Thursday, October 2, 2008

लड़की या लड़का माँ की सोच का नतीजा

Posted on 8:16 PM by Guman singh

Dingal news!

अगर कोई महिला यह सोचे कि वह कितने दिन जीवित रहने वाली है, या यह दुनिया अच्छी है या बुरी, तो उसकी इस सोच का असर उसके बच्चे पर निर्णायक रूप में पड़ सकता है.
वैज्ञानिकों का कहना है कि यहाँ तक कि इस सोच का असर उसके बच्चे के लिंग निर्धारण में भी निर्णायक रूप में पड़ सकता है.
ब्रिटेन के केंट विश्वविद्यालय में जीव विज्ञान की शिक्षक डॉक्टर सारा जोन्स ने निष्कर्ष निकाले हैं कि जो महिलाएँ आशावादी होती हैं उनको बेटा पैदा होने की ज़्यादा संभावना होती है.
डॉक्टर जोन्स ने 609 ऐसी महिलाओं से बातचीत की जो हाल ही माँ बनी थीं.
डॉक्टर जोन्स ने पाया कि जो महिला अपनी जितनी लंबी उम्र के बारे में सोचती, उसके हर एक साल के लिए बेटा पैदा होने की संभावना बढ़ती जाती.
पहले के शोधों में पाया गया है कि जो महिला शारीरिक रुप से स्वस्थ होती है और सुविधाजनक और आरामदेह ज़िंदगी जीती है, उनको बेटा पैदा होने की संभावना ज़्यादा रहती है.
इसके उलट जो महिलाएँ मुश्किल हालात में ज़िंदगी जीती हैं, उनके यहाँ बेटी पैदा होने की संभावना ज़्यादा होती है.
डॉक्टर सारा जोन्स ने महिलाओं से उनके रुख़ के बारे में जो सवाल पूछे, उनका लब्बोलुबाव यही था कि वे कितने साल जीना चाहती हैं?
मध्यम वर्ग और कामकाजी तबके की महिलाओं का मानना था कि वे 40 साल की उम्र तक तो जीवित रहेंगी ही लेकिन कुछ का मानना था कि वे 130 साल तक जीवित रह सकेंगी.
सोच और रासायनिक परिवर्तन
डॉक्टर सारा जोन्स का मानना है कि दिमाग़ में आशावादी विचारों से शरीर में कुछ महत्वपूर्ण रासायनिक परिवर्तन होते हैं और इससे यह संभावना बढ़ती है कि आशावादी दृष्टिकोण रखने वाली महिला के गर्भ में पुत्र ही वजूद में आएगा.
एक बेटे को पाल-पोसकर युवावस्था तक लाना बहुत मुश्किल काम है. गर्भ में भी लड़का अपनी माँ के मिसाल के तौर पर ये रासायनिक परिवर्तन गर्भ धारण के समय महिला के सेक्स हारमोन में तब्दीली कर सकता है जिससे बेटे के वजूद की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं.
डॉक्टर सारा जोन्स ने बीबीसी के रेडियो-4 को बताया कि यह देखने की बात थी कि बेटे को जन्म देने वाली महिलाएँ न सिर्फ़ शारीरिक रूप से स्वस्थ थीं बल्कि वे आशावादी और सकारात्मक सोच रखने वाली थीं और अपने बेटे को अच्छी ज़िंदगी देने का संकल्प रखती थीं.
सारा जोन्स का कहना था, "एक बेटे को पाल-पोसकर युवावस्था तक लाना बहुत मुश्किल काम है. गर्भ में भी लड़का अपनी माँ के शरीर पर ज़्यादा दबाव डालता है और लड़कों को जन्म देना भी ज़्यादा मुश्किल माना जाता है."
"अगर आप अपने बेटे का अच्छी तरह ध्यान रखते हुए उसे एक कामयाब व्यक्ति बनाने की तरफ़ अपना ठोस योगदान नहीं कर पाते हैं और अगर वह विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षित होता है तो इस बात की काफ़ी संभावना है कि वह अपनी पीढ़ी आगे बढ़ाने में सहयोग नहीं कर सके.
रॉयल कॉलेज ऑफ़ ऑब्सटेटरीशियंस एंड गायनीकोलॉजिस्ट के डॉक्टर पीटर बोवेन सिपकिंस का कहना है कि गर्भ में बच्चे के लिंग का निर्धारण सिर्फ़ एक इत्तेफ़ाक़ की बात नहीं होकर बहुत से शारीरिक और मानसिक हालात पर निर्भर हो सकता है.
उन्होंने कहा, "पहले विश्व युद्ध में पुरुषों का बड़े पैमाने पर संहार होने के बाद बहुत से लड़के पैदा हुए थे. ऐसा लगता है कि लड़ाई में जो कुछ खोया था क़ुदरत ने उसकी भरपाई के लिए ऐसा किया."
यह शोध बॉयोलॉजी लैटर्स की पत्रिका में प्रकाशित हुआ है.

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