Tuesday, October 23, 2007

हिंदी शब्दों से कुछ ख़ास लगाव हैः फ़हमीदा रियाज़

Posted on 10:37 AM by Guman singh

भारत में जन्मी और पाकिस्तान में पली-बढ़ी फ़हमीदा रियाज़ ने शायरी, कहानी, उपन्यास और अनुवाद यानी साहित्य की जिस विधा में हाथ आज़माया, शोहरत पाई.
लेखन के अलावा वो महिलाओं के हक़ की लड़ाई में भी हमेशा आगे रहीं. उर्दू के साथ ही उन्हें फ़ारसी, सिंधी और अंग्रेज़ी भाषा में भी महारत हासिल है. कुछ अरसा पहले उनसे मुलाक़ात हुई और प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के कुछ प्रमुख अंश:

आप हमेशा अपनी बेबाक शायरी और आज़ाद ख़्याली की वजह से ख़बरों में रही हैं, कैसा लगता है आपको?

भई जिस तरह की शायरी मैंने की थी उस तरह की शायरी का उस वक़्त बहुत ज्यादा विरोध हुआ था लेकिन अब तो लोग उन तमाम चीजों को पसंद कर रहें हैं. जैसे मैंने वह नज़्म लिखी थी "तुम बिलकुल हम जैसे निकले." उस वक़्त इस पर इतना हंगामा हुआ था लेकिन इस बार जब मैं हिन्दुस्तान आई तो यही नज़्म लोगों ने मुझ से बार-बार सुनना चाही. तो मुझे ख़ुशी है कि मैं ऐसे दौर में ज़िंदा हूँ कि जिसमें मैंने जो कहा और लिखा उसकी कामयाबी देखते हुए इस दुनिया से जाऊँगी.

आपकी शायरी में हिंदी के शब्द काफी नज़र आते है उसकी क्या वजह है?

इसकी बड़ी अजीब सी वजह है. चूकि हम सिंध में रहते है और सिंध की अपनी ज़ुबान सिंधी है. क्योंकि यहां पहले अरब आए थे इसलिए इस भाषा में फारसी से ज़्यादा अरबी के शब्द मिलते है और साथ ही फ़ारसी और संस्कृत जैसे वह शब्द भी जिसे आप लोग हिंदी कहते हैं.

हम मुहाजिरों की कोशिश और बुनियादी ख़्वाहिश यह थी कि हम लोग अपनी ज़ुबान को सिंधी की तरफ़ ले जाएँ. हालांकि पहले पाकिस्तान की सरकारी पॉलिसी इन हिंदी शब्दों को नज़र अंदाज़ करने की थी जिसका बड़ा विरोध हुआ कि भई आप हमारी ज़ुबान से यह शब्द किस तरह निकाल सकते है--

हम तो इसका इस्तेमाल करेगें. दूसरी ख़ास वजह यह है कि यह शब्द मुझे बेहद ख़ूबसूरत और अच्छे लगते है और दिल में इनके लिए एक ख़ास मुहब्ब्त और जगह है.

लेकिन हिंदी शब्दों के इस्तेमाल पर पाकिस्तान के साहित्यिक हलक़ों की और आम लोगों की प्रतिक्रिया क्या रही?

ख़ुशक़िस्मती से मुझे किसी तरह के सवालो का सामना नहीं करना पड़ा. और देखिए यह अदब है और अदब में मैं ही अकेली नहीं. हमारे यहां जमीलउद्दीन आली है उन्होंने हमेशा दोहे लिखें और हिंदी में ही लिखते रहे. इसके अलावा फैज़ की शायरी को देखिए,

'उठो माटी से अब जागो मेरे लाल,
तूना तुमरा राग पड़ा है
देखो कितना काज पड़ा है.
बैरी बिराजे राज सिंहासन
तुम माटी में लाल'

तो यह फैज़ है.अब अपनी कहूँ तो हिंदुस्तान आने से पहले मुझे हिंदी पढ़नी आती भी नहीं थी. मेरी तमाम हिंदी वाली शायरी हिंदुस्तान आने से पहले की शायरी हैं.

महिला लेखिका होने के नाते क्या दिक़्क़ते पेश आई?

बेइन्तेहा दिक़्क़ते आईं. औरत का किसी भी विषय पर मुंह खोलना नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त बात थी.हमारे समाज में और हिन्दुस्तान में भी हालात वैसे ही है कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है.सबसे बड़ी दिक्क़त तो यह थी कि आलोचक, महिला लेखिका के काम को गंभीरता से नही लेते थे.

दूसरे उन्हें वो मुक़ाम या दर्जा नहीं दिया जाता जिसकी वह हक़दार है. तीसरे फौरन उनके किरदार को निशाना बनाया जाता है. मंटो ने जो कुछ लिखा उस पर उनके चरित्र को निशाना नहीं बनाया गया...लेकिन इस्मत चुग़ताई पर चरित्रहीनता का आरोप लगा दिया गया.

हमने तो इसके लिए लड़ाई भी लड़ी. बाक़ायदा एक मंच बनाया गया और एक किताब भी लिखी गई. 'रिकंस्ट्रक्शन आफ़ मेल रायटर्स पर्सेपशन अबाउट फ़ीमेल'. अर्थात 'महिलाओं के बारे में पुरूष लेखकों के नज़रिए की पुनर्रचना' जिसमें पहली बार महिला लेखिकाओं ने पुरूष लेखकों के साहित्य की समीक्षा की. मैंने ख़ुद उर्दू के बड़े समझे जानेवाले कहानीकार एम राशिद की कहानियों की समीक्षा की थी और लिखा था कि उनकी कहानियों में औरत का मतलब गोश्त के सिवा और कुछ भी नहीं है.

हिंदुस्तानी साहित्य के बारे में आप क्या सोचती हैं?

आज़ादी के फौरन बाद हिंदी साहित्य मे कोई जान दिखाई नहीं पड़ रही थी. तब वहां मंटो या इस्मत चुग़ताई की तरह का साहित्यकार दिखाई नहीं पड़ता था. जबकि तब पाकिस्तान में अच्छा अदब लिखा जा रहा था. लेकिन अब तस्वीर बदल गई है. इसमें कोई शक नहीं कि हिंदुस्तान का साहित्य बड़ी-बड़ी ज़ुबानों का साहित्य है.

बहुत अच्छी कहानियां और उपन्यास नई सोच और नई थीम के साथ देखने को मिल रहे हैं. हालांकि सब कुछ हर वक़्त पढ़ने को नहीं मिल पाता.बल्कि इस ओर उठे जो सुस्त क़दम हैं उनमें तेज़ी लाई जाए ताकि वहां की किताबें और मेगज़ीन यहां और वहां की यहां आसानी से मिल जाएँ.

पाकिस्तान की फ़ौजी हुकूमतों ने आपको हमेशा परेशान किया. तो परवेज़ मुशर्रफ़ के दौर में आपको किन दुश्वारियों से गुज़रना पड़ रहा है?

जनरल ज़िया उल हक़ के दौर में मुझे भारत भागना पड़ा था. मैं 1980 से लेकर 1987 तक यानी पूरे सात साल भारत में रही. मैं हमेशा फ़ौजी हुकूमतों के ख़िलाफ़ रही हूँ. लेकिन यह सच है कि परवेज़ मुशर्रफ़ ने बुद्धिजीवियों को काफ़ी खुला माहौल दिया है. इसीलिए तमाम लिबरल उनके साथ रहे हैं.

पिछले दिनों यहाँ से एक लेखिका पाकिस्तान गई थीं तब उनसे उनकी मां ने लाहौरी नमक लाने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी. आप भारत में पैदा हुई हैं तो अपनी मिट्टी की कौन सी चीज़ आपको सबसे ज़्यादा पसंद है?

भई मैं तो मेरठ में पैदा हुई हूँ तो मुझे तो मेरठ की गज़क बेहद पसंद है. उसके बाद मथुरा के पेड़े और आगरा का पेठा है.

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