Sunday, April 27, 2008

एक साथ प्रक्षेपित होंगे दस उपग्रह

Good News!
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र ( इसरो ) के नए अभियान के तहत सोमवार को उपग्रह प्रक्षेपण यान पीएसएलवी-सी9 के ज़रिए 10 उपग्रहों को प्रक्षेपित किया जाएगा.
श्रीहरिकोटा से होने वाला ये प्रक्षेपण 16 मिनट में पूरा कर लिया जाएगा.
लॉन्च किए जाने वाले दस उपग्रहों में भारत का आधुनिक रिमोट सेसिंग उपग्रह शामिल है.
इसका अलावा आठ विदेशी नैनो उपग्रहों को छोड़ा जाएगा.
पिछले वर्ष अप्रैल में एक रूसी यान से 16 उपग्रहों को छोड़ा गया था. लेकिन ये यान 300 किलोग्राम के आस-पास वज़न लेकर गया था.
जबकि 230 टन वज़न वाला पोलर सेटेलाइट लॉन्च वीहकल (पीएसएलवी-सी9) कुल 824 किलो भार लेकर जाएगा.
एक साथ दस उपग्रह
अधिकारियों का कहना है कि आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा केंद्र में तैयारियां ठीक-ठाक चल रही हैं.
प्रक्षेपण सोमवार सुबह नौ बजकर 23 मिनट पर होगा.
करीब 70 करोड़ की लागत वाले पीएसएलवी-सी9 की ये 13वीं उड़ान है.
रिमोट सेंसिंग सेटेलाइट कार्टोसेट-2ए का वज़न 690 किलोग्राम है और इसमें आधुनिक पैनक्रोमैटिक कैमरा लगा हुआ है जो बेहत उच्च स्तर की तस्वीरें खींच सकता है.
इसके ज़रिए ऐसे तथ्य मिल सकेंगे जिनका इस्तेमाल शहरी और ग्रमीण इलाक़ों में आधारभूत ढाँचे के प्रबंधन में हो सकता है.
पिछले वर्ष भारत के पीएसएलवी-सी7 से पहली बार चार उपग्रहों को एक साथ प्रक्षेपित किया गया था. इनमें दो उपग्रह अर्जेंटीना और इंडोनेशिया के थे.

अपना हाथ-जगन्नाथ लेकिन कौन सा?

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चिकित्सा विज्ञान ये मानता है कि हमारा मस्तिष्क बाएँ और दाएँ दो भागों में बंटा हुआ है और बांया हिस्सा दाएँ की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली है. सभी जानते हैं कि मस्तिष्क हमारे शरीर का नियंत्रण करता है. मस्तिष्क से नाड़ियां शरीर के अलग अलग हिस्सों में जाती हैं और शरीर की गतिविधियों को नियंत्रित करती हैं. बाएँ हिस्से से निकलने वाली नाड़ियां गरदन पर आकर शरीर के दाएँ हिस्से में चली जाती हैं जबकि दाएँ हिस्से से आने वाली नाड़ियां शरीर के बाएँ भाग में. यानी शरीर के विभिन्न अंग मस्तिष्क के विपरीत हिस्सों से जुड़े होते हैं.
आमतौर पर लोगों के मस्तिष्क का बायाँ हिस्सा अधिक शक्तिशाली होता है लेकिन कुछ लोगों में दायाँ हिस्सा ज़्यादा प्रमुख रहता है और ऐसे लोग बाएँ हाथ से काम करते हैं. दुनिया में कोई चार प्रतिशत लोग बाएँ हाथ से काम करते हैं. लेकिन इन चार प्रतिशत में बहुत से नामी गिरामी लोग आते हैं जैसे अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ़ कैनेडी और बिल क्लिंटन, महारानी विक्टोरिया, वैज्ञानिक और कलाकार लियोनार्डो डा विंची, फ़िल्म निर्देशक चार्ली चैपलिन, क्यूबा के राष्ट्रपति फ़िदेल कास्त्रो, अमिताभ बच्चन और सौरव गांगुली.

वाल्मीकि रामायण, तुलसी रामायण!

Good News!
तुलसी रामायण का नाम रामचरित मानस है और इसकी रचना सोलहवीं शताब्दी के अंत में गोस्वामी तुलसीदास ने अवधि बोली में की. जबकि वाल्मीकि रामायण कोई तीन हज़ार साल पहले संस्कृत में लिखी गई थी. इसके रचयिता वाल्मीकि को आदि कवि भी कहा जाता है. क्योंकि उन्होंने अपने इस अदभुत ग्रंथ में दशरथ और कौशल्या पुत्र राम जैसे एक ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम की जीवन गाथा लिखी जो उसके बाद के कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी. उसके बाद अलग-अलग काल में और विभिन्न भाषाओं में रामायण की रचना हुई. लेकिन प्रत्येक रामायण का केंद्र बिंदु वाल्मीकि रामायण ही रही है. बारहवीं सदी में तमिल भाषा में कम्पण रामायण, तेरहवीं सदी में थाई भाषा में लिखी रामकीयन और कम्बोडियाई रामायण, पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में उड़िया रामायण और कृतिबास की बँगला रामायण प्रसिद्ध हैं लेकिन इन सबमें तुलसी दास की रामचरित मानस सबसे प्रसिद्ध रामायण है.

Saturday, April 26, 2008

टी आर पी रेटिंग क्या होती है.

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टी आर पी का मतलब है टेलिविज़न रेटिंग पौइन्ट्स. एक तरह से ये टेलिविज़न कार्यक्रमों की लोकप्रियता मापने का तरीक़ा है जिसमें विभिन्न कार्यक्रमों को अंक दिये जाते हैं. ये काम टेलिविज़न ऑडिएन्स मैज़रमैंट संस्था करती है. होता ये है कि टैम देश भर में कई छोटे बड़े शहरों का चयन करके उसमें विभिन्न वर्ग के लोगों के घर तलाश करती है और फिर उनके टेलिविज़न पर एक मीटर लगाती है. ये एक छोटा सा काला बक्सा होता है जो ये नोट करता है कि आपने कब कितनी देर कौन से टेलिविज़न चैनल का कौन सा कार्यक्रम देखा. महीने के अंत में ये आंकडे जुटाकर उनका विश्लेषण किया जाता है और उससे पता चलता है कि कौन सा कार्यक्रम कितना लोकप्रिय है.

बाटा शू कंपनी के संस्थापक कौन थे


Good News! बाटा शू कंपनी की स्थापना 1894 में तोहमहश बाहत्याह ने ज़्लिन में की थी जो अब चैक रिपब्लिक का शहर है. अगर इनका नाम रोमन लिपि में लिखा जाए तो टॉमस बाटा पढ़ा जाएगा. शायद इसीलिए दुनिया भर में यह बाटा के नाम से मशहूर हुआ. टॉमस बाटा के परिवार में कई पीढ़ियों से जूते बनाने का काम होता था. लेकिन जब पहला विश्व युद्ध छिड़ा तो सेना को भारी संख्या में जूतों की ज़रूरत पड़ी. बाटा ने इस ज़रूरत को समझा और औद्योगिक स्तर पर जूते बनाने का काम शुरू किया. इस कंपनी का मुख्यालय अब स्विट्ज़रलैंड के लौज़ैन शहर में है, 26 देशों में जूते बनाने की फ़ैक्टरियाँ हैं और 50 से भी अधिक देशों में इसके जूतों की दुकानें हैं.

हँसी का क्या मोल!

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मंद-मंद हँसी यानी मुस्कुराहट तो व्यक्तित्व में ख़ुशमिज़ाजी लाती ही है, अनेक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि ज़ोर-ज़ोर से हँसना भी स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है. जब हम हँसते हैं तो हमारे चेहरे की कई मांसपेशियां इसमें क्रियाशील होती हैं, हमारी भंवे चढ़ती हैं, हमारे कान हिलते हैं, आंखे मिचती हैं, नथुनें फूलते हैं, ऊपर का होंठ फैलता है, नीचे का होंठ हिलता है, ठोड़ी हिलती है, गाल पीछे होते हैं... कुल मिलाकर हमारे चेहरे की 53 मांसपेशियों का हँसने में कुछ न कुछ योगदान रहता है. हँसने में चेहरे की ही नहीं बल्कि जबड़े, गले, पेट और डाएफ़्राम की माँसपेशियाँ भी काम करती हैं. और अगर बहुत ज़ोर ज़ोर से हँसा जाए तो शायद शरीर की और माँसपेशियाँ भी क्रियाशील हो जाती होंगी.

याहू का पूरा नाम क्या है?


GoodNews! याहू डॉटकॉम की स्थापना अमरीका के स्टैनफ़र्ड विश्वविद्यालय में इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में पीएचडी कर रहे दो छात्रों, डेविड फ़िलो और जैरी यांग ने 1994 में की थी. यह वेबसाइट जैरी ऐन्ड डेविड्स गाइड टू द वर्ल्ड-वाइड-वैब के नाम से शुरु हुई थी लेकिन फिर उसे एक नया नाम मिला, यट अनदर हाइरार्किकल ऑफ़िशियस ओरैकिल. जिसका संक्षिप्त रूप बनता है याहू. जैरी और डेविड ने इसकी शुरुआत इंटरनेट पर अपनी व्यक्तिगत रुचियों के लिंकों की एक गाइड के रूप में की थी लेकिन फिर वह बढ़ती चली गई. फिर उन्होंने उसे श्रेणीबद्ध करना शुरु किया. जब वह भी बहुत लम्बी हो गई तो उसकी उप-श्रेणियां बनाईं. कुछ ही समय में उनके विश्वविद्यालय के बाहर भी लोग इस वेबसाइट का प्रयोग करने लगे. अप्रैल 1995 में सैकोया कैपिटल कम्पनी की माली मदद से याहू को एक कम्पनी के रूप में शुरू किया गया. इसका मुख्यालय कैलिफ़ोर्निया में है और यूरोप, एशिया, लातीनी अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अमरीका में इसके कार्यालय हैं.

Friday, April 25, 2008

तितली आसन से शांत रहता है मन

GoodNews!
आसन को परिभाषित करते हुए महर्षि पतंजलि ने कहा है, "स्थिरं सुखम् आसनम्." इसका अर्थ यह है कि आसन वह है जिसके करने से मन एवं शरीर में स्थिरता आए और सुख का अनुभव हो.
शुरू-शुरू में शरीर में इतनी लचक नहीं होती कि हम स्थिरतापूर्वक बैठकर ध्यान कर सकें. अब तक हमनें जोड़ों से संबंधित छोटे-छोटे आसन सीखें हैं.जिससे हमें मुख्य आसन सीखने में कोई परेशानी न हो.
आसन का लक्ष्य भी यही है कि हम अपने आप को ध्यान के लिए तैयार कर सकें.
इसे प्राप्त करने के लिए हमें सतत प्रयास करते रहना चाहिए. आसन हमें आध्यात्मिक रूप से भी तैयार करता है.
तितली आसन
तितली आसन और पदमासन एक दूसरे के पूरक हैं. जो लोग पदमासन नहीं कर सकते हैं उन्हें तितली आसन का अभ्यास करना चाहिए. जिससे की बाद में वे पदमासन का अभ्यास आसानी से कर सकें.
कैसे लगाएं आसन
कंबल को ज़मीन पर दोहरा बिछाकर उस पर बैठ जाएं. दोनों पैरों को सामने की ओर फैला लें. दोनों पैरों को घुटनों से मोड़ें और दोनों तलवों को आपस में मिला लें.
इस स्थिति में हाथों से पैरों की अंगुलियों को उसके पास से पकड़ें और एड़ी को ज़्यादा से ज़्यादा शरीर के क़रीब लाने का प्रयास करें.
यह करते हुए कोशिश करें कि हाथ सीधे रहें और शरीर को भी पूरी तरह सीधा रखें. जिससे रीढ़ की हड्डी भी सीधी हो जाए.
सांस को सामान्य रहने दें और दोनों पैरों के घुटनों को एक साथ ऊपर की ओर लाएं और नीचे लाते हुए प्रयास करें कि ज़मीन को न छूने पाए.
इस तरह अपने पैरों को लगातार 20-25 बार ऊपर-नीचे की ओर ले जाएं, ध्यान रखें की झटका न लगे.
इसके बाद पैरों को धीरे-धीरे सीधा कर लें और कुछ समय तक शरीर को ढीला छोड़ दें.
यह तितली आसन का एक क्रम है. आप चाहें तो इसे दो-तीन बार कर सकते हैं.
ऐसा न करें
ज़्यादा जोर न लगाएं. इस आसन को करने की जो विधि बताई गई है उसी के अनुसार अभ्यास करें. सांस को सामान्य रखें.
जिन लोगों को साइटिका की बीमारी हो या कमर के नीचले हिस्से में दर्द हो वे लोग तितली आसन का अभ्यास न करें.
तितली आसन के फ़ायदे
इसे करने से पैरों की मांसपेशियां इस तरह हो जाती हैं कि हम पदमासन या पालथी मारकर बैठ सकें.
इसे करने से जांघों की मांसपेशियों में आया तनाव या खिंचाव कम होता है. अधिक देर तक खड़े रहने या चलने के बाद तितली आसन करने से थकान दूर हो जाती है.
पदमासन
कंबल को ज़मीन पर इस प्रकार बिछाकर बैठें की दोनों पैर सामने की ओर रहे.
एक पैर को घुटने से मोड़ें और पैर के तलवे को दूसरे पैर की जांघ के ऊपर रखें.
इसके लिए आप हाथों का सहारा ले सकते हैं. पैर के तलवे को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब लाने का प्रयास करें.
इसी तरह दूसरे पैर को भी मोड़कर जांघ पर रखें. इस स्थिति में दोनों पैरों के घुटने ज़मीन से न छूने नहीं चाहिए, अगर छू भी जाएं तो कोई बात नहीं है.
पदमासन के अभ्यास से शरीर और मन शांत होता है. लगातार अभ्यास से एकाग्राता भी बढ़ती है
इस आसन को करते समय कमर, गर्दन और रीढ़ की हड्डी को सीध रखें और कंधों को ढीला. दोनों हथेलियों को घुटनों पर रखें ज्ञान या चिन्न की मुद्रा में.आंखें बंद कर लें और पूरे शरीर में शिथिलता महसूस करें.
इस दौरान शरीर को न ज़्यादा आगे की ओर झुकाएं और न पीछे की ओर. इस तरह बैठें की शरीर का संतुलन बना रहे.
सावधानियां बरतें
जो लोग साइटिका से पीडि़त हों, कमर दर्द हो, घुटने कमजोर हों या किसी तरह की चोट लगी हुई हो वे पदमासन का अभ्यास न करें.
घुटनों के जोड़ और मांसपेशियों को ढीला करने के लिए पहले जानू आसन का अभ्यास कर सकते हैं.
पदमासन के लाभ
पदमासन एक ध्यानात्मक आसन है. इसके अभ्यास से शरीर और मन शांत होता है. पदमासन का लगातार अभ्यास करने से एकाग्राता भी बढ़ती है.
चूंकि सांस धीरे-धीरे स्थिर हो जाती है, जिससे पूरे शरीर में स्थिरता आती है. इस आसन को करने से ब्लड प्रेशर भी सामान्य होता है.
पाचन तंत्र को ठीक करने में भी पदमासन सहायक हो सकता है.क्योंकि खून का संचार पैर की ओर कम रहता है. इसका केंद्र नाभी के पास ज़्यादा रहता है.
पदमासन एक पारंपरिक आसन है. प्राणायाम के अभ्यास के लिए पदमासन को प्रथम श्रेणी में रखा गया है. इसलिए अगर देखा जाए तो पदमासन हर तरह से एक उपयोगी आसन है.

Wednesday, April 23, 2008

दृष्टिहीन लोगों के लिए इलेक्ट्रॉनिक आँखें


जापान के वैज्ञानिकों ने एक ऐसी इलेक्ट्रॉनिक आँख बनाई है, जिसकी मदद से दृष्टिहीन बिना किसी परेशानी के घूम-फिर सकेगें.
भौतिकविज्ञान संस्थान में किए गए एक शोध के अनुसार यह आँख चश्मे पर जड़ी होगी, जिसे पहन कर बिना किसी की सहायता के सड़क पार की जा सकेगी.
इस इलेक्ट्रॉनिक आँख में एक कैमरा और कम्पयूटर लगा होगा जो ट्रैफिक लाईट के बदलते रंगों को बताने और सड़क की चौड़ाई नापने जैसे काम कर सकेगा.
इस तरह से इक्कठा की गई जानकारी को ध्वनि आधारित व्यवस्था के ज़रिए पहनने वाले तक पहुँचाया जाएगा.
क्योटो प्रौद्योगिकी संस्थान के प्रमुख वैज्ञानिक तादायोशी शिओयामा का कहना है, “ कैमरा आँखों के पास लगा होगा और एक बहुत छोटा कम्पयूटर उससे जुड़ा रहेगा, जो सारी सूचनाएँ और निर्देश कान के नज़दीक लगे स्पीकर पर दृष्टिहीनों को देगा.“
यह आँख इतनी उन्नत है कि इससे न सिर्फ़ पैदल पार-पथ या ज़ैब्रा क्रॉसिंग का पता लगाया जा सकेगा बल्कि सड़क की चौड़ाई को भी पूरी तरह से नापा जा सकेगा, इसके साथ ही यह आँख, लाल से हरी होती हुई ट्रैफिक लाईट के बारे में भी बता सकेगी.
पैदल पार-पथ की लम्बाई नापने के लिए यह आँख प्रक्षेपीय रेखागणित का सहारा लेती है.
कैमरे का कमाल
कैमरा आँखों के पास लगा होगा और एक बहुत छोटा कम्पयूटर उससे जुड़ा रहेगा, जो सारी सूचनाएँ और निर्देश कान के नज़दीक लगे स्पीकर पर दृष्टिहीनों को देगा

तादायोशी शिओयामा, वैज्ञानिक

इस आँख में लगा हुआ कैमरा ज़ैब्रा क्रॉसिंग की सफेद पट्टियों के चित्र उतारता है और फिर चित्र के ज्यामितिक आकार के आधार पर वास्तविक दूरी का पता लगा लिया जाता है.
सड़क पर ज़ैब्रा क्रॉसिंग है भी या नहीं यह जानने के लिए चित्र में सफेद पट्टियों की चौड़ाई और उनके बीच की दूरी की गणना की जाती है.
शोधकर्ताओं द्वारा इलेक्ट्रॉनिक आँख पर किए गए परीक्षणों के दौरान,पाँच प्रतिशत से भी कम की ग़लती सामने आई.196 बार किए गए परीक्षणों के दौरान यह तरीका केवल दो बार ही ग़लत साबित हुआ, जब इलेक्ट्रॉनिक आँख ने ज़ैब्रा क्रॉसिंग के होते हुए भी यह बताया कि वहाँ ज़ैब्रा क्रॉसिंग नहीं है.
दृष्टिहीनों के रॉयल नेशनल इंस्टीट्यूट की कैथरीन फिप्पस का मानना है, "दृष्टिहीनों और आंशिक रुप से अंधे व्यक्तियों के लिए चलना फिरना एक गंभीर समस्या है, और इस तरह के नए उपकरण हमेशा ही स्वागतयोग्य होते हैं जिनकी मदद से ऐसे लोग बिना परेशानी घूम-फिर सकें.".

'मोबाइल घटा रहा है मर्दानगी'


शोधकर्ताओं का कहना है कि मोबाइल फ़ोन का अधिक इस्तेमाल करने वाले पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या घट रही है जो सीधे तौर पर प्रजनन क्षमता को प्रभावित करती है.
मुंबई के अस्पतालों में संतानोत्पति में नाकाम होने के बाद अपना इलाज़ करा रहे 364 पुरूषों पर हुए अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला है.
यह शोध ओहियो के क्लीवलैंड क्लिनिक फाउंडेशन की ओर से हुआ है और इसके निष्कर्ष अमरीका के 'सोसाइटी ऑफ रिप्रोडक्टिव मेडिसिन' को सौंप दिए गए हैं.
शोधकर्ताओं के मुताबिक एक दिन में चार घंटे या इससे अधिक देर तक मोबाइल का इस्तेमाल करने वाले पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या कम पाई गई और बचे हुए शुक्राणुओं की हालत भी ठीक नहीं थी.
हालाँकि ब्रिटेन के एक विशेषज्ञ का कहना है कि प्रजनन क्षमता में कमी के लिए मोबाइल को दोष देना ठीक नहीं है क्योंकि वह पुरूषों के जननांगों के निकट नहीं होता.
शोध
शोध के मुताबिक जो लोग दिन में चार घंटे से अधिक मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करते थे उनमें शुक्राणुओं की संख्या प्रति मिलीलीटर पाँच करोड़ पाई गई जो सामान्य आँकड़े से काफी कम है.
जो लोग दो से चार घंटे तक मोबाइल फ़ोन से बात करते थे उनमें प्रति मिलीलीटर शुक्राणुओं की संख्या लगभग सात करोड़ आँकी गई.
जिन लोगों ने बताया कि वे मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल ही नहीं करते हैं, उनमें यह संख्या लगभग साढ़े आठ करोड़ थी और उनके शुक्राणु काफी स्वस्थ हालत में सक्रिय पाए गए.
चेतावनी
शोधकर्ताओं की टीम का नेतृत्व करने वाले डॉ अशोक अग्रवाल कहते हैं कि अभी इस मामले पर और अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है.
वो कहते हैं, "लोग मोबाइल का इस्तेमाल बेधड़क करते जा रहे हैं. बिना ये सोचे कि इसके परिणाम क्या होंगे."
डॉ अग्रवाल का कहना है कि मोबाइल से होने वाला विकिरण डीएनए पर बुरा असर डालता है जिससे शुक्राणु भी प्रभावित होते हैं.

लैपटॉप से पुरुषों को ख़तरा!


लैपटॉप का इस्तेमाल करने वाले पुरुष सावधान. जानकारों का मानना है कि लैपटॉप का इस्तेमाल करने वाले पुरुष अनजाने में अपनी प्रजनन क्षमता को नुक़सान पहुँचा रहे हैं.
स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क में हुए शोध के बाद विशेषज्ञों का कहना है कि अपनी गोद में इस कंप्यूटर को रखने के कारण अंडकोष का तापमान बढ़ जाता है और इससे शुक्राणु निर्माण पर नकारात्मक असर पड़ता है.
यह शोध ह्यूमन रिप्रोडक्शन नामक पत्रिका में छपा है. अमरीकी शोधकर्ताओं का कहना है कि लैपटॉप की बढ़ती लोकप्रियता के कारण इस पर और शोध की आवश्यकता है.
इस समय दुनियाभर में क़रीब 15 करोड़ लोग लैपटॉप का इस्तेमाल करते हैं.
स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क के शीर्ष शोधकर्ता डॉक्टर येफ़िम शेईकिन ने इस शोध के बारे में बताया, "लैपटॉप के अंदर का तापमान 70 डिग्री सेंटीग्रेड से भी ज़्यादा तक पहुँच जाता है."
उन्होंने बताया कि लैपटॉप को संतुलित ढंग से रखने के लिए लोग अपनी दोनों जांघों को काफ़ी क़रीब लाते हैं और इस स्थिति में पुरुषों का अंडकोष जांघों के बीच दब जाता है.
अंडकोष लैपटॉप के काफ़ी क़रीब होता है और इस कारण लैपटॉप का तापमान सीधा अंडकोष तक पहुँचता है.
शोध
इस शोध में 21 से 35 वर्ष की आयु के बीच के 29 स्वस्थ पुरुषों ने हिस्सा लिया. शोधकर्ताओं ने एक घंटे के दौरान लैपटॉप के कारण अंडकोष के तापमान में बदलाव को रिकॉर्ड किया.
इस दौरान कई बार उनके बैठने का तरीक़ा बदला गया. शोधकर्ताओं ने पाया कि अपनी जांघों के बीच लैपटॉप को संतुलित रखने के दौरान उनके अंडकोष का तापमान 2.1 सेंटीग्रेड बढ़ गया.
जब इन पुरुषों ने अपनी जांघ के बीच लैपटॉप रखा तो उनके बाएँ अंडकोष का तापमान 2.6 डिग्री सेंटीग्रेड और दाएँ अंडकोष का तापमान 2.8 डिग्री सेंटीग्रेड औसतन बढ़ा पाया गया.
डॉक्टर शेईकिन ने बताया कि सामान्य तौर पर शुक्राणु के निर्माण और विकास के लिए शरीर को अंडकोष में एक उपयुक्त तापमान की ज़रूरत होती है.
उन्होंने कहा कि अभी इसकी जानकारी नहीं है कि कितने समय और कितने बार इस तरह के तापमान बदलाव से शुक्राणु निर्माण की प्रक्रिया पर असर पड़ता है.
हालाँकि डॉक्टर शेईकिन ने यह स्पष्ट किया कि पहले के अध्ययन बताते हैं कि उपयुक्त तापमान से एक डिग्री सेंटीग्रेड तक की बढ़ोत्तरी से कोई ख़ास असर नहीं होता लेकिन लगातार तापमान में होने वाले बदलाव के कारण मुश्किलें पेश आ सकतीं हैं.
उनका कहना है कि लैपटॉप को अपनी जांघों के बीच रखकर बार-बार इस्तेमाल करने से स्थायी रूप से नुक़सान हो सकता है.
डॉक्टर शेईकिन ने सलाह दी कि जब तक इस विषय पर और शोध नहीं होते बच्चों और युवकों को अपनी गोद में रखकर इनके इस्तेमाल से बचना चाहिए.

माँ के खान-पान का असर बच्चे पर




गर्भकाल में माँ के खानपान की आदतें संतान के लिंग निर्धारण में अहम भूमिका निभा सकती है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि ज़्यादा कैलोरी वाले भोजन के साथ ही नियमित अंतराल पर नाश्ता करते रहने से लड़का पैदा की संभावना बढ़ सकती है.
विकसित देशों में गर्भवती महिलाएँ कम कैलरी वाले भोजन को अपना रही हैं जिसे लड़कियों की बढ़ती आबादी से जोड़कर देखा जा रहा है.
अध्ययन के लिए ब्रिटेन की 740 ऐसी महिलाओं को चुना गया जो पहली बार माँ बनने जा रही थीं.
शोधकर्ताओं ने इन महिलाओं से गर्भधारण के पहले और उसके शुरुआती दौर में खानपान की उनकी आदतों के बारे में जानकारी माँगी.
शोधकर्ताओं ने पाया कि गर्भकाल में अधिक कैलोरी वाला भोजन लेने वाली 56 फ़ीसदी महिलाओं को लड़का हुआ जबकि कम कैलोरी के आहार लेने वाली मात्र 46 फ़ीसदी महिलाओं को लड़का पैदा हुआ.
घटते लड़के
जिन महिलाओं के लड़के हुए उन्होंने आम तौर पर पोटाशियम, कैल्शियम, विटामिन सी, ई और बी12 जैसे तत्वों से भरे कई तरह के पोषक आहारों की ज़्यादा मात्रा ली थी.
देखा
gayaa है कि औरतों के खानपान में थोड़ा सा बदलाव भी औलाद की पूरी ज़िदगी के स्वास्थ्य पर असर डाल सकता है इसलिए गर्भधारण और गर्भकाल के दौरान समुचित आहार लेना महत्वपूर्ण है

इन महिलाओं ने नियमित रूप से नाश्ते में अनाज भी लिया था.
पहले के अध्ययनों में भी यह बात सामने आई थी कि विकसित देशों में लोग कम कैलरी वाले भोजन ले रहे हैं. इन देशों में ऐसे लोगों की तादाद काफ़ी अधिक है जो नाश्ता करते ही नहीं हैं.
वैज्ञानिकों ने यह पहले से पता लगा रखा है कि जानवरों में भी अगर माँ को प्रचुर भोजन मिले तो नर संतान पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है.
खाना
शोधों से यह भी ज्ञात है कि ग्लूकोज की ज़्यादा मात्रा नर भ्रूण के विकास में मदद पहुँचाता है लेकिन मादा भ्रूण के विकास को रोकता है.
नाश्ता न करने से ग्लूकोज का स्तर घटता है और इसका असर बच्चे पर भी पड़ सकता है.
शेफ़ील्ड यूनिवर्सिटी के डॉ. एलेन पैसी कहते हैं कि इस बात के काफ़ी सबूत हैं कि बदली हुई परिस्थितियों में प्रकृति के पास किसी आबादी में लिंग अनुपात बदलने के कई तरीक़े हैं.
हालाँकि वे कहते हैं, "महिलाओं से मेरी अपील है कि वो अपने होने वाले बच्चे के लिंग को प्रभावित करने के लिए भूखे रहने या अधिक खाने की शरुआत न करें."
पैसी बताते हैं, "कुछ जानवरों के अध्ययन में देखा गया है कि औरतों के खानपान में थोड़ा सा बदलाव भी औलाद की पूरी ज़िदगी के स्वास्थ्य पर असर डाल सकता है. इसलिए गर्भधारण और गर्भकाल के दौरान समुचित आहार लेना महत्वपूर्ण है."

Friday, April 18, 2008

ख़ूँख़ार लकड़बग्घों का हमनिवाला !

क्या इंसान और लकड़बग्घों का साथ मुमकिन है?आप कहेंगे कि नामुमकिन तो शायद कुछ भी नहीं है. बात भी ठीक है क्योंकि इथियोपिया के एक युवक ने लकड़बग्घों से न सिर्फ़ दोस्ती गाँठ ली है बल्कि वह रोज़ाना शाम को उन्हें अपने हाथ से माँस भी खिलाता है.
शाम ढलते ही दावत शुरु होती हैहरार शहर में रहने वाले 26 साल के मुलुगेता वोल्ड मरियम के घर के आसपास अँधेरा घिरते ही देश विदेश के पर्यटकों और स्थानीय लोगों की भीड़ लगनी शुरू हो जाती है.मुलुगेता अपने गले से अजीब सी आवाज़ें निकालता है और कुछ ही मिनटों में अँधेरों में कुछ जोड़ी ख़ौफ़नाक आँखें चमकने लगती हैं.धीरे-धीरे कार की हेडलाइटों के धूमिल उजाले में कुछ जानवरों के आकार नज़र आते हैं.मुलुगेता आवाज़ें निकालना जारी रखता है और आनन फानन में शहर के आस पास के जंगलों में रहने वाले कुछ डरावने लकड़बग्घे वहाँ इकट्ठा हो जाते हैं. उनके तीखे दाँत और चमकदार आँखें देखकर आस पास छुपे लोगों की साँस हलक़ में ही अटक कर रह जाती है और वे एक दूसरे को कस कर पकड़ लेते हैं.मुलुगता ने इन लकड़बग्घों को प्यार के नाम दे रखे हैं और जब वह उन्हें उनके नाम से बुलाता है तो उनमें से हर एक इसे पहचानता है.मुलुगता कहते हैं:"मैंने इन सबके नाम रखे हुए हैं और इन्हें इसका अच्छी तरह पता है."प्यार की इंतहालकड़बग्घों के वहाँ इकट्ठा होने पर मुलुगता अपने पास रखे प्लास्टिक के थैले से माँस के टुकड़े निकाल कर उनके सामने बढ़ाता है.अचानक अँधेरे से कुछ और लकड़बग्घे सामने आते हैं और बिलकुल पालतू जानवरों की तरह अपने मालिक का कहना मानते हुए माँस झपटते हैं.और फिर शुरु होता है मुलुगता का असली तमाशा यानी प्यार और विश्वास की इंतहा.वह अपने दाँतों में माँस का एक बड़ा सा टुकड़ा दबा लेते हैं और फिर उनके मुँह से माँस झपटने में लकड़बग्घों में होड़ शुरू हो जाती है.बड़े बड़े तीखे दाँत निकाले लकड़बग्घे अपने दोस्त के दाँतों में दबा माँस झपटते हैं और कुछ क़दम पीछे हटकर उसे चाव से खाते हैं.हिम्मतवरमुलुगेता बहुत हिम्मतवर युवक है और उनका दावा है कि इन ख़ूँख़ार माँसभक्षियों को मुँह से माँस खिलाने में कोई ख़तरा नहीं है.
लकड़बग्घों का साथ आसान नहींउन्होंने बताया: "मैं पिछले 11 साल से यह काम कर रहा हूँ. मुझे लकड़बग्घों से दोस्ती करना मेरे एक दोस्त ने सिखाया जो उम्र में मुझसे बड़े और अनुभवी हैं." उनका कहना है कि "अगर आप डरते नहीं हैं तो कोई ख़तरा नहीं होता क्योंकि लकड़बग्घों को डर का पता लग जाता है."पुरानी परंपराअफ़्रीक़ा में लकड़बग्घों को भोजन करवाने की परंपरा 19 वीं शताब्दी के दौरान पड़े भीषण अकाल के वक़्त शुरू हुई थी.लोक परंपरा में माना जाता है कि लकड़बग्घों को अच्छे वक़्त में खाना खिलाया जाना चाहिए ताकि अकाल और दूसरी मुसीबतों के दौरान वे आदमियों की बस्तियों पर हमला न करें.आजकल, हरार में लकड़बग्घों को भोजन खिलाकर पर्यटकों और स्थानीय जिज्ञासुओं को आकर्षित किया जाता है.मुलुगेता का कहना है,"इससे बहुत कमाई तो नहीं होती लेकिन आप जीवित रह सकते हैं और मुझे जंगली जानवरों के साथ रहना पसंद है." लेकिन हरार में बहुत लोग नहीं बचे हैं जो लकड़बग्घों से दोस्ती रख सकते हों. मुलुगेता के अलावा उनके कुछ दोस्त ही यह करिश्मा कर सकते हैं.मुलुगेता को डर है कि कहीं इंसान और जानवर का यह अद्भुत संबंध भविष्य में ख़त्म न हो जाए इसलिए आजकल वे नए लड़कों को लकड़बग्घों से मित्रता का हुनर सिखा रहे हैं.

भारतीय भेड़िया सबसे पुराना जानवर?


डीएनए टेस्ट से पता चला है कि भारत में पाया जाने वाला भेड़िया दुनिया का सबसे पुराना जानवर हो सकता है.
लुप्त होने के कगार पर पहुँच चुके इस भेड़िए के जीन के विश्लेषण से पता चला है कि इसकी नस्ल आठ लाख साल पुरानी है.
हिमालय पर पाए जाने वाले ये भेड़िए अन्य सलेटी रंग के भेड़ियों की नस्ल 'केनिस लुपस' में शामिल किए जाते हैं.
लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि ये भेड़िए जीन के आधार पर इतने अलग हैं कि इनकी नस्ल को अलग नाम दिया जाना चाहिए.
देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिकों ने हिमाचल प्रदेश के एक भेड़िए के डीएनए पर शोध किया है.
अमरीका और यूरोप के भेड़ियों की नस्ल केवल डेढ़ लाख साल पुरानी है जबकि भारतीय भेड़िया आठ लाख साल पुराना है

वन्यजीव विभाग प्रमुखकोशिका के डीएनए पर शोध करते हुए वैज्ञानिक ये पता लगा पाए कि भेड़िए की नस्ल कब शुरु हुई थी.
हिमाचल प्रदेश के वन्यजीव विभाग के प्रमुख एके गुलाटी कहते हैं, "इस शोध से पहले माना जाता था कि भारतीय प्रायद्वीप के मैदान में पाई जाने वाली भेड़िए की नस्ल दुनिया में सबसे पुरानी है. ये चार लाख साल पुरानी है. अमरीका और यूरोप के भेड़ियों की नस्ल केवल डेढ़ लाख साल पुरानी है."
शोधकर्ताओं ने पूरे भारत और दुनिया में अलग-अलग जगह पाए जाने वाले भेड़ियों और कुत्तों के 700 डीएनए नमूनों पर शोध किया.
जूली नाम के भेड़िए के डीएनए की जाँच से यह परिणाम सामने आया, उसे 14 साल पहले भारत-तिब्बत सीमा पर स्पिति घाटी में पकड़ा गया था.
हिमालय में शिकार और जंगलों के काटे जाने के कारण इन भेड़ियों का संख्या बहुत घटी है और एक अनुमान के अनुसार पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में केवल 350 भेड़िए ही बचे हैं.

वैज्ञानिकों ने दुनिया का 'सबसे बूढ़ा पेड़' खोजा

स्वीडन में क़रीब दस हज़ार साल पुराना देवदार का एक पेड़ मिला है जिसके बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि यह दुनिया का सबसे बुजुर्ग पेड़ है.
कार्बन डेटिंग पद्धति से गणना के बाद वैज्ञानिकों ने इसे धरती का सबसे पुराना पेड़ कहा है.
यूमेआ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों को दलारना प्रांत की फुलु पहाड़ियों में यह पेड़ वर्ष 2004 में मिला था.
उस समय वैज्ञानिक पेड़-पौधों की प्रजातियों की गिनती में लगे हुए थे.
फ़्लोरिडा के मियामी की एक प्रयोगशाला में कुछ दिनों पहले ही कार्बन डेटिंग पद्धति की मदद से इस पेड़ के आनुवांशिक तत्वों का अध्ययन किया गया है.
वैज्ञानिक इससे पहले तक उत्तरी अमरीका में मिले चार हज़ार साल पुराने देवदार के ही एक पेड़ को दुनिया का सबसे पुराना पेड़ मानते थे.
गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स के मुताबिक़ अभी तक का सबसे पुराना पेड़ कैलीफ़ोर्निया की सफ़ेद पहाड़ियों में है जिसकी उम्र 4,768 साल आँकी गई है.
क्लोनिंग...
माना जा रहा है कि वर्ल्ड रिकार्ड अपने नाम करने का दावेदार यह पेड़ हिमयुग के तुरंत बाद का है.
फुलु की पहाड़ियों में 910 मीटर की ऊँचाई पर यह पेड़ जहाँ पर मिला है, उसके आसपास में कोणीय पत्तियों वाले लगभग 20 और पेड़ के समूह पाए गए हैं.
वैज्ञानिकों का कहना है बाक़ी पेड़ भी आठ हज़ार साल से ज़्यादा पुराने हैं.
यूमेआ यूनिवर्सिटी का कहना है कि इन पेड़ों का बाहरी हिस्सा तो अपेक्षाकृत नया है लेकिन पत्तियों और शाखाओं की चार पीढ़ियों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि इनकी जड़ें 9,550 साल पुरानी हैं.
यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर लेफ़ कुलमैन कहते है कि इनके तने का जीवन लगभग छह सौ साल का होता है लेकिन एक की मौत के बाद जड़ से दूसरा 'क्लोन' तना निकल सकता है.
कुलमैन कहते हैं कि हर साल बर्फ़बारी के बाद जब कुछ तने नीचे झुक जाते हैं तो वे जड़ पकड़ लेते हैं.
वैज्ञानिक इस खोज से ख़ासे चकित हैं क्योंकि अभी तक कोणीय पत्तों वाले पौधों की इन नस्लों को अपेक्षाकृत नया माना जाता था.
कुलमैन कहते हैं, "परिणाणों ने बिल्कुल उल्टे नतीजे दिए हैं. कोणीय पत्तों वाले पेड़ पहाड़ियों में सबसे पुराने ज्ञात पौधों में एक हैं."
उन्होंने कहा कि इन पौधों के मिलने से अनुमान है कि उस समय यह इलाक़ा आज की तुलना में ज़्यादा गर्म रहा होगा.

Tuesday, April 15, 2008

आलिंगन स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी

GoodNews!क्या आप जानते हैं कि आलिंगन कई रोगों का इलाज है? ख़ासतौर पर उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारियों का?हालाँकि इसका असर महिलाओं पर ज़्यादा देखा गया है.अमरीका के नॉर्थ कैरोलाइना विश्विद्यालय में किए गए एक अध्ययन के अनुसार आलिंगन से ऑक्सीटोसिन नाम के एक हार्मोन में बढ़ौतरी होती है जो इन बीमारियों से बचाता है. विश्विद्यालय ने 38 दम्पत्ति पर शोध करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला है.अध्ययन के दौरान महिलाएँ और पुरुष अलग-अलग कमरों में ले जाए गए जहाँ उनका रक्तचाप और ऑक्सीटोसिन का स्तर नापा गया.उसके बाद उन्हें एक साथ बिठा कर उनसे कहा गया कि वे उन दिनों के बारे में बात करें जब वे बहुत ख़ुश रहे थे.फिर उन्हें पाँच मिनट की एक रोमांटिक फ़िल्म दिखाई गई और दस मिनट के लिए अकेला छोड़ दिया गया ताकि वे एक-दूसरे से बात कर सकें.इसके बाद हर दम्पत्ति से कहा गया कि वे बीस सेकंड तक एक-दूसरे को बाँहों में लें.प्रेम संबंध होने से ज़्यादा असर पड़ता हैआलिंगन के बाद देखा गया कि उनके ऑक्सीटोसिन का स्तर पहले से ज़्यादा हो गया था.ये भी पाया गया कि जिन पुरुषों और महिलाओं में प्रेम संबंध थे उनके हार्मोन का स्तर अन्य लोगों से ज़्यादा था.ब्रिटिश हार्ट फ़ाउंडेशन की प्रवक्ता डॉक्टर शार्मेन ग्रिफ़िथ्स का कहना है, वैज्ञानिक इस बात की जाँच करने को उत्सुक हैं कि सकारात्मक भावनाएँ स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव डालती हैं.उन्होंने कहा कि इस बात से यह साबित हो जाता है कि सामाजिक सुरक्षा सभी के लिए कितनी ज़रूरी है.

Monday, April 14, 2008

सबसे बड़ा है तो बुद्धिमान भी होगा


New Dehi। बच्चा पहला है तो ज्यादा देखभाल होगी ही। जब ज्यादा देखभाल होगी तो इसका फायदा भी मिलना चाहिए। यह मिलता भी है। एक शोध से साबित हुआ है कि किसी माता-पिता का पहला बच्चा अपने बाकी भाई-बहनों के मुकाबले ज्यादा तेज और चतुर होता है।
यूरोप के वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि बच्चों की बौद्धिकता पर पैदाइशी क्रम का बुनियादी प्रभाव होता है। परिवार के सबसे बड़े बच्चे का आईक्यू [बुद्धि लब्धि यानी मानसिक उम्र और वास्तविक उम्र का अनुपात] लेबल अपने अन्य भाई-बहनों के मुकाबले काफी ऊपर होता है। पूर्व के अध्ययनों में यह बात सामने आई थी कि पहले पैदा हुए बच्चे स्वच्छंदता और अगुवाई के मामले में पीछे होते हैं, लेकिन शैक्षिक स्तर पर ज्यादा कामयाब होते हैं। हालिया अध्ययन बताता है कि पहले पैदा हुए बच्चों का बौद्धिक स्तर बाद के भाई-बहनों के मुकाबले काफी ऊंचा होता है।
इस अध्ययन में एक हजार बच्चों को शामिल किया गया और उनके बचपन से लेकर किशोरावस्था तक के आईक्यू का परीक्षण किया गया। खास बात यह है कि पैदाइश के क्रम में दूसरे नंबर पर रहने वाले बच्चों के आईक्यू का स्तर भी अपने से छोटे भाई-बहनों की अपेक्षा ज्यादा ऊंचा पाया गया। लड़का हो या लड़की, दोनों पर यह बात समान रूप से लागू पाई गई।
एम्स‌र्ट्डम की व्रिजे यूनिवर्सिटी के प्रमुख शोधकर्ता डारेट बूम्समा के मुताबिक सबसे बड़े बच्चे का आईक्यू स्तर उन बच्चों के मुकाबले ज्यादा ऊपर पाया गया जिनसे कोई एक बड़ा भाई या बहन है। दो भाई या बहनों से छोटे बच्चों में आईक्यू स्तर कुछ ज्यादा ही कम पाया गया। इसके पीछे कारण क्या हैं, वैज्ञानिक निश्चित तौर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन इनका मानना है कि देखरेख का स्तर और परवरिश के प्रति मां-बाप का उत्साह बौद्धिक विकास में सहायक साबित होता है।

मुठ्ठी में होंगी हज़ारों घंटे की फ़िल्में

GoodNews(New Delhi)
कंप्यूटर की दुनिया की महारथी कंपनी आईबीएम के वैज्ञानिकों की मेहनत रंग लाई तो आने वाले दिनों में एक ऐसा उपकरण उपलब्ध हो सकेगा जिसके ज़रिए हज़ारों घंटे लंबी फ़िल्में सहेजना संभव होगा.
आईबीएम के शोधकर्ता 'रेसट्रैक टेक्नोलॉजी' नाम की एक तकनीक पर काम कर रहे हैं जो छोटे चुंबकीय घेरों की मदद से सामग्री या आंकड़ों (डाटा) को जमा करती है.
विज्ञान पत्रिका 'साइंस' में छपी एक रिपोर्ट में आईबीएम की कैलीफोर्निया स्थित अल्मादन प्रयोगशाला में इस तकनीक पर काम कर टीम ने बताया है कि वह किस तरह से इस अनूठे उपकरण को तैयार कर रही है.
इसके तैयार हो जाने के बाद एमपी3 प्लेयरों की मौजूदा क्षमता को सौ गुना बढ़ाया जा सकता है लेकिन रेसट्रैक टेक्नोलॉजी पर काम कर रही इस टीम का कहना है कि इसके बाज़ार में आने में अभी सात से आठ साल लगेंगे.
यादाश्त की दुनिया
इस समय ज़्यादातर डेस्कटॉप कंप्यूटर में डाटा को जमा रखने के लिए फ़्लैश मेमोरी और हार्ड ड्राइव का इस्तेमाल होता है.
इन दोनों के अपने-अपने फ़ायदे हैं तो नुक़सान भी हैं.
हार्ड ड्राइव सस्ती होती हैं लेकिन अपनी बनावट के कारण वे बहुत लंबे समय तक काम नहीं कर पातीं. डाटा को सामने लाने में भी ये कुछ समय लेती हैं.
इसके उलट फ़्लैश मेमोरी ज़्यादा विश्वसनीय हैं और इनमें सुरक्षित रखे हुए डाटा को ज़ल्दी से देखा जा सकता है. हालाँकि इसकी ज़िंदगी सीमित है और यह महँगे भी हैं.
रेसट्रैक टेक्नोलॉजी पर डॉ. स्टुअर्ट पार्किन और उनकी टीम काम कर रही है. इससे तैयार याद्दाश्त वाले उपकरण सस्ते, टिकाऊ और तेज़ साबित हो सकते हैं.
डॉ. पार्किन कहते हैं कि रेसट्रैक टेक्नोलॉजी याद्दाश्त की दोनों तकनीकों - फ़्लैश मेमोरी और हार्ड ड्राइव की जगह ले सकती है.
वह बताते हैं, "हमने रेसट्रैक मेमोरी में काम आ रही सामग्रियों और तकनीक को सामने रखा है. हालाँकि अभी तक हम ऐसा एक भी उपकरण नहीं बना सके हैं लेकिन इसे बनाना अब संभव नज़र आता है."

Friday, April 11, 2008

बारिश बुलाने के टोटके


भयंकर सूखे की चपेट में आए भारत के कई राज्यों में लोग अब अंधविश्वासों का सहारा ले रहे हैं.
वर्षा पर आधारित है भारतीय कृषिख़बरों के अनुसार उत्तर प्रदेश के कई गाँवो में औरतें रात में बग़ैर कपड़े पहने खेतों में हल चला रही हैं. माना जाता है कि ऐसा करने से देवता ख़ुश होकर धरती की प्यास बुझा देंगे
. किंवदंतियो में एक राजा को ऐसा ही करते हुए बताया गया है.पूर्वी उड़ीसा में किसानों ने मेढको के नाच का आयोजन किया जिसे स्थानीय भाषा में 'बेंगी नानी नाचा ' के नाम से जाना जाता है.गाजे-बाजे के बीच लोग एक मेंढक को पकड़ कर आधे भरे मटके में रख देते है जिसे दो व्यक्ति उठा कर एक जुलूस के आगे-आगे चलते हैं.कुछ इलाक़ों में तो दो मेढकों की शादी कर उन्हें एक ही मटके से निकालकर स्थानीय तालाब में छोड़ दिया जाता है.कर्नाटक, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों से वर्षा के लिए यज्ञ कराए जाने की ख़बर मिली है.और कहीं तो मेढकों को गधों पर उछाला जाता है.बस....कैसे भी हो.....मेह बरस जाए!!!!दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर हरबंस मुखिया के अनुसार जब परिस्थितयाँ मानव के नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं, तभी ऐसी प्रथाओं को अपनाया जाता है.उन्होंने कहा कि ग्रामीणों को शिक्षित किए जाने पर भी ये प्रथाएँ बंद नहीं होने वालीं, क्योंकि परंपराएँ उनके रग-रग में समाई हुई हैं.

इंटरनेट यूजर्स को 'टाइम' का सलाम


जानी-मानी पत्रिका टाइम ने दुनियाभर के इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले लोगों का अपने तरीक़े से अभिनंदन किया है. टाइम ने इस वर्ष 'पर्सन ऑफ़ द ईयर' का पुरस्कार इन लोगों के नाम किया है.
सोमवार को आने वाले टाइम का विशेष अंक इन्हीं इंटरनेट यूजर्स को समर्पित है. पत्रिका के मुख्यपृष्ठ पर लिखा है- यू यानी आप...हम.. वो सभी लोग जो इंटरनेट क्रांति में डूबे हुए हैं.
आप यानी हर वो आम या ख़ास जिन्होंने इंटरनेट के माध्यम से ख़बरों और ख़बरों के स्रोतों का विकेंद्रीकरण कर दिया है और शक्ति के संतुलन में व्यापक बदलाव ला दिया है.
पत्रिका ने उन लोगों का सम्मान किया है जिन्होंने इंटरनेट पर सामग्री तैयार करने में भूमिका निभाई है और आज यूजर्स की सामग्री का इस्तेमाल कर कई वेबसाइटें लोकप्रियता के शिखर पर हैं.
टाइम ने यू ट्यूब, माई स्पेस जैसी वेबसाइटों का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया है.
वर्ष 1927 से 'टाइम' पत्रिका 'पर्सन ऑफ़ द ईयर' का ख़िताब ख़बरों में साल भर बने रहने और ख़बरों और आम जनजीवन पर सबसे ज़्यादा प्रभाव डालने वाले व्यक्ति को देती है.
ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद, चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ और उत्तर कोरिया के किम जोंग इल इस साल उपविजेता रहे.
माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स, उनकी पत्नी मिलिंडा और रॉक स्टार बोनो ने पिछले साल ये ख़िताब जीता था.
'टाइम' पत्रिका के हिसाब से 2004 में पर्सन ऑफ़ द ईयर अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश थे और 2003 में ये ख़ुशनसीबी अमरीकी सैनिकों को हासिल हुई थी.
इंटरनेट
पत्रिका ने कहा कि किसी एक व्यक्ति की जगह 'आम जन' का पर्सन ऑफ़ द ईयर चुना जाना दिखाता है कि कैसे इंटरनेट ने ब्लॉग, वीडियो और सोशल नेटवर्क का उपयोग करते हुए मीडिया में अपनी दख़ल बढ़ाई है और मीडिया के शक्ति-संतुलन में बदलाव लाया है.
'टाइम' ने कहा कि यू-ट्यूब, फ़ेसबुक, माई स्पेस और विकीपीडिया जैसी वेबसाइटों की सहायता से लोगों के बीच संपर्क कई गुना बढ़ रहा है और अब लोग अपने विचारों, चित्रों और वीडियो को सभी तक आसानी से पहुँचा सकते हैं.
'टाइम' पत्रिका के लेव ग्रॉसमन कहते हैं, "ये कुछ के हाथ से ताक़त बहुतों के हाथों में पहुँचने जैसा है. ये सिर्फ़ दुनिया को नहीं बदलेगा बल्कि दुनिया बदलने के तरीक़े को भी बदलेगा."
'टाइम' ने वेब तकनीक की जमकर तारीफ़ की जिसने ख़बरों को सभी तक पहुँचाना इतना आसान बना डाला.
ग्रॉसमन ने कहा कि वेब लाखों लोगों की छोटी-छोटी कोशिशों को एक साथ ला रहा है और उन्हें मूल्यवान बना रहा है.
1938 में हिटलर और 1979 में ईरान के आयतुल्ला ख़ामेनेई जैसे लोगों को 'पर्सन ऑफ़ द ईयर' चुनने पर विवाद भी हो चुका है.