Wednesday, June 18, 2008

कब जागेंगे हम?

Posted on 12:58 AM by Guman singh

जब पिछली बार हमने सत्ता के गलियारों को हिलाने की हिमाकत की थी तो हमें तीन साल तक दहकते अंगारों पर चलने का अभिशाप दिया गया. रक्षा सौदों में भष्टाचार की पोल खोलने वाला ऑपरेशन वेस्ट एंड मार्च 2001 में प्रसारित हुआ था. इसके फौरन बाद दो चीजें हुईं. पहला हमें लंबे समय तक लोगों की अपार सराहना और उनका प्यार मिला. दूसरा, हमारे काम और जिंदगी पर एक अनैतिक और असंवैधानिक हमला बोला गया. ये भी लंबे समय तक नहीं रूका—तब तक जब तक सरकार का सारा गोला-बारूद खत्म नहीं हो गया.
छह साल पहले उस वक्त हम पर एक के बाद एक कई आरोप लगाए गए. कुछ ने कहा कि हम कांग्रेस के लिए काम करते हैं. कइयों के लिए हम दाऊद के आदमी थे. कुछ का कहना था कि हमारे पीछे हिंदुजा का पैसा लगा है. कोई हमें आईएसआई से जोड़ रहा था जिसका मकसद हमारे जरिये शेयर बाजार को औंधे मुंह गिराना था. कहा जा रहा था कि इस काम के लिए हमें करोड़ों रुपये मिले हैं. यही नरेंद्र मोदी उस समय बीजेपी के महासचिव हुआ करते थे. मुझे वह टीवी इंटरव्यू नहीं भूलता जिसमें मोदी और मैं दोनों फोन पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे और मोदी चिल्लाचिल्लाकर हमारे खिलाफ झूठ उगल रहे थे. एक दिन बाद ही वह मेरे बारे में दस तथ्यों से भरा एक पर्चा भी छापने वाले थे.
मुझे वह टीवी इंटरव्यू नहीं भूलता जिसमें मोदी और मैं दोनों फोन पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे और मोदी चिल्लाचिल्लाकर हमारे खिलाफ झूठ उगल रहे थे. एक दिन बाद ही वह मेरे बारे में दस तथ्यों से भरा एक पर्चा छापने वाले थे.
इनमें पहला और सबसे अहम तथ्य ये था कि मैं एक कांट्रेक्टर का बेटा हूं जो कि वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह के करीबी सहयोगी थे.
हमारे ख़िलाफ़ उछाला गया हर आरोप दिल्ली के संभ्रांत हलकों में न केवल चटखारे लगाकर सुना-सुनाया गया बल्कि एक कान से दूसरे कान तक जाने की प्रक्रिया में इसमें कई और स्वाद भी जोड़े गए. यहां तक कि दोस्तों और जानने वालों ने भी दबी जबान में बातें कीं. ये वे लोग थे जिन्होंने किसी को बिना फायदे के कभी कुछ करते हुए नहीं देखा था. उनके लिए ये मानना सही भी था कि हम भला उनसे क्योंकर अलग होंगे. और अब जब सरकार हमारे शिकार पर निकल ही चुकी थी तो सच का सामने आना बस कुछ वक्त का ही खेल था. इतना सब कहने के बाद मिलने पर हमारी तरफ एक जुमला उछाल दिया जाता कि आपने असाधारण काम किया...ऐसा काम जो न सिर्फ जरूरी था बल्कि बहुत साहसिक भी.
हकीकत ये है कि-
-मैं कभी भी किसी हिंदुजा से नहीं मिला था
-मैंने स्टॉक मार्केट में एक शेयर की भी खरीद-फरोख्त नहीं की थी.
-मेरा कांग्रेस से कभी भी कोई लेनादेना नहीं रहा. मैं तो राजनीति कवर करने वाला पत्रकार तक नहीं था. रिकार्ड के लिए बता दूं कि तहलका शायद भारत में अकेली ऐसी कंपनी होगी जिसके खिलाफ तीन सीबीआई केस चल रहे हैं. ये तीनों केस एनडीए सरकार के वक्त दर्ज किए गए थे और यूपीए के सत्ता में आने के बाद भी जारी हैं. हमें जमानत लेने के लिए नियमित रूप से कोर्ट के चक्कर काटने पड़ते हैं.
-हमारे पास कभी भी काले धन की एक पाई तक नहीं रही. अगर ऐसा होता तो हर घड़ी हमारे पीछे लगी रही एजेंसियां हमें कब का जेल में ठूंस देतीं. आखिर में ऐसा वक्त आया जब इस कंपनी में काम करने वाले लोग 120 से घटकर सिर्फ चार रह गए. साउथ एक्सटेंशन के पीछे एक किराए के कमरे में हमारा ऑफिस चल रहा था. कानूनी और जिंदगी के तमाम पचड़ों से लड़ने के लिए हम पर दसियों लाख रुपये उधार चढ़ चुके थे जो हम अब तक चुका रहे हैं.
गंभीर आरोप लगने पर चिल्लाचोट की रणनीति भले ही चतुर लेकिन निंदनीय राजनीतिक दांव हो लेकिन भारतीय संभ्रांत वर्ग की साजिश ढूंढने का शगल समझ से परे है. इससे केवल खुद के बारे में सोचने वाली संस्कृति की बू आती है जहां कोई जनहित कोई मकसद ही नहीं होता.
-और हां, अंडरवर्ल्ड को झटका देने वाले क्रिकेट मैच फिक्सिंग के खुलासे के बावजूद हमसे से कोई दाऊद इब्राहिम या किसी और भाई से कभी नहीं मिला था.
मेरे पिता को तो छोड़िये मैं भी उस समय तक अर्जुन सिंह से कभी नहीं मिला था. कांट्रेक्टर होने की बजाय मेरे पिता की जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा भारतीय सेना में गुजरा था. इस दौरान उन्होंने 1965 और 1971 में पाकिस्तान से हुए दोनों युद्ध भी लड़े. फिर भी मोदी ने सार्वजनिक मंच पर ये और ऐसे दूसरे कई सफेद झूठ बोलने से पहले कुछ नहीं सोचा और सेंसेक्स से भी ज्यादा चकरायमान मीडिया ने इसके पीछे के सच को बाहर लाने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं समझी.
झूठ के पीछे के सच को अगर बाहर न लाया जाए तो झूठ खतरनाक आकार ले लेता है. सच्चाई का चेहरा विकृत हो जाता है और अराजकता घर करने लगती है. पुरानी कहावत है कि झूठ को अगर लगातार और कई तरीकों से फैलाया जाता है तो वह सच बन जाता है या फ़िर कम से कम सच को डुबो तो देता ही है. इसका उदाहरण तब देखने को मिला जब 1984 में सिक्खों की गर्दनें तलवारों पर रखी गईं. और हमने ऐसा होते 2002 में भी देखा जब गुजरात को दूषित भावनाओं के साथ गलत जानकारी की आड़ में आग के हवाले कर दिया गया. कुछ मौकों पर मीडिया ने सच की पड़ताल कर उसे दिखाया भी. लेकिन तब तक सच का महत्व ही खत्म हो चुका था. सच से बेनकाब होते लोगों की रणनीति इतना शोर मचाने की थी कि उसमें सब कुछ डूब जाए—अच्छा, बुरा, सच, झूठ सब कुछ. हमारी इस तहकीकात पर उनका शोर है कि आपने गोधरा के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं. जबकि सच ये है कि इस अंक के 30 पन्ने गोधरा की तहकीकात को ही समर्पित हैं.
गंभीर आरोप लगने पर चिल्लाचोट की रणनीति भले ही चतुर लेकिन निंदनीय राजनीतिक दांव हो लेकिन भारतीय संभ्रांत वर्ग की साजिश ढूंढने का शगल समझ से परे है. इससे केवल खुद के बारे में सोचने वाली संस्कृति की बू आती है जहां कोई जनहित कोई मकसद ही नहीं होता. पिछले कुछ सालों में मुझे कई बार ये अजीब और कड़वा अनुभव हुआ है जब लोगों को मैंने मेधा पाटकर और अरुंधती रॉय जैसे जनता के लिए लड़ने वाले लोगों पर पैसे के लिए काम करने का आरोप लगाते देखा है. किसी की राय से सहमत न होना अलग बात है. लेकिन खुद ही ये मान लेना कि आम लोगों के मुद्दों को उठाने वाले लोग भष्ट्र हैं, हमारे बारे में कई गंभीर पहलुओं की पोल खोलता है. इस विकृति का कुछ लेना-देना हमारी गुलामी के समय से भी है--वह दौर जब हम ईर्ष्या, चालाकी, साजिश, चुगली या धोखा, किसी भी तरह से गोरे मालिकों को खुश करने के लिए बैचैन रहते थे.
इस बार जब हमने 2002 के गुजरात नरसंहार के पीछे छिपे सच का खुलासा किया तो साजिश ढूंढने वालों ने नई ऊंचाइयां नाप लीं. बीजेपी ने हम पर कांग्रेस के लिए काम करने का आरोप लगाते हुए हमला किया. उधर, कांग्रेस का कहना था कि हम बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं. इससे साफ था कि हम किसी सही काम को ही अंजाम दे रहे थे. इस सबके बीच भारत के विचार के लिए लड़ने का काम लालू यादव, मायावती और वामदलों पर छोड़ दिया गया. हालांकि आदर्श भारत का ये विचार कभी कांग्रेस के पुरोधाओं द्वारा रचा गया था लेकिन आज की कांग्रेस से जुड़े दिग्गज शायद इसका मतलब भी भूल चुके हैं.
अगर सीआईआई को थोड़ी भी बदहजमी हो जाए तो प्रधानमंत्री कार्यालय इस पर तुरंत स्पष्टीकरण जारी कर देता है. और अगर इस बदहजमी पर वह एक सेमिनार भी करना चाहे तो प्रधानमंत्री उसमें मुख्य वक्ता के रूप में फौरन पहुंच जाते हैं.
ये भी अपने आप में असाधारण बात है कि गुजरात नरसंहार के खुलासे को कई दिन होने को आए लेकिन अब तक इस पर न तो प्रधानमंत्री ने ही कोई बयान दिया और न ही गृहमंत्री ने. पत्रकारिता के इतिहास में पहली बार सामूहिक हत्याकांड करने वाले कैमरे पर खुद बता रहे थे कि उन्होंने कैसे मारा, क्यों मारा और किसकी इजाजत से मारा. ये कोई छोटे-मोटे अपराधी नहीं थे. ये विचारधारा में अंधे वे उन्मादी लोग थे जो उस खतरनाक दरार की सच्चाई का खुलासा कर रहे थे जिसमें इस देश के टुकड़े करने की क्षमता है. लेकिन रेसकोर्स रोड में बैठे भद्रजनों के लिए ये काफी नहीं था. अगर सीआईआई को थोड़ी भी बदहजमी हो जाए तो प्रधानमंत्री कार्यालय इस पर तुरंत स्पष्टीकरण जारी कर देता है. और अगर इस बदहजमी पर वह एक सेमिनार भी करना चाहे तो प्रधानमंत्री उसमें मुख्य वक्ता के रूप में फौरन पहुंच जाते हैं.
प्रधानमंत्री को भी कोसने का क्या फायदा. उनके पास जिम्मेदारी तो है पर शक्तियां नहीं. बेईमानी के पहाड़ की चोटी पर बैठा ईमानदार व्यक्ति. कांग्रेस के उन बड़े रणनीतिकारों पर नजर डालते हैं जो खुद तो कोई चुनाव नहीं जीत सकते मगर कईयों को चुनाव जितवाने के रहस्य जानते हैं. उनके हिसाब से देखा जाए तो हत्याओं और बलात्कारों में मोदी की भूमिका का पर्दाफाश इस तरह से डिजाइन किया गया था कि गुजराती हिंदू को ये यकीन हो जाए कि मोदी ही उनके लिए आदर्श नेतृत्व हैं. उन्हें यह नहीं सूझा कि हिंसा के इन सबूतों को वे मोदी के खिलाफ एक हिला देने वाली सार्थक बहस शुरू करने के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं.
वास्तविकता ये है कि कांग्रेस को आज कुछ ऐसे छुटभैये रणनीतिकार चला रहे हैं जो ये भूल चुके हैं कि सही कदम उठाना क्या होता है. उनके पास न तो इतिहास के अनुभवों का प्रकाश है और न ही भविष्य के लिए दृष्टि. वे यह देख पाने में असमर्थ हैं कि एक जमाने में महान विभूतियों ने धर्म, जाति, भाषा, नस्ल आदि जैसी खाइयों को पाटते हुए इस देश के विचार को शक्ल दी थी. मूर्खतापूर्ण तरीके से वे अब इन्हीं दरारों को फिर से उभार रहे हैं. वे उन संकटों को देख पाने में असमर्थ हैं जो इसके परिणामस्वरूप सामने आएंगे. उन्हें ये नहीं पता कि राजनीति में नैतिकता को हथियार कैसे बनाया जा सकता है और उनमें नैतिकता के रास्ते पर चलने की हिम्मत भी नहीं है. ये लोग और कुछ नहीं ज्यादा से ज्यादा बस चुनावों में वोटों की तिकड़म भिड़ाने वाले एकाउंटेंट हैं जो चुनावी लाभ और हानि के बीच झूला झूलते रहते हैं.
आज की कांग्रेस उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतंत्र में निष्ठा रखने वाले उस भारतीय को निराश करती है जिसे भारत की आत्मा की रक्षा करने को एक राजनीतिक छाते की आवश्यकता है. सही बातें न कहकर, सही कदम न उठाकर ये उस उदार भारतीय को कमजोर करती है जिसकी विवादों में कोई रुचि नहीं और जो अपनी अच्छाई की स्वीकृति चाहता है. इससे पैदा हुए खाली स्थान पर जहरीली और विकृत विचारधाराएं काबिज हो जाती हैं.
और ये सब तब हो रहा है जब भारतीय कुलीन वर्ग ऐसा व्यवहार कर रहा है जैसा कि 1920 में चमक-दमक और शैंपेन की खुमारी में डूबा अमेरिकी कुलीन वर्ग किया करता था जबकि पैरों के नीचे की जमीन बड़ी तेज़ी से दरकती जा रही है. ताजा आंकड़े बताते हैं कि पांच मुख्य राज्यों में गरीबी से बदहाल लोगों की संख्या बढ़ रही है. भारत के 30 फीसदी जिलों में घनघोर दरिद्रता से उठता नक्सलवाद बढ़ता रहा है. आखिर कब तक आकंठ पैसे में डूबे हुए और भूख से मर रहे लोग बगैर टकराव के साथ-साथ रह सकते हैं. सच्चाई ये है कि भारत को सिर्फ आर्थिक सुधारों की नहीं बल्कि राजनीतिक दूरदृष्टि की भी जरूरत है जिसका कहीं अता-पता नहीं. गुजरात के प्रति हमारी बेपरवाही बताती है कि दुनिया के इस सबसे जटिल लोकतंत्र के सामने अब तक की सबसे पेचीदा चुनौती मुंह बाए खड़ी है.
तरुण तेजपाल
..........................Send yr Comments

1 Response to "कब जागेंगे हम?"

.
gravatar
rksistu Says....

hi ..
Do you still use free service like blogspot.com or wordpress.com but
they have less control and less features.
shift to next generation blog service which provide free websites for
your blog at free of cost.
get fully controllable (yourname.com)and more features like
forums,wiki,CMS and email services for your blog and many more free
services.
hundreds reported 300% increase in the blog traffic and revenue
join next generation blogging services at www.hyperwebenable.com
regards
www.hyperwebenable.com