते हैं, "यह बहुत रोचक है कि मामूली रूप से लंबी टाँग वाले लोग, बहुत लंबी टाँग वालों से ज़्यादा लुभावने होते हैं. लोग मामूली वृद्धि को तरजीह देते हैं लेकिन टाँगें इतनी भी लंबी न हो जाएँ कि वो अजीब दिखने लगे."

'ज़्यादा ईर्ष्यालु' होते हैं छोटे क़द वाले


कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि छोटे क़द के लोगों के ईर्ष्यालु होने की ज़्यादा संभावना होती है. ये हो सकता है कि मर्द और औरतों में इसके कारण अलग-अलग हों.
स्पेन और पुर्तगाल के शोधकर्ताओं ने 549 पुरुषों और महिलाओं से कई तरह के सवाल किए जिससे यह समझा जा सके कि वे किन चीज़ों को लेकर कितनी जलन महसूस करते हैं और ख़ुद को असुरक्षित पाते हैं.
'न्यू साइंटिस्ट' पत्रिका में छपे इस अध्ययन में पाया गया कि छोटे क़द वाले पुरुष अपने को अमीर, मज़बूत और आकर्षक प्रतिद्वंद्वियों से कमज़ोर पाते हैं. जबकि लंबे लोग ऐसी बातों से बेफ़िक्र रहते हैं.
महिलाओं के बीच ईर्ष्या का सबसे बड़ा कारण दूसरे औरत की सुंदरता और उसकी चमक को पाया गया. छोटी और लंबी क़द की महिलाओं में यह ईर्ष्या सबसे ज़्यादा दिखी.
औसत लंबाई की औरतें कम ईर्ष्यालु होती हैं लेकिन अलग लंबाई की औरतों से ख़ुद को असुरक्षित महसूस करती हैं.
ग्रोनिनगेन और वेलेंसिया विश्वविद्यालय के दल की इस शोध में पाया गया कि औसत क़द की महिलाएँ ज़्यादा स्वस्थ और सफल होना चाहती हैं. परिणाम यह होता है कि इन गुणों से संपन्न महिलाएँ उनकी भाती हैं.
शोधकर्ताओं का कहना है कि औसत क़द की महिलाएँ सामाजिक स्थिति या शारीरिक मज़बूती जैसे मर्दाना लक्षण वाली लंबी क़द की महिलाओं से ज़्यादा जलती हैं.

'शान से जुड़ा है क़द'

मूल रूप से 'जर्नल ऑफ़ इवोल्यूशन एंड ह्यूम बिहेवियर' में छपी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि लंबी क़द के पुरुष कम ईर्ष्यालु हो सकते हैं क्योंकि मर्दों में लंबाई को आकर्षक व्यक्तित्व और बेहतर प्रजनन क्षमता से जोड़कर देखा जाता है.

शोधकर्ताओं का कहना है कि प्राणी जगत के दूसरे जीवों में भी यह बात दिखती है कि लंबा पुरुष जीव लड़ाई जीतता है, प्रभाव कायम करता है और मादा तक पहुँच के मामले में वर्चस्व रखता है.

शोधदल का मानना है कि मानव में लंबाई वह चीज़ है जिस पर किसी की भी नज़र सबसे पहले जाती है और यह प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ मामला है.

इन लोगों ने पिछले दिनों किए गए उन अध्ययनों का हवाला भी दिया है जिनमें बताया गया था कि लंबे मर्द करियर में ज़्यादा सफल होते हैं, ज़्यादा कमाते हैं और उनके पास ज़्यादा आकर्षक महिला मित्रों का साथ होता है.

मुख्य शोधकर्ता अब्राहम कहते हैं कि अब इस शोध से यह पता चलता है कि लंबे क़द के मर्द मनोवैज्ञानिक तौर पर भी लाभ की स्थिति में रहते हैं.

लेकिन मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि ईर्ष्या के पीछे दूसरे कारण काम करते हैं.

ब्रिटिश मनोवैज्ञानिक समिति के सिमॉन गेल्सथोर्पे कहते हैं, "ईर्ष्या एक तरह का ख़ौफ़ है. यह अपने प्यार को खोने का डर है."

Wednesday, March 12, 2008

अश्लील वेबसाइट के ख़तरे


दफ़्तर में बैठ कर इंटरनेट पर पोर्नोग्राफ़िक या अश्लील साइट देखने वाले सावधान हो जाएँ. यदि आपके किसी सहयोगी को उससे असुविधा है और उसने शिकायत कर दी तो आपकी नौकरी जा सकती है.
एक नए सर्वेक्षण के मुताबिक अधिकतर कंपनियाँ जब अपने कर्मचारियों को इंटरनेट के दुरुपयोग की वजह से बर्ख़ास्त करती हैं तो उसका कारण यह होता है कि वे पोर्नोग्राफ़िक वेबसाइट देख रहे होते हैं.

ब्रिटेन की एक चौथाई कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को इंटरनेट के दुरुपयोग की वजह से नौकरी से निकाला है.


दफ़्तरों में इंटरनेट का दुरुपयोग एक आम बात है
लगभग पाँच सौ प्रबंधकों से बात करने पर पता चला कि इन कर्मचारियों के बारे में लगभग 40 प्रतिशत शिकायतें सहयोगियों की ओर से होती हैं.

इस नए अनुसंधान के मुताबिक बर्ख़ास्त किए गए 69 फ़ीसदी कर्मचारी पोर्नोग्राफ़िक साइट्स देखते हुए पाए गए.

यह भी पता चला कि इन प्रबंधकों में से आधे शिकायतें मिलने पर कर्मचारियों के साथ आपस में बातचीत करना पसंद करते हैं लेकिन 29 प्रतिशत मौखिक चेतावनी देने का रास्ता अपनाते हैं.

इंटरनेट का दुरुपयोग

पर्सनेल टुडे पत्रिका और वेबसीन फ़र्मे के लिए संयुक्त रूप से किए गए इस अध्ययन में 544 मानव संसाधन प्रबंधकों और ऐसी कंपनियों के अधिकारियों से बात की गई जहाँ औसतन ढाई हज़ार लोग काम करते हैं.

क़ानूनी फ़र्म मॉर्गन कोल के बैरिस्टर जोनाथन नेलर का कहना है," इंटरनेट के दुरुपयोग के लिए किसी कर्मचारी को निकालना कंपनी को ख़ासा महंगा पड़ता है".
"नए कर्मचारी के लिए विज्ञापन, भर्ती और प्रशिक्षण आदि का ख़र्च तो है ही इससे अन्य कर्मचारियों का मनोबल प्रभावित होता है और कंपनी की साख पर भी असर पड़ता है".

अक्तूबर, 2000 में ब्रिटेन के कंपनी मालिकों को यह जानने का अधिकार मिल गया कि उनका स्टाफ़ इंटरनेट पर क्या देख रहा है या ईमेल के ज़रिए किस तरह के संदेश भेज रहा है.

कुछ कंपनियाँ फ़िल्टर सिस्टम का भी इस्तेमाल करती हैं जो कुछ आपत्तिजनक साइट्स पर जाने से रोक देता है.

फ़िल्टर का इस्तेमाल यह जानने के लिए भी होता है कि कहीं कर्मचारी कंपनी को धोखा देने या उसके गोपनीय फ़ैसले प्रतिद्वंद्वियों को बेचने के लिए तो नहीं कर रहे हैं.

लेकिन कुछ कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को यह अनुमति दे रखी है कि वे भोजनावकाश में ख़रीदारी, खेल और भ्रमण से संबद्ध साइट्स देख सकते हैं.

प्रेम सचमुच अँधा होता है:वैज्ञानिक खोज


प्यार अँधा होता है-यह मात्र एक कहावत ही नहीं है.वैज्ञानिकों ने वे तथ्य जुटा लिए हैं जो यह बात साबित करते हैं.

एक अध्ययन से पता चला है कि प्रेम होने पर दिमाग़ में कुछ उन गतिविधियों पर अंकुश लग जाता है जो किसी को आलोचनात्मक नज़र से देखती हैं.

उस व्यक्ति के क़रीब होने पर दिमाग़ ख़ुद बख़ुद यह तय करने लगता है कि उसके चरित्र और व्यक्तित्व का कैसे आकलन किया जाए.

यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ लंदन का यह अध्ययन न्यूरोइमेज पत्रिका में छपा है.

माँ की ममता

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि दिमाग़ पर इस तरह का असर रोमांस के दौरान भी होता है और ममता के तहत भी.

माँ की ममता भी बच्चे की अच्छाइयाँ ही देख पाती है

यानी माँ का बच्चे से लगाव भी कुछ इसी तरह का प्रभाव पैदा कर देता है.

उस समय नकारात्मक भावनाएँ कहीं गहरे दब जाती हैं.

शोधकर्ताओं के दल ने 20 युवा माँओं के दिमाग़ का उस समय अध्ययन किया जब उन्हें उनके अपने बच्चों और उनके परिचितों के बच्चों के चित्र दिखाए गए.

उन्होंने पाया कि उस समय मस्तिष्क की गतिविधियाँ कुछ ऐसी ही थीं जैसी रोमांटिक युगल की होती हैं.

दोनों अध्ययनों से पता चला कि उस समय दिमाग़ की कुछ ऐसी ही स्थिति होती है जैसी अचानक धन मिल जाने या अच्छा खाने-पीने के समय होती है.

इसी तरह के परिणाम जानवरों में भी देखने में आए.

लेकिन अनुसंधान से यह भी पता चला कि रोमांटिक और ममता से जुड़ी भावनाओं में एक बुनियादी फ़र्क़ है.

प्रेमी-प्रेमिका के दिमाग़ के उस हिस्से में भी गतिविधियाँ तेज़ हो जाती हैं जो सेक्स उत्तेजना से संबद्ध हैं.

'बस साल भर रहता है रूमानी प्यार'


शायद बहुत सारी जोड़ियाँ इस शोध से असहमत हों लेकिन इटली के कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि जीवन में रोमांस साल भर से थोड़ा ही अधिक ही समय के लिए रहता है.
इटली की पाविया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का कहना है कि किसी के जीवन में पहला-पहला-प्यार-है का जो संगीत बजता है, उसके पीछे असल भूमिका संभवतः मस्तिष्क में रहनेवाले एक रसायन की होती है.

शोधकर्ताओं ने पाया कि किन्हीं दो लोगों के बीच जिनके बीच नया-नया प्यार पनपा हो उनमें इस प्रोटीन का स्तर अधिक होता है.

लेकिन जब ऐसे लोगों की जिनके बीच संबंध लंबे समय से चले आ रहे हों, उनकी जाँच की गई, या ऐसे लोगों को परखा गया जो अभी प्यार की गाड़ी में सवार नहीं हुए हों, तो देखा गया कि इस प्रोटीन का स्तर कम था.

शोध

प्यार और अधिक स्थायी होता है. लेकिन रोमांस वाला प्यार शायद ख़त्म हो जाता है


एक शोधकर्ता

इस प्रोटीन को न्यूट्रोफ़िन्स कहा जाता है और शोधकर्ताओं ने 18 से 31 वर्ष तक की उम्र के पुरूषों और औरतों में इस प्रोटीन की जाँच की.

साइकोएंडोन्यूरोएंडोक्राइनलॉजी नामक जर्नल में छपी रिपोर्ट में कहा गया है कि शोधकर्ताओं ने 59 ऐसे लोगों की जाँच की जिन्होंने हाल ही में संबंधों की शुरूआत की थी.

उनकी तुलना की गई 59 ऐसे लोगों से जो या तो बहुत पहले से अपने साथी के साथ रह रहे थे या अकेले थे.

शोधकर्ताओं ने पाया कि जिनके संबंध हाल ही में शुरू हुए थे इसमें इस प्रोटीन का स्तर अधिक पाया गया.

लेकिन रिपोर्ट तैयार करनेवाले एक शोधकर्ता ने ये कहा कि इसका अर्थ ये लगाना ग़लत होगा कि लोगों में प्रेम नहीं रहा, बल्कि ये सही होगा कि पहले जैसा भड़कीला प्यार नहीं रहा.

शोधकर्ता ने कहा,"प्यार और अधिक स्थायी होता है. लेकिन रोमांस वाला प्यार शायद ख़त्म हो जाता है".

वैसे उन्होंने कहा कि रूमानी प्रेम के बारे में वैज्ञानिकों का ज्ञान अभी बहुत कम है और इस बारे में और अधिक शोध करने की आवश्यकता है.

सृजनशील लोगों पर बरसता है प्यार


अगर आपको अपने जीवन में प्यार बढ़ाना है तो शायद आपको स्वयं को सृजनशील बनाना होगा.
ब्रिटेन के कुछ शोधकर्ताओं ने पाया है कि व्यक्ति जितना सृजनशील या रचनाशील होता है, उसके प्रेमियों की संख्या भी उतनी ही अधिक होती है.

शोधकर्ता कहते हैं कि एक कलाकार या कवि के जीवन में औसतन चार से 10 संगी आते हैं जिनके साथ उनके शारीरिक संबंध बनते हैं.

वहीं जो लोग सृजनशील नहीं होते उनके जीवन में तीन संगी आते हैं.

न्यूकासल एंड ओपन विश्वविद्यालय के इन शोधकर्ताओं ने 425 व्यक्तियों पर अध्ययन के बाद अपना निष्कर्ष निकाला है.

शोध

ये बहुत आम बात है कि सृजनशील लोगों के कामुक व्यवहार को लोग झेलते भी हैं, उनके जो संगी होते हैं वो भी इस बात में अधिक भरोसा नहीं रखते कि वह व्यक्ति उसके साथ निष्ठा बनाए रखेगा


डॉक्टर डेनियल नेटल

शोधकर्ताओं के अनुसार सृजनशील या रचनाशील व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के सकारात्मक पक्ष को उभार सकते हैं.

डॉक्टर डेनियल नेटल कहते हैं कि सृजनशील लोग ऐसी जीवनशैली में रहते हैं जो निर्बंध होती है, अनियमित होती है और समाज के सामान्य लोगों से अलग होती है.

डॉक्टर नेटल के अनुसार ऐसे लोग अक्सर साधारण लोगों से कहीं अधिक यौन संबंधों की ओर झुकाव दिखाते हैं जिसमें से कई बार उनका उद्देश्य केवल अनुभव प्राप्त करना होता है.

डॉक्टर नेटल का कहना है,"ये बहुत आम बात है कि उनके इस कामुक व्यवहार को लोग झेलते भी हैं, उनके जो संगी होते हैं वो भी इस बात में अधिक भरोसा नहीं रखते कि वह व्यक्ति उसके साथ निष्ठा बनाए रखेगा".

लेकिन उन्होंने कहा कि इस तरह के व्यवहार के नकारात्मक परिणाम भी हो सकते हैं.

उन्होंने कहा,"इस तरह के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति को अवसाद या आत्महत्या की इच्छा जैसे मानसिक रोगों का ख़तरा होता है".

उदाहरण

इस तरह के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति को अवसाद या आत्महत्या की इच्छा जैसे मानसिक रोगों का ख़तरा होता है


डॉक्टर डेनियल नेटल

अतीत में ऐसे कई उदाहरण नज़र आते हैं जो अपनी यौन इच्छाओं के लिए कुख्यात रहे हैं तो दूसरी तरफ़ अपनी सृजनशील के लिए विख्यात भी.

ऑन द वाटरफ़्रंट और द गॉडफ़ादर जैसी फ़िल्मों से जाने जानेवाले अभिनेता मार्लन ब्रांडो के कम-से-कम 11 बच्चे थे. उन्होंने तीन बार शादी की थी और उनका अनेक महिलाओं से संबंध था.

वहीं कैसानोवा का दावा था कि उसकी स्मृति में उसके 100 से भी अधिक महिलाओं से संबंध रहे हैं.

उसके संबंध रूस की कैथरीन द ग्रेट से लेकर फ्रांस के दार्शनिक वोल्तेयर तक से थे.

लेकिन वो काफ़ी पहले ही यौन रोग का शिकार हो गए और वेनिस की एक जेल से भागने के बाद निर्वासन में ही उनकी मौत हो गई.

सिर्फ़ एक झलक तोड़ सकती है ध्यान


यह तो हम सब पढ़ते-सुनते ही आ रहे हैं कि विश्वामित्र का ध्यान भंग करने के लिए मेनका जैसी अप्सरा को भेजा गया था और वह अपने मिशन में कामयाब भी रही थी.
ये तो है पुराने ज़माने की बात लेकिन आज के ज़माने में भी कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि सुंदर और आकर्षक महिलाओं की एक झलक भर पुरुषों का ध्यान बँटाने और फ़ैसला लेने की उनकी क्षमता को छिन्न-भिन्न कर सकती है.

प्रोसीडिंग्स ऑफ़ द रॉयल सोसायटी में प्रकाशित इस अध्ययन से पता चला कि आकर्षक महिलाओं को देखने भर से पुरुषों में यौन संबंधी विचार जागने लगते हैं जिससे उनका ध्यान इस हद तक भंग हो सकता है कि वो फ़ैसला लेने की स्थिति में भी ना रहें.

बेल्जियम के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन किया है जिसमें कुछ ऐसे पुरुषों को महिलाओं की आकर्षक तस्वीरें दिखाई गईं जो एक ऐसा खेल खेलने वाले थे जिसमें कुछ हिसाब-किताब भी करना था.

इस अध्ययन में 18 से 28 साल की उम्र के 176 छात्रों को ये पहेली हल करने के लिए दी गई.

लेकिन उनमें से आधे छात्रों को आकर्षक महिलाओं की तस्वीरें वग़ैरा दिखाई गईं. 44 पुरुषों को कुछ तस्वीरें दिखाई गईं और उन पर उनकी राय माँगी गई.

इनमें कुछ प्राकृतिक नज़ारों की तस्वीरें थीं तो कुछ छात्रों को आकर्षक महिलाओं की तस्वीरें दिखाई गईं.

छात्रों के एक अन्य दल में से कुछ छात्रों को वृद्ध महिलाओं की तस्वीरें दिखाई गईं और कुछ को युवा मॉडल महिलाओं की.

इसके बाद छात्रों के हर एक दल से एक ऐसे खेल में शामिल होने के लिए कहा गया जिसमें कुछ पैसे का लेन-देन भी शामिल था.

तस्वीरों का खेल

इस अध्ययन के नतीजों से पता चला कि जिन पुरुषों को आकर्षक महिलाओं की तस्वीरें और अन्य आकर्षक चीज़ें दिखाई गई थीं उन्होंने पैसे गँवाने वाला फ़ैसला लिया जबकि जिन पुरुषों को इस तरह की चीज़ें नहीं दिखाई गई थीं उन्होंने कारोबारी तौर पर सही फ़ैसला लिया.


ख़ूबसूरती का अलग असर होता है

शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसी इसलिए होता है कि कुछ पुरुष आकर्षक महिलाओं के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं और ऐसा उनमें यौन हार्मोन्स की वजह से होता है.

इस अध्ययन में भाग लेने वाले डॉक्टर सीगफ्रेड डीविट्टे का कहना है कि मानव एक ऐसा जीव है जिसके अंदर विवेकशीलता प्राकृतिक रूप से ही होती है लेकिन इस अध्ययन से पता चलता है कि जिन पुरुषों में टेस्टोस्टीरोन नामक हार्मोन का स्तर ज़्यादा होता है वे ख़ासतौर से यौन गतिविधियों के लिए ज़्यादा संवेदनशील होते हैं.

अगर ऐसा कोई माहौल आसपास नहीं है तो वे सामान्य रूप से बर्ताव करते हैं लेकिन अगर उन्हें आकर्षक महिलाएँ नज़र आती हैं तो उनके अंदर भावनाओं का आवेग जाग उठता है.

लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि यह एक प्रवृत्ति है और ऐसी बात नहीं है कि इस तरह के पुरुषों में इसका सामना करने की ताक़त नहीं होती. वैज्ञानिकों के अनुसार हार्मोन का कोई ख़ास स्तर होना एक अलग बात है लेकिन इस कमज़ोरी को दूर किया जा सकता है.

दिलचस्प बात ये है कि अब इसी तरह का अध्ययन महिलाओं पर भी किया जा रहा है.

बड़ी उम्र में भी है यौनरोगों का ख़तरा



एक ताज़ा शोध में कहा गया है कि साथी का इतिहास जाने बिना यौन संबंधों में कंडोम का इस्तेमाल नहीं करने के कारण पचास से ऊपर की उम्र वाले लोग ख़ुद को यौन संक्रमण के "ख़तरे" में ढकेल रहे हैं.
शोध का कहना है कि सर्वेक्षण में शामिल हर दस में एक आदमी ने क़बूल किया कि अपने साथी के यौन इतिहास की जानकारी नहीं रहते हुए भी उन्होंने संक्रमण से बचाव के लिए कंडोम का उपयोग नहीं किया.

यौन संबंध से होने वाला संक्रमण (एसटीआई) आम तौर हर उम्र वर्ग में दिख रहा है. इसमें पचास की उम्र पार कर चुके लोग भी शामिल हैं.

"सागा" पत्रिका ने इस सर्वेक्षण में पचास साल से ज़्यादा उम्र के क़रीब आठ हज़ार लोगों से पूछताछ की.

सर्वेक्षण में इन लोगों के सामान्य स्वास्थ्य के अलावा उनकी यौन ज़िंदगी की भी परख की गई.

पत्रिका की संपादक एम्मा सोम्स कहती हैं, "आम मान्यता है कि यौन संक्रमण का ख़तरा युवाओं को है. पचास से ऊपर वाले आमतौर पर गर्भनिरोधक उपाय नहीं करते क्योंकि उन्हें असुरक्षित यौन संबंध बनाने में कोई ख़राबी नज़र नहीं आती."

बढ़ते मामले

स्वास्थ्य सुरक्षा एजेंसी ने भी इस बात की पुष्टि की है कि यौन संबंधों से फैल रहे संक्रमण के मामले सभी उम्र के लोगों में बढ़े हैं.

एजेंसी की एसटीआई शाखा के प्रमुख ग्वेंडा हग्स कहते हैं, "हो सकता है कि ज़्यादा उम्र के लोगों में इस बात को लेकर कम जागरूकता हो कि उन्हें एसटीआई का ख़तरा है."


संक्रमण में बेमानी है उम्र...
ग्वेंडा हग्स कहते हैं, "आपकी उम्र कितनी भी क्यों न हो, अगर आप नई साथी से संबंध बना रहे हैं और कंडोम का इस्तेमाल नहीं करते हैं तो आपको संक्रमण हो सकता है."

पत्रिका के अध्ययन में शामिल किए गए 65 फ़ीसदी लोग यौन संबंधों को लेकर सक्रिय मिले.

क़रीब-क़रीब आधे लोगों ने कहा कि वे सप्ताह में कम से कम एक बार ज़रूर यौन संबंध क़ायम करते हैं.

संपादक सोम्स कहती हैं, "बड़ी उम्र में लोग सेक्स कर रहे हैं और कोई शक नहीं कि इसमें वियाग्रा की अहम भूमिका है."

सोम्स कहती हैं, "यौन क्षमता बढ़ाने में मददगार दवाओं का इस्तेमाल कई लोगों की ज़िंदगी में शामिल हो गया है. कई जोड़ियों में यह लंबे समय तक यौन संबंध बनाने की आकांक्षा पूरी कर रहा है."

सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई कि पचास से ज़्यादा उम्र वालों में सेक्स का स्तर बेहतर था.

कम दबाव

सर्वेक्षण में शामिल 85 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि पचास साल की उम्र के बाद सेक्स कम तनाव देता है जबकि 70 फ़ीसदी लोग इसे जवानी के दिनों से ज्यादा संतुष्टि देने वाला मानते हैं.


लोगों का कहना रहा कि बड़ी उम्र में सेक्स के दौरान वे कम तनाव महसूस करते हैं

पत्रिका का कहना है कि ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि उम्र के उस दौर में लोग कम से कम तनाव और शरीर से सुविधाजनक महसूस करना चाहते हैं.

हालाँकि बड़ी उम्र में लोग यौवन के दिनों से कम सेक्स करते हैं. 84 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि 20 और 30 साल की उम्र की तुलना में पचास के बाद वे यौन संबंध कम बनाते हैं.

सोम्स कहती हैं, "संख्या कोई मामला ही नहीं है. वे स्तरीय संबंध का आनंद ले रहे हैं."

सर्वेक्षण में ऊपर के दो सामाजिक-आर्थिक समूह के लोगों को शामिल किया गया था और इनमें 75 फ़ीसदी शादीशुदा थे.

एक चौथाई अमरीकी लड़कियों को यौनरोग!


एक अध्ययन से संकेत मिले हैं कि अमरीका में हर चार में से एक लड़की यौनरोग से पीड़ित है.
अमरीका के 'सेंटर्स फॉर डीज़ीज़ कंट्रोल' (सीडीसी) के इस अध्ययन में कहा गया है कि यौनजनित रोगों से पीड़ित अश्वेत युवतियाँ की संख्या इससे भी अधिक है.

इस अध्ययन में देश भर से 14 से 19 साल की 838 लड़कियों की जाँच का विश्लेषण किया गया है.

इसमें गर्भाशय के कैंसर के लिए ज़िम्मेदार वायरस 'एचपीवी' के मामले सबसे अधिक पाए गए. इसके बाद क्लैमिडिया, ट्राइकोमोनियासिस और हर्पीस रोगों के मामले मिले हैं.

सीडीसी का कहना है कि यह अपने तरह का पहला अध्ययन है और इसमें कहा गया है कि यौनजनित रोगों का शिकार नवयुवतियाँ अधिक होती हैं.

अध्ययन में पाया गया कि लगभग आधी अफ़्रीकन-अमरीकी लड़कियाँ कम से कम एक यौनजनित रोग से पीड़ित हैं जबकि श्वेत और मैक्सिकन-अमरीकी लड़कियों में इसका प्रतिशत 20 के क़रीब पाया गया.

अध्ययन में पाया गया है कि लगभग 18 प्रतिशत लड़कियाँ एचपीवी का शिकार हैं.

गंभीर मामला


गर्भाशय के कैंसर का टीका 11-12 की उम्र में लगवाने की सलाह दी जाती है

सीडीसी के डेविड फ़ेंटन का कहना है कि यह एक गंभीर मसला है क्योंकि इन रोगों की वजह से लड़कियों में बाँझपन और गर्भाशय के कैंसर की समस्या हो सकती है.

उन्होंने कहा, "यौन संबंध बनाने वाली लड़कियों की नियमित जाँच, टीके और बचाव के दूसरे उपाय हमारी सबसे बड़ी स्वास्थ्य प्राथमिकता है."

सीडीसी ने कहा है कि क्लैमिडिया के लिए यौन-सक्रिय 25 वर्ष से कम आयु की सभी युवतियों की नियमित जाँच होनी चाहिए जबकि एचपीवी से बचाव के लिए 11-12 वर्ष की आयु में लड़कियों को टीके लगवाए जाने चाहिए और बाद में एक बूस्टर टीका भी लगवाना चाहिए.

सीडीसी के यौनरोग विभाग के प्रमुख जॉन डगलस का कहना है कि लड़कियाँ इन रोगों की जाँच नहीं करवाती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनको कोई ख़तरा ही नहीं है.

विश्लेषकों का कहना है कि डॉक्टर भी अक्सर इन रोगों की जाँच नहीं करते क्योंकि इसके नतीजे अभिभावकों को बताने होंगे और इससे मरीज़ की गोपनीयता प्रभावित हो सकती है.